हमारे समाज में कई वर्षों से महिला और पुरुष को समान अधिकार दिलाने को लेकर एक जंग चली आ रही है। इस जंग में जहां कुछ लोग महिलाओं और पुरुष के सामान अधिकार की बात करते रहे हैं तो एक वर्ग ऐसा भी हैं कि जो महिलाओं के अधिकार की आड़ में पुरुषों को खलनायक दर्शाने का प्रयास करते आए हैं। इसका उदाहरण हाल ही में सामने आया है। द इंडियन एक्सप्रेस ने अजय देवगन की थ्रिलर फिल्म दृश्यम को लेकर एक लेख लिखा है, जिसमें अजय के किरदार यानी विजय सालगांवकर को घमंडी, महिलाओं का तिरस्कार करने वाला, उनको नीचा दिखाने वाला और महिलाओं के प्रति अविश्वास रखने वाला व्यक्ति के तौर पर प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी।
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पुरुषों से समस्या
यदि आपने इस फिल्म को देखा होगा तो शायद आप इन सभी बातों को सुनकर आश्चर्य में पड़ गए होंगे कि आखिर ये कैसे हो सकता है? क्योंकि दृश्यम में तो एक सामान्य पारिवारिक पुरुष की कहानी दिखायी गई है, जो अपने परिवार की रक्षा के लिए स्वयं की जिंदगी को दांव पर लगा देता है। लेकिन फिर इस लेख में अजय देवगन के किरदार को इस तरह से क्यों दर्शाने के प्रयास किए गए? क्यों इस लेख में विजय सालगांवकर को महिलाओं को नीचा दिखाने वाले आदमी घोषित किया जा रहा है? ऐसा इसीलिए है क्योंकि अब वामपंथियों को पुरुषों और विशिष्ट रूप से पारिवारिक पुरुषों से भी समस्या होने लगी है।
द इंडियन एक्सप्रेस का लेख
सबसे पहले जान लेते हैं कि द इंडियन एक्सप्रेस के अपने लेख में लिखा क्या है? लेख के अनुसार, फिल्म दृश्यम 1 और दृश्यम 2 में विजय सालगांवकर को एक विषाक्त (Toxic) व्यक्ति बताया गया है, जो घर को अपनी शर्तों के अनुसार चलाता आया है। अपने घर की किसी भी महिला का सम्मान नहीं करता है। उनसे हर छोटी-बड़ी बात को छिपाकर रखता है। अपनी बेटी को पुलिस के हाथों से पीटने देता है। साथ ही कैसे उस आदमी ने अपनी पूरे परिवार को एक ऐसे संकट में डाल दिया जो बहुत ही अधिक खतरनाक था।
परंतु क्या वास्तव में ऐसा था? बिलकुल नहीं? फिल्म देखने पर आपको समझ आएगा कि अगर दृश्यम में एक राक्षस प्रवत्ति वाला पुरुष घर की महिलाओं पर अपनी गंदी नज़र न डालता तो उनके हाथों उसका खून नहीं होता। ऐसा नहीं होता तो विजय सालगांवकर अपने घर की महिलाओं को बचाने के लिए यह पूरा खेल क्यों रचता? अगर वो इतनी चालाकी से परिस्थितियों को नहीं संभालता तो शायद उसकी पत्नी और बेटी को सारी उम्र जेल में ही काटनी पड़ती। अब आदमी अगर अपने परिवार के लिए लड़ रहा तो वामपंथियों के अनुसार वह गलत है। अगर वह आदमी अपने घर की महिलाओं से बातें छुपा रहा तो वह घमंडी है। आखिर पुरुष करें तो करें क्या?
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पुरुष विरोधी विज्ञापन और फिल्म
देखा जाये तो लंबे समय से समाज में फिल्मों और विज्ञापनों के माध्यम से पुरुषों के प्रति जो व्यवहार दिखाया जा रहा है वो अधिक दयनीय है। उदाहरण के लिए कुछ वर्ष पहले आए अभिनेत्री संजना सांघवी के लायंसगेट प्ले ऐप के विज्ञापन को ही देखें कि कैसे इसमें एक लड़की कौन सा शो देखने है ये तय करने के लिए लड़के को बार-बार थप्पड़ मारती है। ये ऐड लोगों को क्या सन्देश दे रहा है? अगर ऐड में इसका विपरीत होता तो इसके परिणाम क्या होते?
यह सब छोड़िए आप कुछ माह पूर्व ही आयी आलिया भट्ट की फिल्म ‘डॉर्लिंग’ को ही देख लीजिए, जिसमें पुरुषों के विरुद्ध हिंसा को सामान्य बनाने के प्रयास किए गए। फिल्म में दिखाया गया कि कैसे एक महिला घरेलू हिंसा का बदला अपने पति को पीटकर और उसे प्रताड़ित करके लेती है। भला यह घरेलू हिंसा का बदला लेने का कौन-सा तरीका हुआ? इसके माध्यम से आखिर क्या संदेश समाज को देने के प्रयास किए गए? क्या आलिया ने इस फिल्म से घरेलू हिंसा को कॉमेडी के साथ प्रस्तुत कर पुरुषों के विरुद्ध होने वाले घरेलू हिंसा को सामान्य बनाने की कोशिश नहीं की।
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इसके अलावा Cars 24 के एक विज्ञापन की बात करें तो इसमें पहले तो दो महिलाएं आपस में गाड़ी को 7 दिनों में वापस करने का एक बेहतरीन विकल्प के बारे में बात करती है। वहीं इसके बाद वो महिलाएं पति पसंद न आने पर भी उसे 7 दिनों में वापस करने की बात कहती नजर आती है। अब दूसरे पहलू पर गौर करिए। अगर एक पुरुष किसी भी महिला के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करें तो उसे न जाने क्या क्या कह दिया जाएगा।
आपने शाहिद कपूर की फिल्म कबीर सिंह तो अवश्य देगी होगी। आपको वो सीन भी याद होगा, जिसमें शाहिद, कियारा आडवाणी को एक थप्पड़ मारते हैं, जिस पर प्रश्न खड़े किए जाते हैं। परंतु उसी फिल्म में कियारा भी शाहिद को कई थप्पड़ पर थप्पड़ मारती हैं परंतु इस पर कोई चर्चा नहीं करता।
फ़िल्में और विज्ञापन समाज का आईना होती हैं तो फिर इनमें दिखाई जाने वाली पुरुषों के प्रति हिंसा, गलत व्यवहार, अपमान आदि को सामान्य कैसे मान लिया जाता है? एक पुरुष यदि अपने परिवार की रक्षा के लिए कुछ करता है, तो उसे खराब व्यक्ति के तौर पर प्रस्तुत किया जाने लगता हैं। नारीवाद का झंडा लेकर चलने वाले यह लोग महिला और पुरुषों के लिए सामानता की तो बहुत बात करते हैं, परंतु वो भूल जानते हैं कि समानता दोतरफा होती है।
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