योगेंद्र शुक्ला और बैकुंठ शुक्ला: बिहार के वो महान लाल जिन्होंने अंग्रेजों की चूलें हिला दी थी

आज बिहार भी अपने महान बेटों को भूल गया है!

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Source: TFI MEDIA

“हंस-हंस पड़ब फांसी,

माँ देखबे भारतबासी,

बिदाई दे माँ फिर आसी”

अर्थात हँसते हँसते पड़ेंगे फांसी, माँ देखेंगे ये भारतवासी, अब बिदाई दे माँ, फिर आएंगे

ये शब्द थे उस क्रांतिकारी के जिसने मृत्यु के पूर्व अपने स्वभाव से कई जेलवासियों को प्रभावित किया था। ये उस परिवार से आते थे, जहां क्रांति जीवन का पर्याय था। प्रारंभ में ये क्रांति के मार्ग पर चलने को उद्यत नहीं थे। परंतु परिस्थितियां कुछ ऐसे आईं कि ये भी उसी मार्ग पर चल पड़े, और बाद में इन्होंने अपने प्राण भारत माता की स्वतंत्रता हेतु अर्पण कर दिए। परंतु विडंबना देखिए, भारत के लोगों ने इस वीर को पूरी तरह से विस्मृत कर दिया है।

इस लेख में आप योगेंद्र शुक्ला और बैकुंठ शुक्ला के बारे में जानेंगे, जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया।

HRA का गठन

1923, असहयोग आंदोलन को भंग हुए एक वर्ष हो चुका था और इसी बीच कई युवा इस पसोपेश में थे कि आगे क्या करें? गांधी का मार्ग इन्हें अनुचित लगता था और ये किसी भी स्थिति में भारत को परतंत्र नहीं देख सकते थे। इसी बीच कांग्रेस का एक युवा नेता लाला हरदयाल के संपर्क में आया और उन्होंने रूसी क्रांति, फ्रेंच क्रांति एवं अमेरिकी क्रांति से प्रभावित होकर प्रयागराज में एक संगठन बनाया: हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन।

ये युवा नेता कोई और नहीं, शाहजहांपुर से आए राष्ट्रवादी राम प्रसाद बिस्मिल थे, जिन्होंने अशफाकुल्लाह खान, जोगेश चंद्र चटर्जी, शचीन्द्र नाथ बख्शी, सचिन्द्र नाथ सान्याल एवं योगेंद्र शुक्ला के साथ मिलकर HRA यानि हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन की स्थापना की थी।

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योगेंद्र शुक्ल बिहार प्रकोष्ठ संभाल रहे थे और उन्होंने काकोरी विद्रोह में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनसे अंग्रेज़ सरकार इतनी भयभीत थी कि 1932 में उन्हे कालापानी यानी अंडमान की सेल्युलर जेल में स्थानांतरित कर दिया गया।

परंतु योगेंद्र शुक्ला भी ठहरे अपने तरह के अतरंगी। उन्हे 1937 में पुनः बिहार लाया गया, क्योंकि अंडमान जैसे नारकीय स्थान में भी उन्होंने अपने तौर तरीकों से अंग्रेज़ों की नाक में दम कर दिया था।

इतना ही नहीं, जब 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ हुआ, तब योगेंद्र शुक्ला ने समानांतर शासन चलाने के परिप्रेक्ष्य में हज़ारीबाग के सेंट्रल जेल से अपने साथ कई कैदियों को भगाने में सफलता प्राप्त की, जिसमें से एक जयप्रकाश नारायण भी थे, जो उस समय आज़ाद दस्ता के प्रणेता थे।

चूंकि जेपी बीमार थे, इसलिए हृष्ट पुष्ट योगेंद्र शुक्ला ने उन्हें अपने कंधों पर उठाकर 124 किलोमीटर की पदयात्रा की।

बैकुंठ शुक्ला का उभार

परंतु ऐसे धाकड़ क्रांतिकारी के भतीजे सत्याग्रही क्यों बने? इसके बारे में कम ही लोग जानते हैं, परंतु इतना तो स्पष्ट था कि बैकुंठ शुक्ला कोई छोटे-मोटे क्रांतिकारी नहीं थे। बैकुंठ शुक्ला का जन्म 15 मई 1907 को जलालपुर गांव में हुआ था जो वर्तमान बिहार के मुज़फ्फ़रपुर जिले में स्थित है।

रोचक बात यह है कि जिस दिन ये जन्मे, उसी दिन अविभाजित पंजाब के लुधियाना नगर में सुखदेव थापर का भी जन्म हुआ, जो भारत के सबसे प्रभावशाली क्रांतिकारियों में से एक थे।

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अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव में पूर्ण कर उन्होंने गाँव मथुरापुर में एक निम्न प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक का कार्यभार संभाला। उन्होंने 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में बढ़चढ़कर भाग लिया, जिसके लिए उन्हे पटना कैम्प जेल में सजा भुगतनी पड़ी।

