मॉरिशस के चटनी संगीत से कैसे आती है भोजपुरी की खुशबू?

गिरमिटिया मजदूरों को अपना देश तो छोड़ना पड़ा लेकिन अपनी संस्कृति और कला को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। आज मॉरिशस समेत कई देशों में जो चटनी संगीत लोकप्रिय है, उसके पीछे भी गिरमिटिया ही हैं।

चटनी संगीत

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कइसे बनी, कइसे बनी, कइसे बनी, कइसे बनी

फुलउरी बिना चटनी कइसे बनी

फुलउरी बिना चटनी कइसे बनी।

सलमान खान की दंबग-2 फिल्म के गाने की ये पंक्तियां याद होंगी आपको, जिस संगीत में सजाकर इसे गाया गया है उसे चटनी संगीत के नाम से जाना जाता है। चटनी संगीत की शैली भारतीय लोक गीत खासकर भोजपुरी संगीत और कैरिबियन के मिश्रण से निकली हुई है। लेकिन भोजपुरी संगीत कैरेबिया पहुंचकर वहां के संगीत के साथ मिश्रित कब और कैसे हुआ यह बड़ा ही रोचक और अद्भुत प्रसंग है।

इस लेख में जानेंगे कि कैसे चटनी संगीत की उत्पत्ति हुई और भोजपुरी संगीत कैरेबिया कब और कैसे पहुंचा?  

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चटनी संगीत की कहानी

दरअसल, चटनी म्यूजिक की कहानी 1830 के दशक में अंग्रेजों द्वारा दास प्रथा की समाप्ति से शुरू होती है। जब 1833 में अंग्रजों ने अफ्रीकी मजदूरों को दास प्रथा से मुक्त किया तो उनके  औपनिवेशिक देशों में मजदूरी करने के लिए लोगों की कमी पड़ने लगी। ऐसे में अंग्रजों द्वारा भारतीय मजदूरों को अनुबंध यानी एग्रीमेंट के तहत मॉरिशस, त्रिनिदाद, टोबेगो, गुयाना और फिजी जैसे कैरिबियन और प्रशांत महासागर के द्वीपों पर गन्ने और केले की खेती करवाने के लिए ले जाया गया। यही एग्रीमेंट वाले मजदूर अपभ्रंस में गिरमिटिया मजदूर कहलाने लगे। इन मजदूरों के साथ ऐसा करना दास प्रथा का ही दूसरा रूप था जिसमें मजदूरों को केवल खरीदा और बेचा नहीं जाता था, बाकी काम करवाना हो या प्रताड़ित करना हो, मजदूरों के साथ एक दास की भांति ही व्यवहार किया जाता था।

अगर मॉरिशस की बात करें तो अनुबंध के खत्म होने के बाद जो गिरमिटिया मजदूर अपने देश नहीं लौटे या नहीं लौट सके वो वहीं बस गए और धीरे-धीरे वहीं की भाषा ‘क्रियोल’ को सीखने लगे। उनकी आगे की पीढ़ियां शिक्षा ग्रहण करने लगीं लेकिन उनके घर में परिवेश ऐसा था कि वे आपस में भोजपुरी में ही बातचीत करते थे। क्रियोल में भोजपुरी के शब्दों साथ ही मुहावरों के मेल मिलाप और लय-ताल के लिए परंपरागत रूप से हारमोनियम, ढोलक, धनताल, तासा जैसे वाद्ययंत्रों का तो उपयोग किया ही जाता था साथ ही इलेक्ट्रिक गिटार, सिंथेसाइजर और स्टील से बने ड्रम भी उपयोग में जाने लगे थे और यहीं से ‘चटनी संगीत’ अस्तित्व में आया।

यही नहीं, 1860 के दशक में अंग्रेजों की इस परंपरा का पालन करते हुए डचों ने भी दक्षिण अमेरिका के सूरीनाम जैसे अपने औपनिवेशिक देशों में भारतीय मजदूरों को लाना शुरू कर दिया। भारतीय मजदूरों के पलायन के साथ-साथ उनकी भाषा, भोजन, संगीत, त्योहार और संस्कृति के हर उस भाग ने भी पलायन किया जो कि हर एक मनुष्य में समाहित होता है। इसी पलायन से संस्कृतियों का मेल द्वीपों पर रहने वाले अन्य निवासियों की संस्कृति से हुआ, यहीं से जन्मा एक नया और अलग प्रकार का चटनी संगीत। जिसमें एक ओर ड्रम की धमक देखने को मिलती है तो वहीं दूसरी ओर हार्मोनियम का कर्णप्रिय संगीत और ढोलक की थाप।

