उस महिला से बड़ा दुर्भाग्य किसका होगा, जिसके पति कहने को तो एक अद्वितीय समाज सुधारक थे- राष्ट्र के मार्गदर्शक थे- परंतु वास्तव में वो अपने घर और परिवार को भी ठीक से नहीं संभाल पाए थे। हम कमला नेहरू की नहीं, कस्तूरबा गांधी की बात कर रहे हैं, जिनके पति कहने को देश के बापू या फिर राष्ट्रपिता थे- लेकिन उन्होंने कस्तूरबा गांधी के साथ जिस तरह का व्यवहार किया, वो डरावना है।
इस लेख में पढ़िए कस्तूरबा गांधी की मृत्यु और उनसे जुड़े उस सत्य को जिसका वर्णन करने में आज भी इतिहासकार कतराते हैं।
13 वर्ष की आयु में विवाह
कस्तूरबा का जन्म 11 अप्रैल सन् 1869 में काठियावाड़ के पोरबंदर में हुआ था। कस्तूरबा आयु में महात्मा गांधी से 6 महीने बड़ी थीं। कस्तूरबा के पिता गोकुलदास मकनजी एक आम व्यापारी थे। गोकुलदास मकनजी की कस्तूरबा तीसरी संतान थीं।
उस जमाने में कोई लड़कियों को पढ़ाता तो था नहीं विवाह भी अल्प आयु में ही कर दिया जाता था। इसलिए कस्तूरबा भी अशिक्षित थीं और 7 वर्ष की अवस्था में 6 वर्ष के मोहनदास करमचंद गांधी के साथ उनकी सगाई कर दी गई। 13 साल की आयु में दोनों का विवाह करा दिया गया।
अब प्रश्न यह है कि आखिरकार महात्मा गांधी ने कस्तूरबा के साथ ऐसा क्या किया, जिसके बारे में बताने से आज भी कई इतिहासकार कतराते हैं? इसके अनेक उदाहरण है, जिनके बारे में लिखते-लिखते शायद एक सम्पूर्ण उपन्यास बन जाए।
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परंतु तीन ऐसे प्रमुख उदाहरण है, जिनसे स्पष्ट होता है कि मोहनदास कुछ भी थे, परंतु आदर्श पुरुष नहीं, और जिस “राम राज्य” की वे दुहाई देते थे, उनका आचरण उसके मूल सिद्धांत के ठीक विपरीत था।
सर्वप्रथम उदाहरण है 1888 में मोहनदास की इंग्लैंड यात्रा का। पति-पत्नी 1888 ई. तक लगभग साथ-साथ ही रहे किंतु इंग्लैंड प्रवास के बाद से करीब-करीब अगले बारह वर्ष तक दोनों प्राय: अलग-अलग रहे। इंग्लैंड प्रवास से लौटने के बाद शीघ्र ही गांधी जी को अफ्रीका जाना पड़ा और 1896 में वे भारत आए तब कस्तूरबा को अपने साथ ले गए। तब से कस्तूरबा गांधी के पद का अनुगमन करती रहीं।
कस्तूरबा सेवा में कुशल एवं धर्मपरायण स्त्री थीं। वे किसी भी अवस्था में मांस और शराब लेकर मानुस देह भ्रष्ट करने को तैयार न थीं। अफ्रीका में कठिन बीमारी की अवस्था में भी उन्होंने मांस का शोरबा पीना अस्वीकार कर दिया और आजीवन इस बात पर दृढ़ रहीं। परंतु उनके इन कदमों का मोहनदास ने कभी भी उचित सम्मान नहीं दिया।
जेल में रहीं कस्तूरबा गांधी
एक और उदाहरण है, जिससे स्पष्ट होता है कि मोहनदास करमचंद गांधी अपनी पत्नी के प्रति कितने कटिबद्ध थे। दक्षिण अफ्रीका में 1913 में एक ऐसा कानून पास हुआ जिससे ईसाई मत के अनुसार किए गए और विवाह विभाग के अधिकारी के यहाँ दर्ज किए गए विवाह के अतिरिक्त अन्य विवाहों की मान्यता रद्द कर दी।
