सआदत हसन मंटो, एक ऐसा नाम जिनकी रचनाओं में कथित तौर पर जान होती थी। जिन्हें देश में साहित्य के आधारस्तम्भ के रूप में चित्रित किया गया और उन्हें ऐसे पेश किया गया, जैसे वो न होते तो देश में रचनात्मकता ही न होती। उन्हें आज भी उनकी रचनाओं के लिए एक वर्ग द्वारा सराहा जाता है लेकिन जब आप उनकी रचनाओं का गहनता से अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि उसमें अश्लीलता के सिवाय और कुछ है ही नहीं, जिस पर चर्चा की जा सके। जी हां, दुनिया को अश्लीलता परोसने वाले सआदत हसन मंटो एक ऐसे साहित्यकार थे, जिनकी साहित्य में कुछ नहीं है। लेकिन उन्हें उर्दू लॉबी ने ऐसे चित्रित किया और बताया कि आज के समय में मंटो का नाम सुनते ही लोगों की बांछे खिल जाती है। इस लेख में हम आपको सआदत हसन मंटो (Saadat Hasan Manto) की वास्तविकता से परिचित कराएंगे, जिन्हें इतना सम्मान दिया गया, जिसके वो योग्य ही नहीं थे।
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‘…जमाना ही नाकाबिले बर्दाश्त है’
भारत के साहित्य नामक कढ़ाई को लीजिए, उसमें तनिक विवाद का तेल मिलाइए। धीमी आंच पर उसे गरम होने को रखिए और फिर उसमें तनिक विक्टिम कार्ड महीन टुकड़ों में काटकर डाल दीजिए। हल्का भूरा होने तक उसे पकाइए। फिर उसमें एक बड़ा चम्मच प्रोग्रेसिव सोच और एक छोटा चम्मच धार्मिक आइडेंटिटी डाल दीजिए। ध्यान रहे, दोनों को आवश्यकता से अधिक न मिलाएं। अब इसमें अच्छे से मैरिनेट किया गए कथाओं को डालें और इसे मुकदमों की तेज़ आंच पर तब तक पकाएं, जब तक जलकर कोयला न हो जाए। स्वाद अनुसार अश्लीलता भी डाल लें। मुबारक हो, सआदत हसन मंटो का सम्पूर्ण करियर आपके लिए तैयार है।
यदि आपको लगता है कि यह अपमानजनक है तो मंटो साहब के विचार भी जान लीजिए, जिसे नंदिता दास की फिल्म “मंटो” में चित्रित भी किया गया है। उन्होंने कहा था कि “अगर आप मेरे अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब है कि ज़माना ही नाकाबिले बर्दाश्त है!” यानी अगर आप मेरी कहानियों को स्वीकार नहीं कर सकते तो इसका अर्थ है कि संसार (समाज) ही अयोग्य है।
यह विचारधारा और सोच वही है, जो हर वामपंथी का अनाधिकारिक सोशल मीडिया बायो है। अगर उनके हिसाब से कुछ न हो तो ज़माना ही खराब है। परंतु मंटो के समय में न सोशल मीडिया था और न ही जागरूक जनता। जिस काम के लिए सलीम खान और जावेद अख्तर आलोचना के घेरे में रहते थे, वे वास्तव में उस पाठशाला के मेहनती और आज्ञाकारी शिष्य हैं, जिसके हेडमास्टर सआदत हसन मंटो रहे हैं। सलीम-जावेद से बहुत समय पूर्व सिनेमा उद्योग विशेषकर बॉलीवुड पर PWA यानी प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन का एकछत्र राज रहता था, जिनके मठाधीशों में से एक सआदत हसन मंटो थे, जिनके प्रशंसकों एवं मित्रों में हुसैन परिवार (नरगिस के माता पिता) से लेकर अशोक कुमार, श्याम सुंदर चड्ढा, यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू भी सम्मिलित थे क्योंकि मंटो मूल रूप से कश्मीरी थे।
सआदत हसन मंटो का ‘अश्लील साहित्य’
परंतु सआदत हसन मंटो तो झंकझोर देने वाली कथाएं लिखते थे न? लिखते होंगे, परंतु दिखाई भी तो देने चाहिए। फिल्म उद्योग में अनेक रचनाकार थे और तब रामानंद सागर जैसे रचयिता अपनी प्रतिभा को निखारने में जुटे हुए थे। परंतु उर्दू लॉबी की ओर से सआदत हसन मंटो (Saadat Hasan Manto) को तब भी और आज भी ऐसे सम्मानित किया जाता है, मानो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की यह जीती जागती प्रतिमूर्ति थे। लेकिन किसी भी बुद्धिजीवी ने आज तक मंटो के जीवन या उनकी कथाओं का सार विस्तार से समझाने का प्रयास नहीं किया।
ऐसा क्यों है कि मंटो की कथाओं में अश्लीलता के अतिरिक्त कुछ और दिखता ही नहीं? न ही किसी ने यह समझाने का प्रयास किया कि यदि मंटो वास्तव में इतने प्रगतिशील थे तो फिर मौका पाते ही पाकिस्तान क्यों भाग गए? देखिए, अंतरंग संबंधों का चित्रण भी अपने आप में एक कला है परंतु जो मंटो करते थे, उसे आज के परिप्रेक्ष्य में “मस्तराम की सस्ती कॉपी” या “सॉफ्ट पॉर्न” कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी और यदि विश्वास न हो तो उनके द्वारा रचित “खोल दो”, “बू”, “ठंडा गोश्त” जैसी कथाएं पढ़ लीजिए।
कुछ लोग कहेंगे कि सआदत हसन मंटो ने “टोबा टेक सिंह” जैसी कथाएँ भी तो लिखी थी। ठीक है, परंतु लेखक की असल पहचान उसकी विविधता में होती है और विविधता एवं मंटो में छत्तीस का आंकड़ा था। एक कथा अच्छी लिखने से अगर कोई लेखनी का बादशाह बन जाता है तो उस लॉजिक से सब कुछ गुड़ गोबर हो जाएगा। वास्तविकता तो यह है कि मंटो की निष्पक्ष एवं सटीक आलोचना आज तक नहीं की गई है, अन्यथा सबको पता चल जाता कि सआदत हसन मंटो न तो एक साहित्यकार थे, न ही लेखक, बस अश्लीलता एवं नौटंकी में विशेषज्ञ एक व्यापारी थे, जिनका नाम जपने में आज भी वामपंथी और उर्दू प्रेमी पीछे नहीं हटते।
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