जिन्हें बॉलीवुड को छोड़कर सभी जगह मिला सम्मान: सयाजी शिंदे की अनकही कथा

सयाजी शिंदे को भारतीय सिनेमा के लगभग हर उद्योग ने प्रेम दिया, परंतु बॉलीवुड में इन्हें योग्यता के अनुसार उचित सम्मान नहीं मिल पाया।

Sayaji Shinde, Honored everywhere except Bollywood story of Sayaji Shinde

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“अशर्फियां लुटे, कोयलों पर मोहर” नामक मुहावरा बॉलीवुड पर पता नहीं क्यों अधिक सूट करता है। ये वो रेयर समुदाय है, जिसे अपने रत्नों की तनिक भी चिंता नहीं पर उनके पीछे अधिक आकर्षित होंगे, जो या तो इन्हें भाव नहीं देते, या फिर इनकी छवि को ही कलंकित करते हैं। कुछ ऐसे भी कलाकार हैं, जिन्हें बॉलीवुड ने तो कोई सम्मान नहीं दिया परंतु उनका अभिनय ऐसा था कि वे भारत के कोने कोने में अपनी कला के लिए जाने गए और सयाजी शिंदे (Sayaji Shinde) उन्हीं में से एक हैं।

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Sayaji Shinde ने वॉचमैन का किया काम

1959 में सतारा जिले के साखरवाड़ी में सयाजी शिंदे एक निर्धन किसान के परिवार में जन्मे थे। परंतु उन्होंने गरीबी को एक अभिशाप के रूप में न लेकर एक अवसर की भांति लिया और वे अपनी राह बनाने हेतु मात्र 18 वर्ष की आयु में अपने घर से निकल पड़े। मराठी भाषा में अपना स्नातक पूर्ण करने के बाद इन्होंने कुछ समय राज्य सरकार के सिंचाई विभाग परिसर में बतौर नाइट वॉचमैन काम किया, जिसके लिए उन्हें उस समय 165 रुपये मात्र वेतन मिलता था।

परंतु सयाजी शिंदे सदैव अवसर के लिए लालायित दिखते थे और ये उन्हें मराठी भाषा में एकल मंचन करके मिला। 1987 में आया मराठी नाटक जुलवा इनके जीवन का टर्निंग पॉइंट सिद्ध हुआ। इसी से धीरे धीरे सयाजी को पहचान मिलने लगी और वे शीघ्र ही मराठी सिनेमा में भी आगे बढ़ने लगे। 1994 में वज़ीर में एक छोटे से रोल में उन्होंने डेब्यू किया और शीघ्र ही अपनी कला से वे सभी को प्रभावित करने लगे।

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शूल में निभाई बच्चू यादव की भूमिका

इसी बीच 1998 आते आते सयाजी शिंदे मराठी सिनेमा में एक जाना माना नाम बन चुके थे। इस बीच वह दो हिन्दी फिल्मों में भी काम कर चुके थे, परंतु उनकी भूमिका बड़ी सीमित थी। उनके बारे में छपे हुए एक लेख से प्रभावित होकर एक अभिनेता ने उनका नाम राम गोपाल वर्मा को सुझाया, जो उस समय “सत्या” को प्रदर्शित करने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहे थे। सयाजी का काम राम गोपाल वर्मा को काफी भाया और उन्होंने बिहार के जंगल राज पर आधारित “शूल” में उन्हें बच्चू यादव की नकारात्मक भूमिका दी और इसके बाद तो इन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज भी कई लोग सयाजी शिंदे को जब देखते हैं, तो उनके मन में शूल का वही बच्चू यादव स्मरण होता है।

“शूल” की लोकप्रियता को कुछ महीने भी नहीं बीते थे कि 2000 में ही सयाजी शिंदे को तमिल फिल्म “भारती” में काम करने का अवसर मिला। मूल रूप से जो भूमिका सयाजी शिंदे ने की, वो पहले कमल हासन को मिलने वाली थी। परंतु बजट संबंधी समस्याओं के चलते सयाजी को यह भूमिका निभानी पड़ी। अब ये फिल्म थी विख्यात तमिल लेखक, कवि एवं विचारक सुब्रह्मण्य भारती पर और सयाजी शिंदे (Sayaji Shinde) को उस समय तमिल का त भी नहीं आता है, परंतु उन्होंने इस भूमिका को इतनी सटीकता से पर्दे पर चित्रित किया कि लोग उनके प्रशंसक बन गए और इस फिल्म को तमिल भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला।

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बॉलीवुड में नहीं मिले उचित अवसर

फिर क्या था, सयाजी शिंदे (Sayaji Shinde) को एक एक करके लगभग हर फिल्म उद्योग ने अप्रोच करना प्रारंभ किया, जिसमें तेलुगु उद्योग के साथ सयाजी शिंदे का सफर काफी दमदार रहा। 2003 में तमिल फिल्म रमन्ना (जिसका 2015 में अक्षय कुमार ने गब्बर के रूप में रीमेक किया) के रीमेक “टैगोर” के प्रमुख विलेन के रूप में डेब्यू करने के बाद सयाजी इस उद्योग का एक अभिन्न अंग बन गए और 2006 में जब पुरी जगन्नाध की फिल्म “पोकिरी” आई, तो इसमें इन्हें कमिश्नर सय्यद कादरी का रोल मिला। वहीं रोल जो इसके हिन्दी संस्करण “वॉन्टेड” में गोविंद नामदेव को मिला और फिल्म ब्लॉकबस्टर रही।

परंतु इन्हें बॉलीवुड में उतना सम्मान नहीं मिला, जितना मराठी, तेलुगू और तमिल फिल्म उद्योग में मिला। इसका क्या कारण है? क्या उन्हें अवसर नहीं मिले? हो भी सकता है और नहीं भी, क्योंकि इन्होंने सीधा 2018 में काम मिला, वो भी राजकुमार हिरानी की फिल्म “संंजू” में। कहीं ऐसा तो नहीं कि वे इस उद्योग के लिए आवश्यकता से भी अधिक टैलेन्टेड थे?

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