“ए दिल है मुश्किल जीना यहां,
जरा हटके, जरा बचके, यह है बॉम्बे मेरी जान”
यदि आप पुराने फिल्मों के प्रशंसक हैं, तो आपने CID नामक फिल्म के इस गीत को अवश्य देखा या सुना होगा। इस गीत के माध्यम से बड़े शहरों के रौनक के पीछे के “स्याह पहलू” को दिखाते हुए एक व्यंग्य कसा गया और व्यंग्यकार जॉनी वॉकर को इस गीत एवं फिल्म में रोल के लिए इतना सराहा गया कि उसके बाद से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। परंतु जिस जॉनी वॉकर को आज भी कई क्रिटिक भारतीय सिनेमा के “कॉमेडी किंग” मानते हैं, वे क्या इसके योग्य भी थे या फिर किसी के समर्थन को अपनी बैसाखी बनाकर उन्होंने अपना करियर चलाया? इस प्रश्न का उत्तर आज भी देने में लोग असमर्थ है। इस लेख में हम जानेंगे कि जॉनी वॉकर कैसे उतने भी उत्कृष्ट हास्य कलाकार नहीं थे, जितना बताया और प्रचारित किया गया है।
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बस कंडक्टर से बने हास्य कलाकार
किसे पता था कि इंदौर के एक मिल कर्मचारी का बेटा बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी एक दिन भारतीय सिनेमा में अपनी अलग पहचान बना लेगा। मिल की नौकरी जाने के बाद वो अपने परिवार सहित बॉम्बे (अब मुंबई) आ गए, जहां उन्होंने मुंबई बस सेवा यानि BEST में कंडक्टर की नौकरी पकड़ी। परंतु बदरुद्दीन मियां कोई ऐसे वैसे व्यक्ति नहीं थे, ये टिकट देते समय भी लोगों का मनोरंजन करते फिरते थे।
काजी को दूसरों की नकल उतारने व अभिनय का शौक था, जिसे वो अपनी बस यात्राओं में यात्रियों के सामने अपना दिल बहलाने के लिए करते। इनकी इसी कला से एक अभिनेता काफी प्रभावित हुए और ये कोई और नहीं, बलराज साहनी थे, जिन्होंने इनको नवकेतन फिल्म्स के लिए फिल्में रच रहे निर्देशक, लेखक एवं अभिनेता गुरु दत्त से मिलवाया। गुरु दत्त ने बदरुद्दीन को बहुचर्चित व्हिस्की जॉनी वॉकर के नाम पर इनका नाम जॉनी वॉकर रख दिया, क्योंकि वे शराब का सेवन न करते हुए भी एक बेवड़े का इतना “उत्कृष्ट अभिनय” करते कि स्वयं गुरु दत्त भी इनके प्रशंसक बन गए और इन्हें अपनी डेब्यू फिल्म 1951 में प्रदर्शित “बाज़ी” में बतौर हास्य अभिनेता काम भी दिया।
अब ये बात कितनी सत्य है, ये तो वाद विवाद का विषय है, परंतु आजकल की पीढ़ी में एक मीम बड़ा प्रचलित है, वही “मैं गरीब हूं, मैं गरीब हूं” वाला। यूं तो ये रील मोटिवेशन एवं सहानुभूति बटोरने के लिए बनाई गई थी, परंतु इसने उल्टा गरीबी को ही एक कमर्शियल उत्पाद बना दिया, जिसके अपने लाभ और हानि भी हैं।
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गुरु दत्त के कारण हुए सफल?
तो इसका जॉनी वॉकर से क्या लेना देना? माना कि पांचों उंगलियां बराबर नहीं और हर किसी को समान अवसर नहीं मिलते। परंतु इसका अर्थ ये भी नहीं है कि आप अपनी कठिनाइयों को लेकर उसका रोना रोए। जॉनी वॉकर क्यों सफल हुए, इसके पीछे बहुत ही कम कारण बताए जाते हैं, परंतु यह अधिक बताया जाता है कि वे बड़े गरीब परिवेश से आते थे और उन्हें उनके काम के कारण भारतीय सिनेमा विशेषकर बॉलीवुड में नाम कमाया।
तो क्या जिस स्कूल से ये “मैं गरीब हूं” जैसे रील निकलते हैं, क्या उसी स्कूल के हेडमास्टर थे जॉनी वॉकर या फिर गुरु दत्त के फिल्मों को अपने करियर की बैसाखी बनाकर उन्होंने अपना नाम कमाया? दोनों ही अपनी अपनी जगह संभव है, क्योंकि जॉनी वॉकर के जो भी बहुचर्चित फिल्में हैं, उनमें गुरु दत्त की फिल्मों की भरमार रही है। किसी अन्य निर्देशक के साथ इनकी फिल्में बहुत ही कम चली है, या फिर इनके रोल को कोई प्राथमिकता नहीं मिली, जिसमें एकमात्र अपवाद बिमल रॉय की मधुमती रही, क्योंकि गुरु दत्त के अतिरिक्त जॉनी वॉकर के दिलीप कुमार से भी मधुर संबंध थे।
परंतु अभिनय जगत में कॉमेडी कहने को एक ऐसी विधा है, जिसमें यदि आप निपुण हुए, तो आप कोई भी रोल आराम से कर सकते हो। अगर ये सत्य है तो जॉनी वॉकर बड़े ही औसत कलाकार थे, क्योंकि उनमें विविधता नाम मात्र की भी नहीं थी। न वे अभिनेता पेन्टल और गोवर्धन असरानी की भांति विविध रोल करते और न ही वे महमूद एवं किशोर कुमार की भांति वे अलग अलग तरह के जोखिम उठाने को तैयार थे। कहीं न कहीं ये कहना गलत नहीं होगा कि जॉनी वॉकर केवल नाम के कॉमेडियन थे, वे दूसरे शब्दों में गुरु दत्त के कर्मचारी थे, जिन्हें कुछ क्रिटिक्स ने इतना भव्य तरह से पेश किया कि ये न हो, तो भारतीय सिनेमा में कॉमेडी ही नहीं होती।
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