“भीष्म ने एक लंबा जीवन जिया, जबकि उनके भाईयों की शीघ्र मौत हो गई”, इसके पीछे की कहानी बहुत रोचक है

भीष्म का अविवाहित रहना, उनका आजीवन अपराजित रहना और जीवनभर का कष्ट, इन सबके पीछे का कारण क्या था? इस लेख में विस्तार से जानिए।

The Story behind Bhishma’s extremely long life and his brothers’ immediate death is very interesting

SOURCE TFI

भीष्म, महाभारत का एक ऐसा पात्र, जिसे आप चाहे सम्मान की दृष्टि से देखें या घृणा की, परंतु आप अनदेखा नहीं कर सकते हैं। हस्तिनापुर के संरक्षक, गंगापुत्र देवव्रत की “भीष्म प्रतिज्ञा” से अधिकतर लोग परिचित होंगे, परंतु कम लोगों को इन कुछ प्रश्नों के उत्तर ज्ञात होंगे- जैसे कि भीष्म के इतने लंबे जीवन के पीछे का रहस्य क्या था जबकि उनके अनुज असामयिक मृत्यु को प्राप्त हुए? क्यों उनका अंत इतना कष्ट से भरा रहा और क्यों वो कभी किसी से पराजित नहीं हुए। इस लेख में हम आपको गंगापुत्र भीष्म और उनकी लंबी आयु के पीछे की अंतर्कथा से विस्तार से अवगत कराएंगे।

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राजा शांतनु और मां गंगा का विवाह

द्वापर युग की बात है जब राजा शांतनु और मां गंगा का विवाह हुआ. विवाह के साथ ही गंगा ने शांतनु के सामने ये शर्त रखी कि उन्हें अपने अनुसार काम करने की पूरी आजादी होनी चाहिए, जिस दिन शांतनु उन्हें किसी बात के लिए रोकेंगे, वो उन्हें छोड़कर चली जाएंगी। शांतनु ने शर्त मान ली। इसके बाद जब भी गंगा किसी संतान को जन्म देती, उसे तुरंत नदी में बहा देती। एक-एक कर उन्होंने अपने 7 पुत्रों को जल समाधि दे दी। परंतु जब वह आठवें पुत्र को लेकर नदी की ओर बढ़ीं तो शांतनु के सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने प्रश्न किया कि देवी गंगा ऐसा क्यों कर रही हैं।

अपने उत्तर में देवी गंगा ने कहा कि राजन, आपने अपना वचन तोड़ा है इसलिए अब मुझे जाना होगा। परंतु इस पुत्र को कुछ नहीं होगा और आपको सही समय पर मूल कारण भी पता चलेगा।

कई वर्ष बाद राजा शांतनु को पता चला कि नदी के प्रवाह में अवरोध आया है। वो कारण जानने चले, तो देखा, एक युवा धनुर्धर तीरों से नदी के प्रवाह को रोक रखा है। वो इस युवक से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उसका नाम पूछा, जब उन्हें पता चला कि वह गंगापुत्र देवव्रत है तो वह अभिभूत हो गए और इसी बीच माता गंगा प्रकट हुईं और देवव्रत को उन्हें सौंपते हुए इस प्रकरण के पीछे की पूरी अंतर्कथा भी बताई।

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पूरी कथा जानिए

कथा इस प्रकार है- वर्षों पहले, आठ वसु अपने-अपने रमणियों सहित पृथ्वी पर विचरण करने आए थे। उन्होंने खूब आनंद किया और जब एक स्थान पर एक सुंदर सी गाय दिखी, तो वसु प्रमुख द्यौ की रमणी ने उनसे उस गाय को प्राप्त करने की अपनी इच्छा बताई। अब द्यौ अपनी रमणी की बात कैसे नहीं मानते, वो उस गाय को उठा ले आए, बिना सोचे समझे कि उनका स्वामी कौन है।

जिस पर्वत से उन्होंने उस गाय को चुराया, वहां असल में महर्षि वशिष्ठ का आश्रम था। अपने स्थान पर अपनी गाय को न देखकर महर्षि वशिष्ठ व्यथित हुए और उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से इसका पता लगा लिया।

वसुओं के इस कार्य को देखकर महर्षि वशिष्ठ अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने वसुओं को शाप दे दिया कि उन्होंने वसु गुण छोड़कर मनुष्यों की भांति कृत्य किया है, ऐसे में उन्हें मनुष्य रूप में मृत्युर्लोक जन्म लेना पड़ेगा।  इसके बाद सभी वसु वशिष्ठ जी से क्षमा याचना करने लगे, जिस पर महर्षि ने बाकी वसुओं को तो क्षमा कर दिया कि उन्हें जल्दी ही मनुष्य जन्म से मुक्ति मिल जाएगी लेकिन द्यौ नाम के वसु को लम्बे समय संसार में रहना होगा और दुःख भोगने पड़ेंगे। और चूंकि द्यौ ने ये सब एक स्त्री के पीछे किया इसलिए मनुष्य योनी में उन्हें स्त्री सुख भी नहीं मिलेगा। द्यौ इस शॉप से अत्यंत व्यथित हुए और क्षमा याचना करते हुए महर्षि के पैरों में गिर गए। महर्षि ने कहा कि वो अपने शॉप को लौटा नहीं सकते हैं परंतु उन्हें ये वर दे सकते हैं कि द्यौ का मानव रूप अद्वितीय होगा और उनसे स्वयं देवता भी नहीं विजयी हो पाएंगे। यही द्यौ मृत्युर्लोक में भीष्म के नाम से जाने गए।

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भीष्म का जीवन

अब थोड़ा ध्यान दीजिए कि भीष्म के जीवन में परिस्थितियां ऐसी उत्पन्न हुईं कि उन्होंने आजीवन विवाह न करने की प्रतिज्ञा कर ली। वहीं भीष्म पितामह आर्यवर्त, विशेषकर कुरुवंश के सबसे शक्तिशाली और प्रतापी योद्धाओं में से एक थे। महाभारत के अनुसार हर तरह के शस्त्र विद्या के ज्ञानी और ब्रह्मचारी देवव्रत यानी गंगापुत्र “भीष्म” को किसी भी तरह के युद्ध में हरा पाना असंभव था। भगवान परशुराम से हुए द्वंद्व में भी भीष्म नहीं हारे और दो अति शक्तिशाली योद्धाओं के लड़ने से होने वाली क्षति को आंकते हुए इसे भगवान शिव द्वारा रोक दिया गया।

स्वयं समर्थ होते हुए भी श्रीकृष्ण को गंगापुत्र “भीष्म” की असीम शक्तियों का आभास था और इसीलिए उन्हें पराजित करने के लिए शिखंडी का सहारा लेना पड़ा। इसीलिए शिखंडी को सामने कर अर्जुन ने बाणों से उनके शरीर को बींध दिया और उन्हें शैय्या पर लिटा दिया। उसी बाणों की शय्या पर पड़े-पड़े उन्होंने अनेक उपदेश दिए, अंत में माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को इस संसार से विदा लिया और उन्हें स्वर्गलोक से भी ऊपर मातृलोक में स्थान मिला।

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