Qala Review: लंबे समय बाद बॉलीवुड की एक बेहतरीन फिल्म, दशक का सबसे अच्छा संगीत

एक लंबे वक्त के बाद बॉलीवुड में कोई ऐसी फिल्म आई है जो रुककर देखने को और आंखे बंद करके संगीत सुनने को मज़बूर कर देती है।

Qala Review

Source- TFI

Qala Review: अपनी संपूर्ण कलाओं के साथ जैसे झील में चांद उतरता है, कुछ वैसे ही नेटफ्लिक्स पर फिल्म कला उतरी। कला इस दौर की पीढ़ी के लिए सिनेमाई चमत्कार है। एक लंबे वक्त के बाद बॉलीवुड में कोई ऐसी फिल्म आई है जो रुककर देखने को और आंखे बंद करके संगीत सुनने को मज़बूर कर देती है। अमित त्रिवेदी ने कला में संगीत से जो छटा बिखेरी वो अद्भुत है। ऐसी फिल्म का रिव्यू करने के लिए भी एक विशेष योग्यता की आवश्यकता होती है। मुझे नहीं पता कि मैं उस योग्य हूं या नहीं लेकिन आपके लिए कोशिश पूरी की है। तो आर्टिकल पढ़िए (Qala Review), उसके बाद नेटफ्लिक्स पर कला फिल्म अवश्य देखिए।

फिल्म (Qala Review) की कहानी क्या है? 

हिंदी के एक बड़े लेखक हुए हैं निर्मल वर्मा। अपनी किताब अंतिम अरण्य में उन्होंने एक जगह लिखा है, “इस दुनिया में कितनी दुनियाएं खाली पड़ी रहती हैं- जबकि लोग ग़लत जगह पर रहकर सारी जिंदगी गंवा देते हैं…”

अन्विता दत्त ने जब कला फिल्म के बारे में विचार किया होगा तो शायद उनके ज़हन में कहीं ना कहीं यह विचार अवश्य रहा होगा। तृप्ति डिमरी, स्वास्तिका मुखर्जी, बाबिल खान, अमित सियाल जैसे कलाकारों से सजी कला की कहानी को सबसे पहले जान लेते हैं।

Qala Review: कहानी एक संगीत घराने की है। घराने में उर्मिला मंजुश्री के जुड़वा बच्चे होते हैं। बेटी, बच जाती है, बेटा नहीं बच पाता। डॉक्टर कहती है, कि जुड़वा बच्चे होने के मामले में कई बार जो स्ट्रॉग बच्चा होता है- वो दूसरे का पोषण खींच लेता है। बस यहीं से उर्मिला मंजुश्री जिनका किरदार स्वास्तिका मुखर्जी ने निभाया है, का अपनी बेटी से लगाव खत्म हो जाता है।

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बेटी का नाम होता है कला मंजूश्री, जिनका किरदार तृप्ति डिमरी ने निभाया है। कला अपनी मां की अटेंशन- उनका प्यार चाहती है- लेकिन उसकी मां गुरुद्वारे में गाने वाले एक अनाथ लड़के- जगन बटवाल, जिसका किरदार बाबिल खान ने निभाया है- को अपने बेटे के तौर पर अपना लेती है।

उर्मिला मंजुश्री, यहां से अपनाए गवैये को प्यार-दुलार करती है- उसे आगे बढ़ाती है, और अपनी बेटी को ठुकरा देती है। बेटी, कला मंजूश्री के मन में धीरे-धीरे हीनग्रंथि पैदा हो जाती है।

वो स्वयं को साबित करने की कोशिशों में लग जाती है। कहानी आगे बढ़ती है, कला मंजुश्री स्वयं को आगे करने के लिए गवैये लड़के के दूध में कुछ मिला देती है- जिससे उस लड़के की आवाज़ खराब हो जाती है- गवैया लड़का इसके बाद आत्महत्या कर लेता है।

कला मंजुश्री- बड़ी सिंगर बन जाती है, लेकिन उस लड़के की आवाज़ ख़राब करने का अपराधबोध उसे जीने नहीं देता। इसके बाद जो होता है, वो जानने के लिए आप एक बार फिल्म देखिए।

