“चीन की जासूसी की, पिस्तौल लेकर चलते थे, 15 वर्ष हिमालय में घूमते रहे”, स्वामी प्रणवानंद की कहानी

राष्ट्रहित के लिए सदैव काम करने वाले साधु की अद्भुत कथा!

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SOURCE TFI

भारत एक ऐसा देश है, जहां साधु/स्वामी-संतों का बहुत महत्व रहा है। वैसे तो साधु(सन्यासी) का मूल उद्देश्य समाज का पथ प्रदर्शन करके उनको धर्म के मार्ग पर चलाना होता है लेकिन भारत में एक ऐसे भी साधु हुए जिन्होंने आजादी से पहले देश की रक्षा के लिए सुदूर हिमालय पर जाकर जासूसी करने का भी कार्य किया था। जी हां, हम बात कर रहे हैं ‘स्वामी प्रणवानंद’ की। ये एक ऐसे साधु हुए जिन्होंने लोगों का भला तो किया ही साथ ही देश का भी भला किया। एक ऐसे साधु जो एक वैज्ञानिक, एक लेखक, एक वन्यजीव संरक्षक होने के साथ-साथ एक गुप्तचर भी थे? एक ऐसे स्वामी जो अपने पास रिवॉल्वर भी रखा करते थे? आइए उनके बारे में इस लेख के माध्यम से विस्तार से जानते हैं।

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आजादी की लड़ाई भी लड़ी

स्वामी प्रणवानंद का जन्म 1896 में आंध्र प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के एक छोटे से गांव में हुआ था। स्वामी प्रणवानंद के बचपन का नाम कनकदंडी वेंकट सोमयाजुलु था। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद लाहौर में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज से पढ़ाई की थी। जिसे अब सरकारी इस्लामिया कॉलेज के नाम से जाना जाता है। कॉलेज में पढ़ाई पूरी करने के बाद कनकदंडी लाहौर में ही रेलवे अकाउंटेंट दफ्तर में नौकरी करने लगे थे।

इसके बाद साल 1920 में वह गांधी के असहयोग आंदोलन में सम्मिलित हो गए थे। 6 वर्षों तक इन्होंने आजादी की लड़ाई भी लड़ी। स्वयं के जिले में इन्होंने कांग्रेस पार्टी के एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में भी कार्य किया था और इसी दौरान प्रणवानंद को जीवन की आध्यात्मिक चेतना में रुचि होने लगी जिसके कारण ही स्वामी ज्ञानानंद से उन्होंने हिमालय के बारे में जानकारी प्राप्त की थी। स्वामी ज्ञानानंद को उस समय भारत के प्रमुख परमाणु भौतिकशास्त्रियों में से एक माना जाने लगा था।  सांसारिक मोहमाया को त्यागने वाले उनके गुरु ज्ञानानंद ने हिमालय पर कई साल बिताए।

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गुरु के पदचिह्नों पर चले स्वामी प्रणवानंद

अपने गुरु के पदचिह्नों पर चलकर स्वामी प्रणवानंद ने पैदल ही अपनी यात्रा आरम्भ कर दी थी। कश्मीर के रास्ते वह कैलास मानसरोवर के लिए निकले थे, कुछ दूरी उन्होंने घोड़े पर सवार होकर भी तय की थी। प्रणवानंद ने अपनी पहली हिमालय यात्रा 1928 में की थी. साल 1935 से लगातार हर साल 1950 तक प्रणवानंद कैलास की यात्रा करते रहे थे. अपनी यात्राओं के समय उन्होंने खनिज, भूविज्ञान, जलवायु, पक्षियों, झरनों, नदियों जैसे जलस्रोतों आदि के बारे में व्यापक जानकारी जुटाई थी.

स्वामी प्रणवानंद ने ही सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सतलुज और करनाल नदियों के अलग-अलग उद्गम स्थल के विषय में जानकारी दी थी। इससे पहले लोगों का मानना था कि ये सभी कैलाश पर्वत के पास मानसरोवर झील से उत्पन्न हैं। उनके सभी निष्कर्षों को साल 1941 के बाद से सर्वे ऑफ इंडिया ने अपने सभी मानचित्रों में भी सम्मिलित कर लिया था।

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‘ब्रह्मचारी प्रणवानंद’

The paperclip के द्वारा उनकी तस्वीरों, नक्शों और आईकार्ड की तस्वीरों को ट्विटर पर भी साझा किया था। स्वामी प्रणवानंद के द्वारा कैलास क्षेत्र पर 3 किताबें भी लिखीं थी। साल 1932 में हमारी कैलास यात्रा, पवित्र कैलास और मानसरोवर की चार प्रमुख नदियों के स्रोत के साथ-साथ दो किताबें 1939 में आई थी. स्वामी को रॉयल जियोग्राफिकल सोसाइटी का फेलो भी बनाया गया था. ऋषिकेश में उनको एक नया नाम ‘ब्रह्मचारी प्रणवानंद’ दिया गया था.

