भारत, एक ऐसा देश, जहां कुछ लोगों को निरंतर अपमानित करना या उन्हें अनदेखा करना इस राष्ट्र के कुछ बुद्धिजीवियों के लिए “टॉनिक” समान है परंतु दूसरी ओर कुछ आराध्यों की आलोचना मात्र भी “बेअदबी” के समान हो जाती है, जैसे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी। कुछ वर्ष पूर्व फिल्म “गांधी माइ फादर” ने भी एक ऐसी ही भूल की थी क्योंकि उसने मोहनदास के “महात्मा” व्यक्तित्व की पोल खोलने का साहस किया था। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे “गांधी माइ फादर” द्वारा गांधी परिवार की वास्तविकता को चित्रित करने के पीछे “गांधीवादियों” ने Gandhi My Father फिल्म को निशाने पर लिया और कैसे यह फिल्म एक समय सच दिखाने के पीछे प्रतिबंध के मुहाने पर थी।
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‘महात्मा बनने की चाह’ और कर्तव्यों का त्याग
आज जब कुछ लोग फिल्म “पठान” पर सेंसर बोर्ड के विचार मात्र सुनने पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोना रोते हैं या ये कहते हैं कि देश में कला एवं रचनात्मकता के लिए कोई स्थान नहीं है, तो हंसी आती है। ऐसा इसलिए क्योंकि यही लोग “गांधी माइ फादर” जैसी फिल्म को रोकने हेतु एड़ी चोटी का जोर लगा देंगे। एक समय ऐसा भी था जब बॉलीवुड न प्रयोग करने से हिचकता था और न ही सत्य की खोज में पीछे हटता था और “गांधी माइ फादर” (Gandhi My Father) इसी का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
“गांधी वर्सेज गांधी” नामक पुस्तक के ऊपर फिरोज़ अब्बास खान ने एक नाटक रचा था, जिसके आधार पर “गांधी माइ फादर” (Gandhi My Father) की पटकथा लिखी गई। इस फिल्म में ‘महात्मा गांधी’ और उनके ज्येष्ठ पुत्र हरिलाल गांधी के बीच के अंतर द्वंद को चित्रित किया गया है। इस फिल्म में हरिलाल का किरदार अक्षय खन्ना ने निभाया है, जबकि मोहनदास करमचंद गांधी और उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी का किरदार क्रमश: दर्शन जरीवाला एवं शेफाली शाह ने निभाया है।
इस फिल्म को देखने के बाद सर्वप्रथम प्रश्न यही आता है कि Gandhi My Father फिल्म के लिए अक्षय खन्ना को कोई सम्मान क्यों नहीं दिया गया? यह कथा हरिलाल के दृष्टिकोण से रची गई है, जहां वह अपने पिता की भांति एक बैरिस्टर बनना चाहते हैं परंतु मोहनदास को न इसमें रुचि है और न ही वह अपने पुत्र को समझाने को तैयार हैं। निराश और हताश होकर हरिलाल गांधी विनाश की ओर अग्रसर हो जाते हैं और मदिरापान से लेकर जुआ, यहां तक कि धर्मांतरण का भी मार्ग अपनाते हैं। अब सवाल यह है कि महात्मा बनने की चाह में मोहनदास करमचंद गांधी कैसे अपने ही कर्तव्यों का त्याग कर बैठे, उसे दो संवादों में बड़ी ही सटीकता से प्रदर्शित किया गया है-
पहला संवाद यह है कि “सिर्फ एक बार, गांधी बनकर नहीं बल्कि एक बाप बनकर अपने बेटे की आवाज़ सुनें!” दूसरा संवाद यह है कि “बापू आपके आदर्श का बोझ ढोते ढोते मैं थक गया हूं, मैं सांस लेना चाहता हूं…”
अपनी इच्छाओं के पीछे परिवार का नाश कर दिया
ध्यान देने योग्य है कि मोहनदास करमचंद गांधी पर अब तक जितनी भी फिल्में बनी है, उन सब में कहीं न कहीं उन्हें या तो देवतुल्य सिद्ध करने का प्रयास किया गया है या फिर उन्हें संत, महात्मा दिखाने का प्रयास किया गया है। केवल तीन फिल्में ऐसी हैं, जिनमें मोहनदास गांधी को उनके वास्तविक चरित्र अनुसार दिखाने का प्रयास मात्र किया गया। उनमें पहली फिल्म है “बाबासाहेब अंबेडकर”, जिसमें मामूटी ने प्रमुख भूमिका निभाई थी और जिसमें मोहन गोखले ने गांधी का किरदार निभाया था। परंतु उस फिल्म में गांधी पर कम, अंबेडकर पर ध्यान अधिक केंद्रित था।
दूसरी फिल्म थी राजकुमार संतोषी की ‘द लीजेंड ऑफ भगत सिंह”, जो आज भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर बनी सबसे प्रभावशाली फिल्मों में से एक है। इसमें गांधी का रोल प्रसिद्ध सुरेन्द्र राजन ने निभाया था और क्रांतिकारियों से उनके विद्वेष एवं अवसर होते हुए भी क्रांतिकारियों को अनदेखा कर गांधी-इरविन पैक्ट पर हस्ताक्षर करना, सब बिना लाग लपेट के चित्रित किया गया है। परंतु Gandhi My Father इन सब से अलग है क्योंकि इसने न केवल हरिलाल गांधी को बिना लाग लपेट के चित्रित किया अपितु इस बात पर भी प्रकाश डाला कि कैसे देश के कथित “बापू” ने अपनी इच्छाओं के पीछे अपने ही मूल परिवार को नष्ट कर दिया। इसके अतिरिक्त इस फिल्म में इस बात पर भी प्रकाश पड़ा कि कैसे गांधी भी कम वंशवादी नहीं थे बस उनके “पदचिह्नों” पर न चलने के पीछे हरिलाल गांधी को जीवनभर अपमान झेलना पड़ा।
परंतु सत्य कोई मीठी गोली तो है नहीं, जिसे सब संहर्ष खा लेंगे। इसका विरोध किया गया और किसी और ने नहीं बल्कि गांधीवादियों ने किया। उनके लिए ये उनके “बापू का अपमान था”, जिसे वह कदापि बर्दाश्त करने के मूड में नहीं थे। यह फिल्म कैसे प्रदर्शित हुई, यह अपने आप में आश्चर्य है परंतु “Gandhi My Father” ने दर्शकों से एक कचोटता हुआ प्रश्न पूछा था और वो यह था कि जो व्यक्ति अपने पुत्र, अपने परिवार का न हो सका, वो देश के लिए क्या ही होगा?
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