“उसके पास फोर्स ज़्यादा है..”
“हम तो कहते हैं आप कुछ दिनों के लिए गांव चले जाएं!”
“गांव चले जाएं यानि भाग जाएं? …. काहे भाग जाएं? फौज ज्यादा है तो भाग जाएं? अबे तुम लोग गुरिल्ला हो, गुरिल्ला वार किया जाएगा, गुरिल्ला वुरिल्ला पढ़े हो कि नहीं?”
हासिल के यह संवाद अपने आप में 90 के दशक के मध्य में उत्तर प्रदेश, विशेषकर पूर्वांचल में व्याप्त छात्र राजनीति को परिलक्षित करता है। इसे देखकर कौन कहेगा कि ये इस फिल्म के निर्देशक की प्रथम फिल्म है। परंतु ऐसे ही तो थे तिग्मांशु धूलिया, जिनकी फिल्में एक समय लोगों के अंतर्मन को झकझोरने में सफल रहती है। आज जो लोग मिर्ज़ापुर के मुन्ना भैया के प्रशंसक हैं, उन्हें शायद ही आभास होगा कि लगभग दो दशक पूर्व एक ऐसे चरित्र को जीवंत किया गया, जो न केवल पूर्वांचल के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से भली भांति परिचित थे, अपितु जब बात “बैड बॉय” को निभाने की हो, तो वह दिव्येंदु शर्मा यानि मुन्ना भैया के भी “बाप” सिद्ध हो। “हासिल” के इरफान खान यानि “रणविजय सिंह” ने न केवल उत्तर प्रदेश के एक छात्र नेता को आत्मसात किया, अपितु ये भी दिखाया कि “बैड बॉय” का चरित्र निभाया कैसे जाता है।
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वर्ष 2003 में आई थीं हासिल
बहुत कम लोगों को पता कि आज जो तिग्मांशु धूलिया अपने विचारों और विवादों के लिए ज्यादा चर्चा में रहते हैं, वो कभी एक समय अपने लेखन और कला के लिए भी जाने जाते थे। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से थियेटर में परास्नातक तिग्मांशु धूलिया यूं तो जाने जाते हैं “पान सिंह तोमर”, “साहेब बीवी और गैंगस्टर” के प्रथम दो संस्करण एवं “गैंग्स ऑफ वासेपुर” में अपने बहुचर्चित किरदार रामाधीर सिंह के लिए, परंतु इनका डेब्यू भी काफी प्रभावशाली था।
1999 में स्टार प्लस पर “स्टार बेस्टसेलर्स” में अपने निर्देशन से एक अलग छाप छोड़ने वाले तिगमांशु धूलिया ने फिल्म उद्योग की ओर अपने कदम बढ़ाए और मई 2003 में सामने आई “हासिल”, जिसमें मुख्य भूमिका में थे जिमी शेरगिल और ऋषिता भट्ट, और साथ में थे सुधीर पांडे, आशुतोष राणा, इरफान खान इत्यादि। परंतु ये फिल्म न जिमी शेरगिल के एक्टिंग के लिए जानी गई और न ही ऋषिता भट्ट के लिए। ये फिल्म प्रसिद्ध हुई उत्तर प्रदेश के छात्र राजनीति एवं राजनीतिक सांठ गांठ का यथार्थवादी चित्रण करने के लिए, जिसमें 90 के दशक के उत्तर प्रदेश का स्पष्ट चित्रण देखने को मिला।
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इरफान ने ग्रे शेड किरदार निभाया
परंतु जिस प्रकार से इरफान खान ने रणविजय सिंह का किरदार निभाया, उसके समक्ष मिर्जापुर के गुड्डू पंडित तो छोड़िए, मुन्ना भैया भी फीके पड़ जाएंगे। छात्रसंघ के अध्यक्ष गौरीशंकर पाण्डे यानि आशुतोष राणा के साथ उनकी तनातनी हो, या फिर अपने परिवार की हत्या के पश्चात इनका आक्रोश, रणविजय सिंह हिन्दी सिनेमा के टिपिकल विलेन की भांति पूर्णत्या नकारात्मक नहीं थे, परंतु उनके चरित्र में अनेक लेयर थे, एक उद्देश्य था, जिसमें ग्रे शेड अधिक दिखता था। वह दूध का धुला तो बिल्कुल नहीं था, परंतु उसके भी अपने कुछ नियम कायदे थे और कभी तो वह प्रमुख अभिनेता के साथ भी घुलता मिलता, भले उनका लक्ष्य कुछ और ही हो। ऐसा हर ‘विलेन’ में देखने को नहीं मिलता। उदाहरण के लिए इस संवाद से पता चलता है कि रणविजय सिंह अपने उद्देश्य के लिए किस हद तक जा सकता था-
“कल सवेरे तक ये (रिकॉर्डिंग) महामेले में बज जाएगा ये, लाखों लोगों के सामने, लाखों लोगों के सामने! फिर न इज्जत रहेगी न सरकार रहेगी, क्या करोगे? धंधा आपको चेंज करना पड़ेगा..”
अब तो उत्तर प्रदेश की दशा और दिशा काफी बदल चुकी है, परंतु 90 के दशक और 2000 के प्रारंभ में ऐसा बिल्कुल नहीं था। तब उत्तर प्रदेश का राजनीतिक दृष्टिकोण बिहार से अधिक भिन्न नहीं था, क्योंकि लोग विकास के लिए कम और अपना अपना उल्लू सीधा करने के लिए राजनीति अधिक करते थे। “हासिल” इसी जटिलता का जीता जागता प्रमाण है, जिसके प्रणेता थे रणविजय सिंह, जो पीड़ित भी और बाद में शोषक भी बने। ऐसा द्वंद कहीं और देखने को मिलेगा आपको?
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https://www.youtube.com/watch?v=DwjwTvjxtLg&t=17s
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