असहयोग आंदोलन के समय प्रणवानंद की सफल सक्रियता और ऊपरी हिमालयी क्षेत्रों में उनके मौलिक शोध के कारण भारत सरकार ने उन्हें मान्यता प्रदान की थी. उनके लाजवाब कार्यों के चलते  भारत की आजादी के बाद उनको स्वतंत्रता सेनानी पेंशन भी प्राप्त होने लगी थी. स्वामी प्रणवानंद ने 1950 और 1954 के दौरान भी अपनी कैलाश मानसरोवर क्षेत्र का दौरा जारी रखा था। इस समय ये क्षेत्र माओ के नेतृत्व वाले कम्युनिस्ट चीन की सेना PLA के कब्जे में था. उनको लेकर ऐसा भी माना जाता है कि उन्होंने एक गुप्त एजेंट के रूप में भी भारत के लिए कार्य किया था. उन्होंने चीनी फौज के होते हुए भी भारत सरकार को सतर्क किया था और सामरिक जानकारी भी उपलब्ध कराई थी.

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रक्षा कोष में दान कर दी रिवॉल्वर

कैलाश पर्वत के आसपास का क्षेत्र अधिक खतरनाक था. वहां के लुटेरों को डराने के लिए स्वामी प्रणवानंद हमेशा ही अपने पास 0.25 बोर की रिवॉल्वर रखते थे. इसके बाद उन्होंने 0.30 माउजर पिस्तौल रखना भी आरम्भ कर दिया था. हालांकि साल1962 में उन्होंने चीन के साथ के युद्ध के समय इसे रक्षा कोष में दान में दे दिया था.

ऐसा भी कहा जाता है कि चीनी ख़ुफ़िया एजेंटों को उनके विषय में पता चल गया था. जिसके बाद स्वामी साल 1955 में उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिला लोट आए थे। जानकारी के अनुसार,  उन्होंने भारत-तिब्बत सीमा पर पाकिस्तान और ईसाई मिशन एजेंटों की भी खुफिया गतिविधियों के विषय में 4000 पेज की सूचना एकत्र की थी.

लोगों की माने तो उस दौर में बड़े ही अवैध तरीके से वनों को काटा जा रहा था. जिस कारण पशु-पक्षियों को भी अधिक परेशानी हो रही थी. दांत, हड्डी, खाल के लिए बाघों को जहर तक दिया जा रहा था. उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से बेजुबान जानवरों के संरक्षण पर बहुत जोर दिया था. उनका ख़ास योगदान इस तरह से रहा कि उन्होंने भारत-तिब्बत और भारत-नेपाल सीमा पर पर्यटन और अनुसंधान के नाम पर विदेशियों की नापाक साजिश के बारे में सरकार को अगाह भी किया था. एक गुप्तचर की तरह ही वो साल 1955 तक खुफिया जानकारियां भारत सरकार तक पहुंचाते रहे थे।   साल 1980 में वह अपनी जन्मभूमि आंध्र प्रदेश लोट गए।

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पद्मश्री से हुए सम्मानित

स्वामी प्रणवानंद को साल 1976 में भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया था। साल 1989 में हैदराबाद में 93 वर्ष की आयु में स्वामी प्रणवानंद का निधन हो गया था। भारत के लोगों के साथ-साथ उन्होंने यहां के जीवों की भी रक्षा की थी लेकिन  दुर्भाग्य की बात तो ये है कि आज की पीढ़ी को उनके योगदानों के विषय में कोई विशेष जानकारी ही नहीं हैं।

स्वामी प्रणवानंद हिमालय में घूमने वाले कोई सामान्य साधु नहीं थे, वो वास्तव में एक वैज्ञानिक, लेखक, वन्यजीव संरक्षक आदि थी। जब-जब देश के जासूसों की कहानियों का जिक्र आएगा तब-तब उनका नाम गर्व के साथ लिया जाएगा।

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