“जाति के नाम पर हिंसा, भरी दोपहर में गुंडों का डर, भयग्रस्त लोग”, नीतीश कुमार बिहार को दोबारा से ‘पुराना बिहार’ बनाना चाहते हैं?

बिहार को आगे की बजाये पीछे ले जाने पर क्यों तुले हैं नीतीश कुमार?

जातीय जनगणना, नीतीश कुमार

Source- TFI

बिहार देश का एक अद्भुत प्रदेश है। यहां की राजनीति और राजनेता दोनों ही किसी न किसी विषय को लेकर चर्चाओं में रहते हैं। मौजूदा दौर में बिहार की राजनीति में चर्चा का केंद्र जातिगत जनगणना है। बिहार में सरकार चला रहे नीतीश कुमार अपनी आंखें और उम्मीद दोनों ही जानगणना पर टिकाए हुए हैं। क्योंकि उनकी राजनीति की गाड़ी जिस तेल से चलती है वह जाति नाम के मिल से ही निकलता है और भविष्य में जातीय जनगणना इस तेल की आपूर्ति करने का काम करेगी। लेकिन बिहार में हो रही जातीय जनगणना को लेकर कई प्रकार के प्रश्न खड़े हो रहे हैं। इसीलिए आज हम इस विषय पर विस्तार से चर्चा करते हुए जानेंगे कि आखिकार बिहार में जातिगत जनगणना क्यों हो रही है और भविष्य में बिहार के राजनीतिक और सामाजिक माहौल पर इसका क्या प्रभाव पड़ने वाला है?

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बिहार में जातीय जनगणना

दरअसल, एक लंबी खींचतान और रस्साकशी के बाद बिहार में 7 जनवरी 2023 से जातीय जनगणना शुरू हो चुकी है। इसे लगभग 500 करोड़ के सरकारी खर्च के साथ दो चरणों में पूरा किया जाएगा। अभी इसका पहला चरण चल रहा है जिसकी शुरुआत राजधानी पटना के VIP इलाकों से की गई है। हालांकि जातीय जनगणना को रुकवाने के लिए कुछ लोगों के द्वारा सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं भी दायर की गई थीं। परंतु सुप्रीम कोर्ट ने बिना सुनवाई किए ही 20 जनवरी को याचिकाएं खारिज कर दीं।

सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाएं भले ही खारिज कर दी हो लेकिन जातीय जनगणना को लेकर प्रश्न जस के तस बने हुए हैं। लोग अभी भी पूछ रहे हैं कि 500 करोड़ के सरकारी पैसा सिर्फ इसलिए खर्च किया जा रहा है ताकि बिहार की 14 करोड़ की आबादी की जाति पता लगाई जा सके और तमाम राजनीतिक दल अपने-अपने वोटबैंक को समेट सकें। लेकिन इससे पहले जातीय जनगणना क्या है? और बिहार में इसे क्यों कराया जा रहा है? यह जानना बेहद आवश्यक है।

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जातीय जनगणना क्या है?

भारत में हर 10 साल में एक बार जनगणना की जाती है जिसका उद्देश्य विकास योजनाएं तैयार करना, देश की आबादी का पता लगाना और लोगों को उनके अधिकार देने के लिए नीतियां बनाना है। लेकिन जातीय जनगणना सामान्य जनगणना से भिन्न है। इसका उद्देश्य राज्य में जाति अनुपात का पता लगाना है। यानी राज्य में किस जाति के कितने प्रतिशत लोग रहते हैं। भारत में पहली बार जनगणना वर्ष 1881 में हुई थी, जिसमें जातीय आधार पर जनगणना भी की जाती थी। वर्ष 1931 तक ऐसा ही चलता रहा। इसके बाद भारत में जाति को आधार बनाकर कभी भी जनगणना नहीं की गई। हालांकि वर्ष 1941 में भी जनगणना हुई लेकिन इसके आंकड़े कभी भी पेश नहीं किए गए इसलिए उसे जातीय जनगणना के रूप में नहीं गिना जाता है। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात वर्ष 1951 से जनगणना में केवल एससी और एसटी के आंकड़े ही जारी होते आ रहे हैं।

क्या है इसके पीछे असल उद्देश्य?

इसका प्रमुख उद्देश्य लोगों की जाति अनुपात का पता लगाना है। लेकिन कुछ बुद्धिजीवी लोगों का कहना है कि भारत में विभिन्न जाति के लोग रहते हैं इसलिए नीतियां बनाने के लिए सरकार के पास सही आंकड़ों का होना बेहद आवश्यक है। लेकिन वे यह भूल जाते हैं इसका जो दूसरा पहलू है “जाति आधारित राजनीति” उसका क्या समाधान है? क्योंकि जातीय जनगणना के बाद राज्य में रह रहे लोगों को अपनी-अपनी जाति के अनुपात के बारे में पता चलेगा और उससे अधिकतर राजनीतिक दल लोगों को लामबंद करने के लिए गुटबाजी शुरू कर देंगे। यही कारण है कि आजादी के बाद भारत में कभी भी केंद्र सरकार ने जातीय जनगणना नहीं कराई।

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जातीय जनगणना का असर?

बिहार में हो रही जातीय जनगणना के बारे में बात की जाए तो यह आने वाले समय बिहार के लिए एक खतरा साबित हो सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि बिहार की राजनीति पहले से ही जाति आधारित राजनीति है। ऐसे में वर्तमान समय का जातीय अनुपात सामने आता है तो यह बिहार को उसी मोड़ पर लाकर खड़ा कर देगा जहां से बिहार की शुरुआत हुई थी। यानी राजनीतिक दल अपनी-अपनी वोटबैंक को समटने के लिए गुटबाजी शुरू कर देंगे और उसी जाति के लोगों को लक्षित करेंगे जिसके वोट अधिक होंगे। पहले से ही बिहार विकास के मामले में अन्य राज्यों से पिछड़ा है। और अब यहां जाति की बातें ही होंगी तो ऐसे में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की बातें किसी अंधेरे कोने में मुंह को बंद किए बैठी रहेंगी और लोग अपनी-अपनी जाति का तमगा लेकर घूमते फिरेंगे। इससे बिहार की जनता को हासिल कुछ नहीं होने वाला।

यदि बिहार की जातीय जनगणना को दूरदृष्टिता के पैमाने पर रखकर देखा जाए तो यह बिहार को उसी दशकों पुराने वर्ग संघर्ष की राजनीति के मुहाने पर लाकर खड़ा कर देगा जहां सवर्ण बनाम पिछड़ा वर्ग की राजनीति हुआ करती थी। ऐसे में इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि बिहार में पुनः जंगल राज की स्थापना शीघ्र ही हो सकती है, जहां जाति के नाम पर हिंसा होती थीं। यानी नीतीश कुमार बिहार को पुराना बिहार बनाकर ही दम लेंगे और वो राज्य को आगे की जगह बहुत पीछे धकेल देंगे।

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