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अधिकतर मजदूर किसान परिवार से थे

चटनी संगीत की उत्पत्ति के बारे में ‘ईस्ट इंडियन म्यूज़िक इन द वेस्ट इंडीज़’ किताब  के लेखक पीटर मैनुएल का कहना है कि इन मजदूरों में लगभग 85 प्रतिशत मजदूर किसान परिवारों से आये थे, जोकि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी क्षेत्र के रहने वाले थे। इनमें से कुछ मजदूर पेशेवर संगीतकार थे, जबकि कुछ को संगीत के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी थी। यही नहीं मजदूरों की दयनीय स्थिति के कारण चटनी संगीत को लेकर यह भी का जाता है कि इसका आधार “विरह गीत” हैं। हालांकि यह बात सही है लेकिन यही पूर्ण सत्य नहीं है क्योंकि जिस प्रकार की रचनाएं चटनी संगीत में देखने को मिलती हैं उससे यही प्रतीत होता है कि चटनी संगीत में गाए जान वाले गीत सुख से लेकर दुख तक सभी परिस्थितियों से ओतप्रोत रहे होंगे।

चटनी संगीत के विकास और दुनियाभर में फैली की प्रसिद्धि की बात की जाए तो सन 1950 के दशक के अंत में रामदेव चैतो और द्रुपति जैसे सूरीनाम के संगीतकारों को देखा जा सकता है। ये सूरीनाम के पहले ऐसे चटनी संगीतगार थे जिन्होंने अपने गीतों को रिकॉर्ड करवाना शुरू किया। रामदेव ने जहां धार्मिक गीत गाए तो वहीं द्रुपति ने शादी के गीत गाये। यही नहीं इन गीतों का हर ट्रैक ऐसा था, जिस पर डांस किया जा सकता था।

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पहली बार इस संगीत का परिचय

1950 के दौर में दुनिया पहली बार एक ऐसे संगीत से परिचित हुई जिसका मूल भारतीय था लेकिन उसमें कैरिबियन संगीत भी मिला हुआ था। लेकिन साल 1969 में चटनी संगीत की पॉपुलेरिटी में एक और मोड़ तब आया जब युवा कलाकार सुंदर पोपो ने “नाना और नानी” शीर्षक गाने को पश्चिमी इलेक्ट्रिक गिटार के साथ रिकॉर्ड करवाया। चटनी संगीत में इलेक्ट्रिक गिटार को पहली बार शामिल किया गया था। जब यह गाना रिलीज हुआ तो लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया और सुंदर पोपो को चटनी संगीत का बादशाह कहा जाने लगा। इसके अलावा पोपो का दौर वह दौर था जब कैरिबियन प्रशांत द्वीप समूह औपनिवेशिक बंधनों से मुक्त होने लगे थे।

कई भारतीय मूल के लोग अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और नीदरलैंड जैसे देशों में जाकर बस गए जहां से चटनी संगीत दुनिया में फैलने लगा। साथ ही कई अप्रवासी भारतीयों ने अपनी खुद की रिकॉर्ड कंपनियां खोलीं। उन्होंने न्यूयॉर्क और टोरंटो जैसे प्रमुख शहरों में नाइट क्लब भी खोले, जिन्होंने विदेश में चटनी संगीत को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्तमान समय में लोग चटनी संगीत को नाम से भले ही न जानते हों लेकिन उन्होंने इसके गाने अवश्य सुने होंगे। हालांकि मौजूदा दौर में चटनी संगीत में कुछ गाने ऐसे भी बनाए गए हैं जिन्हें लोग आपत्तिजनक बताते हैं।

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यदि चटनी संगीत की उत्पत्ति और यात्रा को लेकर सारगर्भित बात करें तो पाएंगे कि यह संगीत विरह का भी है, यह संगीत उत्साह भरने वाला भी है। भारत भूमि से निकला और विदेशी भूमि से जुड़कर आज यह संगीत आधुनिकता से ओतप्रोत है और पूरी दुनिया में छाया हुआ है।

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