अब बात करते हैं निर्देशन की

अन्विता दत्त ने कमाल का निर्देशन किया है। हर दृश्य अपने आप में एक चित्र बनाता है। आप जहां भी फिल्म को रोकेंगे- वहीं स्क्रीन पर आपको एक तस्वीर दिखेगी-ऐसा प्रतीत होता है मानो अन्विता दत्त ने अपने ह्दय में चित्रकार बसाकर फिल्म का निर्देशन किया हो।

कश्मीर की वादियों में बहती बर्फ, रात्रि में रुकी हुई नदी के मनमोहक दृश्य, घने कोहरे में उदास खड़े दिन, अलसाई घाम, ठिठुरती शामें और सर्द रातों को जैसे कैमरे पर जीवंत किया गया है- वो कमाल है।

किरदार के एक-एक वाक्य पर घटती-बढ़ती रोशनी, गहराता काला साया, उदास माहौल फ्रेम दर फ्रेम फिल्म इतना प्रभावित करती है कि फिल्म को रोककर वो दृश्य देखने को दिल करता है।

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अब बात करते हैं संगीत की

एक गीत को छोड़ दें तो बाकी सभी गीतों को अमित त्रिवेदी ने बनाया है। फिल्म की कहानी और कमाल के दृश्यों के बीच रोमांच से भर देना वाला संगीत आवाज़ बढ़ाने को बाध्य कर देता है। बिखरने का मुझको शौक है बड़ा, फेरो ना नजरिया, घोड़े पर सवार- कमाल के गीत हैं।

इस दौर में ऐसा संगीत भी बनाया जा सकता है। अमित त्रिवेदी ने यह करके दिखा दिया- ऐसे में एक बात तो निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि अमित त्रिवेदी को यदि प्रोड्यूसर और डायरेक्टर छूट दें तो यकीन कीजिए सिर्फ संगीत सुनने के लिए ही दर्शक फिल्में दोबारा से देखने लगेंगे। इस संगीत को लेकर मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अमित त्रिवेदी ने इस दशक का सबसे बेहतरीन संगीत दिया है।

Qala Review: अब बात करते हैं अभिनय की

तृप्ति डिमरी फिल्म में मुख्य भूमिका में हैं। तृप्ति डिमरी अच्छा अभिनय करती हैं, इससे पहले बुलबुल फिल्म में भी तृप्ति ने कमाल का काम किया है। कला मंजूश्री की भूमिका में तृप्ति को तमाम भाव अपने चेहरे के द्वारा कैमरे को दिखाने थे।

नकारे जाने का भाव, समर्पण का भाव, हीनग्रंथि की भंगिमाएं, अपराध बोध से घिरा चेहरा, पकड़े जाने का डर- सभी भाव अपने आप में एक अलग कहानी कहते हैं। तृप्ति डमरी इसमें सफल होती दिखी हैं- लेकिन कई जगह उनका चेहरा एकसमान प्रतीत होता है।

दूसरी मुख्य भूमिका उर्मिला मंजुश्री की है- जिनका किरदार बंगाली एक्ट्रेस स्वास्तिका मुखर्जी ने निभाया है। स्वास्तिका ने भी अच्छा काम किया है-लेकिन निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि जब आप कला जैसी फिल्में करते हैं तो आपकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।

सुमंत कुमार के किरदार में अमित सियाल ने कमाल का अभिनय किया है। फिल्म में उनका किरदार घिनौना है लेकिन उन्होंने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है।इसके अलावा दूसरे कलाकारों को फिल्म में कम जगह मिली है। इरफान के बेटे बाबिल खान ने भी फिल्म में ठीक-ठाक अभिनय किया है।

इसके अलावा चाहे बात भेषभूषा की हो या फिर उस वक्त के परिवेश को दिखाने की- कलकत्ते को दिखाने की हो या फिर बैकग्राउंड में हाबड़ा ब्रिज को बनते हुए दिखाने की, कला सभी विभाग में कलात्मक दिखती है और मन को भा जाती है।

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