क्लर्क फिल्म: कल्पना कीजिए कि आपके पिता बीमार हैं। उन्हे हृदय रोग हुआ है, परंतु आपके पास अपने पिता के इलाज के लिए फीस नहीं है। तो आप क्या करेंगे? एक मित्र ने बड़ा ही अनोखा सुझाव दिया था, जो उसने अपने पिताजी पर सफलतापूर्वक लागू किया था।
जब एक बार इस मित्र के पिताजी को हृदयाघात हुआ, तो उसने कुछ नहीं किया, बस एक टेप रिकॉर्डर के लिए सेल ले लिया, और उसे लगाकर अपने पिताजी को “कदम कदम बढ़ाए जा” सुनाया।
विश्वास मानिए, वह व्यक्ति ठीक ही नहीं हुआ, अपितु उसी गीत के साथ कदमताल बढ़ाने लगा। इस मित्र का नाम है भारत, और यह अपने करियर को बार बार दोहराता है, “मैं एक मामूली क्लर्क हूँ!”
कभी “वो कौन थी”, “शहीद”, “उपकार”, “बेईमान”, “शोर”, “पूरब और पश्चिम”, “क्रांति” जैसे फिल्म देने वाले मनोज कुमार क्लासिक्स रचने के लिए जाने जाते थे। परंतु इस क्लासिक की आशा उन्होंने अपने सात जन्मों में भी नहीं की होंगी। ये फिल्म इतनी बुरी है, कि एक बार को हीरोपंती 2 और कलंक इसके समक्ष मास्टरपीस लगने लग जाए।
1989 में प्रदर्शित इस फिल्म को लिखा, निर्मित और निर्देशित किया मनोज कुमार ने, और लीड रोल में भी मनोज कुमार ही थे।
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इस फिल्म के नाम के अनुरूप मनोज कुमार एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क हैं, और इस बात को फिल्म में लगभग पचास बार दोहराते हैं, कि “मैं एक मामूली क्लर्क है”।
भारत एक बहुत ही गरीब परिवार से आता है। उसके बड़े भ्राता राम किसी ज़माने में एयरफोर्स में पायलट थे, परंतु एक दुर्घटना में वे दिव्यांग हो गए। उनके पिता सत्यपती कभी आज़ाद हिन्द फौज को अपनी सेवाएँ दिया करते थे।
कहने को यह परिवार बेहद गरीब और विवश है, परंतु हर रात भारत और राम के पास पीने के लिए महंगी मदिरा एवं दमदार सिगरेट जाने कहाँ से प्रकट हो जाता है। सही कहा है किसी ने, शौक बड़ी चीज़ है।
क्लर्क फिल्म में भारत जिस दफ्तर में काम करता है, वहाँ पर उसके लिए सबसे बड़ा विलेन उसका बॉस है, जो शायद मोदी जी से बहुत पूर्व उनके आदर्शों पर काम करता है। “न खाऊँगा न खाने दूंगा” उनके जीवन का मूल मंत्र है।
अब इन्ही घटनाओं से तंग आकर भारत बेईमानी के पथ पर चल पड़ता है। इस मार्ग पर उसे किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और कैसे वह इन मुसीबतों से बाहर निकलता है, क्लर्क इसी के बारे में है।
क्लर्क फिल्म को देखने के बाद सबसे प्रथम प्रश्न यही उठता है : क्या मजबूरी थी मनोज कुमार जी की? इसके न संवाद समान, न दृश्यों में कोई तर्क, यूं समझ लीजिए कि एक ट्रक सड़क पर अनवरत चले जा रही, जिसमें ड्राइवर नशे में धुत है, गियर का कुछ अता पता नहीं, और ब्रेक तो शायद 1920 से नहीं चल रहे।
परंतु बात यहीं पे खत्म नहीं होती। इस फिल्म में केवल मनोज कुमार नहीं थे, उनके साथ इस फिल्म में शशि कपूर से लेकर रेखा, अनीता राज, अशोक कुमार, राजेन्द्र कुमार, यहाँ तक कि सतीश शाह तक उपलब्ध थे। मतलब उद्देश्य स्पष्ट था : हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे। इसके कई दृश्य एवं संवाद आपके मुख से केवल एक संवाद निकलवाने को विवश कर देंगे, “अरे कहना क्या चाहते हो?”
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मनोज कुमार भी कहीं न कहीं अपनी विविधता दिखाना चाहते थे, परंतु ऐसी विविधता तो शायद वे भी नहीं चाहे होंगे। इस फिल्म को देखकर किसे विश्वास होगा कि यह वही मनोज कुमार हैं, जिन्होंने 8 वर्ष पूर्व भारत की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर [उस समय के अनुसार] “क्रांति” दी थी, जिसने हम आपके हैं कौन के आने से पूर्व ताबड़तोड़ कमाई की, और “गोल्डन जुबली” भी सिद्ध हुई थी।
परंतु क्लर्क में ऐसा कुछ भी नहीं था। गुंडा तो यूं ही बदनाम है, क्लर्क के समीकरण तो कुछ ऐसे बैठे कि ये फिल्म भी उन अचूक क्लासिक्स की सूची में सम्मिलित हो गई, जो इतनी बेकार थी कि उसमें कुछ न कुछ अच्छा तो सिनेमा प्रेमी निकाल ही लेंगे।
क्लर्क फिल्म से किसी का लाभ हुआ हो या नहीं, परंतु नुकसान तो कइयों का हुआ। शशि कपूर और राजेन्द्र कुमार ने धीरे धीरे अभिनय से दूरी बना ली, और स्वयं मनोज कुमार ने इस फिल्म के पश्चात कभी अपने निर्देशन में अभिनय नहीं किया।
1999 में प्रदर्शित “जय हिन्द” के बाद उन्होंने फिल्म उद्योग में दोबारा कभी कदम नहीं रखा। जैसे गुरु दत्त के लिए “कागज़ का फूल” उनके विनाश का कारण बनी, वैसे ही क्लर्क ने मनोज कुमार के दुर्गति की नींव रखी। अंतर बस इतना है कि “कागज़ के फूल” अलग कारण से क्लासिक थी, और “क्लर्क” अलग कारणों से।
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