थोड़ी ही प्रसिद्धि मिलने के बाद कुछ लोग अपने आप को बहुत बड़ा तीस मार खान समझने लगते हैं। वो सोचते हैं कि मानों उनसे श्रेष्ठ तो कोई दूसरा है ही नहीं। इनमें एक नाम नवाजुद्दीन सिद्दीकी का भी शामिल है। अपने अभिनय के दम पर भले ही नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने बॉलीवुड उद्योग में अलग पहचान भी बना ली हों। परंतु प्रसिद्धि मिलने के साथ ही नवाजुद्दीन सिद्दीकी घमंड में चूर होते नजर आने लगे हैं।
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इतनी प्रशंसा क्यों?
क्या नवाजुद्दीन एक अयोग्य अभिनेता है? नहीं, परंतु जितनी उसकी प्रशंसा की जाती है, उस योग्य वे शायद ही होंगे। न वे केके मेनन जितने दमदार हैं कि कोई भी रोल दीजिए, आग लगा देंगे, न ही वे इरफान खान जैसे हैं कि अपने दम पर पूरी की पूरी फिल्म का भार उठा लें। न ही वे अजय देवगन हैं, जो आंखों से ही अपने भाव प्रकट कर दें और न ही वे अक्षय खन्ना हैं, जिनके लिए लगभग हर रोल मक्खन जितना स्मूथ हो।
परंतु नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने ऐसा क्या किया, जो वे एक स्टार कहलाने योग्य नहीं? एक स्टार होने के लिए आपके पास क्या होना चाहिए? जहां तक भारतीय फिल्म उद्योग का प्रश्न है, आपकी फैन फॉलोइंग अत्यंत भयंकर होनी चाहिए, आप हर प्रकार के रोल करने में यदि सक्षम न हो, तो भी आप कम से कम प्रयासरत तो होना चाहिए। आपके अभिनय में जान होनी चाहिए और ऑफस्क्रीन भी यदि आप आदर्श व्यक्तित्व न दिखाए, तो कम से कम ऐसे वार्तालाप करें कि लोग आपको बिना बात अपशब्द भी न कहें। परंतु नवाजुद्दीन सिद्दीकी में शायद ही कोई ऐसे गुण हो जो उन्हें “स्टार” बना सके।
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साइड रोल से मिली अधिक लोकप्रियता
ऐसा नहीं है कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने प्रयास ही नहीं किया। किसे पता था कि 90 के दशक में “सरफ़रोश”, “शूल” एवं “मुन्नाभाई एमबीबीएस” जैसी फिल्मों में छोटे रोल करने वाला एक दिन भारतीय फिल्म उद्योग पर अपना “गहरा” प्रभाव डालेगा। परंतु “न्यूयॉर्क” एवं “पीपली लाइव” में अपने अभिनय से जो प्रभाव इन्होंने डाला, उसके कारण इन्हें निर्देशक एवं निर्माता भी गंभीरता से लेने लगे। 2012 तो नवाजुद्दीन के लिए जैकपॉट समान रहा, जब इनकी लगभग सात फिल्में प्रदर्शित हुई और इनमें से “कहानी”, “गैंग्स ऑफ वासेपुर”, “पान सिंह तोमर” एवं “तलाश” बॉक्स ऑफिस पर सफल भी रही।
परंतु यहां पर समस्या ये है कि नवाजुद्दीन सिद्दीकी का अभिनय इनमें सब पर भारी नहीं पड़ा। अपने कद के अनुरूप इन्होंने यदि अच्छे में अभिनय किया है, तो केवल “कहानी” में, जहां ये विद्या बालन को आईबी अफसर ए खान के रूप टक्कर देते हुए दिखाई दिए। इसके अतिरिक्त यदि इनके अभिनय में कहीं जान थी, तो वह थी द लंचबॉक्स में, जहां साजन फ़र्नैन्डेज (इरफान खान) के सहकर्मी शेख के रूप में इन्होंने सबको रिझाया और जिसके लिए इन्हें सर्वश्रेष्ठ सपोर्टिंग एक्टर का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला।
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तो समस्या क्या है? नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने लोकप्रियता तभी पाई है, जब वे साइड रोल में रहे हैं, जो “किक” एवं “बजरंगी भाईजान” में भी परिलक्षित होता है। परंतु लीड रोल में उन्होंने शायद ही कभी उत्कृष्टता दिखाई है, चाहे वो “फ्रीकी अली” हो, “हरामखोर” हो, “बाबूमोशाई बन्दूकबाज़” हो या फिर “मंटो” ही क्यों न हो। वैसे मंटो और नवाजुद्दीन में एक अच्छी खासी समानता है – दोनों ने बहुत तोप न गाढ़ी हो, परंतु इनके चर्चे ऐसे हैं कि ये न हो तो फिल्म उद्योग ही बंद हो जाए।
इसीलिए 2020 के बाद जब से सिनेमा उद्योग कोविड के झटके के बाद उभरा है, कई बड़े बड़े तुरर्म खान की भांति नवाजुद्दीन की भी हवा निकल गई। OTT तो छोड़िए, प्रमुख सिनेमा में भी इन्हें अपना सम्मान बचाने के लाले पड़ रहे हैं। हीरोपंती 2 में इनके किरदार पे जितना कम बोलें, उतना ही अच्छा। परंतु इसके बाद भी नवाजुद्दीन की हरकतों में कोई अंतर नहीं आया है, उल्टे वे कहते हैं कि अगर उन्हें 25 करोड़ भी मिले तो वे छोटे रोल नहीं करेंगे। हिपोक्रेसी शायद इसी का नाम है।
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