परंतु बैकुंठ ठहरे योगेंद्र शुक्ला के भतीजे, इतनी सरलता से न मानने वाले थे। उनकी पत्नी राधिका देवी भी बराबर की धाकड़ थी। 1931 में गांधी इरविन समझौते के अंतर्गत जब बैकुंठ रिहा हुए, तो उन्होंने 1931 में मुजफ्फरपुर के ऐतिहासिक तिलक मैदान में पत्नी राधिका देवी के साथ झंडा फहराया। राधिका देवी तो बच निकलीं पर बैकुण्ठ पकड़ लिए गए। बाद में 1932 में पत्नी भी पकड़ ली गईं।

इस समय देश विद्रोह की ज्वाला में धधक रहा था, क्योंकि धूर्तता से ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने लाहौर सेंट्रल जेल में भगत सिंह, सुखदेव थापर एवं शिवराम हरी राजगुरु को फांसी पर लटका दिया। इसमें चार लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो दुर्भाग्यवश HSRA के सदस्य भी थे: जयगोपाल, फणीन्द्रनाथ घोष, हंसराज वोहरा एवं मनमोहन बनर्जी।

फणीन्द नाथ घोष का वध

फणीन्द्र नाथ घोष यूं तो बंगाली थे, परंतु उस समय बिहार में निवास करते थे और अन्य सरकारी गवाहों की भांति उन्हे भी खूब सम्मानित किया गया। ये सम्मान देश एवं HSRA की आँखों में शूल की भांति चुभ रहा था।

1932 के उत्तरार्ध में देश के अन्य क्रांतिकारियों ने यह संदेश भेजकर पूछा कि इस कलंक को धोओगे या ढोओगे? यह कथन बड़ा गूढ़ अर्थ वाला था। इसे लेकर सशस्त्र क्रांतिकारी पार्टी सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की बैठक हुई।

इसमें सभी एकमत होकर फणीन्द्र नाथ घोष का वध करने के लिए एकमत हुए, और बैकुंठ शुक्ला एवं चंद्रमा सिंह को ये कार्यभार सौंप गया । शीघ्र ही दोनों को पता चला कि वह बेतिया में ही रहता है।

फिर क्या था, नवंबर 1932 में दोनों साइकिल से फणीन्द्र नाथ घोष के ठिकाने पर पहुंचे, जहां वह अपने मित्र गणेश प्रसाद गुप्त से बात कर रहा था। बैकुंठ ने अपनी बंदूक की अधिकांश गोलियां फणीन्द्र नाथ पर उतार दी और जब गणेश ने बैकुंठ को पकड़ने का प्रयास किया तो उस पर भी प्रहार किये।

फणीन्द्र नाथ घोष का अन्त उसी दिन 17 नवंबर को हुआ, जबकि गणेश प्रसाद अपने घावों के कारण 20 नवंबर को मारा गया।

जयगोपाल का क्या हुआ, ये आज भी रहस्य है, परंतु फणीन्द्र की मौत से ब्रिटिश सरकार की नींव हिल गयी थी। जोर-शोर से हत्यारों की तलाश शुरू हुई। अंग्रेज सरकार ने बैकुंठ शुक्ल की गिरफ्तारी पर इनाम की घोषणा कर दी, और जल्द ही 5 जनवरी 1933 को कानपुर से चंद्रमा सिंह हिरासत में लिए गए।

बैकुंठ शुक्ला को फांसी

बैकुंठ किसी भांति पुलिस के चंगुल से बचते रहे, परंतु 6 जुलाई 1933 को सोनपुर के गंडक पुल पर अंग्रेजों की फौज ने जबरदस्त घेराबंदी करते हुए बैकुंठ शुक्ल को पकड़ लिया। गिरफ्तारी के समय उन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘जोगेन्द्र शुक्ल की जय’ के नारे लगाये।

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मुजफ्फरपुर में दोनों पर फणीन्द्र नाथ घोष की हत्या का मुकदमा चलाया गया। बैकुंठ ने चंद्रमा सिंह को बचाते हुए हत्या की सारी जिम्मेवारी अपने ऊपर ले ली। अंत में 23 फरवरी 1934 को सत्र न्यायाधीश ने फैसला सुनाते हुए बैकुंठ शुक्ल को फांसी की सजा दे दी, जबकि चंद्रमा सिंह को निर्दोष पाते हुए छोड़ दिया गया।

बैकुंठ शुक्ल ने सत्र न्यायाधीश के फैसले के खिलाफ पटना के उच्च न्यायालय में अपील की, लेकिन 18 अप्रैल 1934 को हाईकोर्ट ने सत्र न्यायाधीश के फैसले की पुष्टि कर दी। 13 मई को रात भर वे देश भक्ति के गीत गाते रहे थे। अन्य कैदियों ने भी रात में खाना नहीं खाया। 14 मई 1934 को गया जेल में बैकुंठ शुक्ल को फांसी दे दी गयी।

योगेंद्र शुक्ला ने सक्रिय राजनीति में जुडने का प्रयास किया, परंतु उन्हे कोई खास सफलता नहीं मिली, और 1960 में एक नेत्रहीन योगेंद्र शुक्ला ने इस संसार से विदा लिया।

दोनों ने भारत की सेवा में अपना सर्वस्व अर्पण किया, और दोनों वास्तव में बिहार का गौरव थे, परंतु पहले कांग्रेस की कुंठित नीति, और फिर जातिवाद के विष में इन दोनों को कब लोग भूल बैठे, पता ही नहीं चला।

 

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