दूसरे शब्दों में हिंदू, मुसलमान, पारसी आदि लोगों के विवाह अवैध करार दिए गए और ऐसी विवाहित स्त्रियों की स्थिति पत्नी की न होकर रखैल बराबर बन गई। बापू ने इस कानून को रद कराने का बहुत प्रयास किया। पर जब वे सफल न हुए तब उन्होंने सत्याग्रह करने का निश्चय किया और उसमें सम्मिलित होने के लिये स्त्रियों का भी आह्वान किया। पर इस बात की चर्चा उन्होंने अन्य स्त्रियों से तो की किंतु कस्तूरबा से नहीं की।
जब कस्तूरबा गांधी ने देखा कि बापू ने उनसे सत्याग्रह में भाग लेने की कोई चर्चा नहीं की तो वो बहुत दु:खी हुई और बापू को उपालंभ दिया। जिसके बाद वो स्वेच्छानुसार सत्याग्रह में सम्मिलित हुईं और तीन अन्य महिलाओं के साथ जेल गईं। जहां इस दौरान कस्तूरबा को तीन महीने जेल में आधे पेट भोजन पर रहना पड़ा। जब वे जेल से छूटीं तो उनका शरीर ठठरी मात्र रह गया था।
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अब बात करते हैं कस्तूरबा के साथ अंतिम दिनों में मोहनदास करमचंद गांधी के व्यवहार की। उस समय द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था, और एक ओर जहां Allies समूह हिटलर की नाज़ी जर्मनी पर भारी पड़ रहा था, तो वहीं दूसरी ओर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाली आज़ाद हिन्द फौज पूर्वोत्तर भारत में ब्रिटिश सेना पर भारी पड़ रही थी।
इस बीच गांधी क्या कर रहे थे? भारत छोड़ो आंदोलन की जबरदस्त असफलता के बाद जनाब पूना में स्थित आगा खान पैलेस में आराम फरमा रहे थे। कस्तूरबा काफी दिन से रोग से कराह रही थी, पर गांधी जी के कानों पर मानों जूँ तक नहीं रेंगी।
‘गांधी की पत्नी होना सबसे मुश्किल’
इसके पीछे एक घटना थी, जो इस क्रूर व्यवहार को और स्पष्ट रेखांकित करती है। गांधी जी उन दिनों उड़ीसा के दौरे पर थे और गांधी के सचिव महादेव देसाई की पत्नी का प्लान था कि पुरी जगन्नाथ मंदिर जाएंगे। उस ज़माने में पुरी के मंदिर में गैर हिंदुओं एवं कुछ अन्य समुदायों के प्रवेश पर रोक थी।
अब गांधी का स्पष्ट मत था कि वो ऐसी किसी भी जगह नहीं जाएंगे जहां जाति का भेद-भाव होता हो। महादेव देसाई को लगता था कि कस्तूरबा उनकी पत्नी को मंदिर जाने से रोक लेंगी। मगर कस्तूरबा, महादेव की पत्नी और एक और महिला के साथ मंदिर चली गईं।
ये बात गांधी को बहुत बुरी लगी। उन्होंने खुद कहा कि उन्हें सदमा पहुंचा। बाकी लोगों ने गांधी को समझाने की कोशिश की तो गांधी और भड़क गए। कुछ जगहों पर लिखा मिलता है कि गांधी कस्तूरबा पर इतना गुस्सा हुए कि उन्होंने हाथ भी उठा दिया। महादेव देसाई के ही शब्दों में, “गांधी का सचिव होना मुश्किल है मगर गांधी की पत्नी होना दुनिया में सबसे मुश्किल।”
इस बीच भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ होने के कुछ ही दिनों बाद 15 अगस्त 1942 को महादेव देसाई हृदयाघात से चल बसे। जितने दुखी गांधी नहीं थे, उससे अधिक कस्तूरबा थी, क्योंकि एक महादेव देसाई ही थे, जो उनके दुख-दर्द को कुछ हद तक समझते थे।
वह देसाई की समाधि पर रोज़ जा कर दिया जलाती थीं और कहती रहतीं, “जाना तो मुझे था, महादेव कैसे चला गया?”। फिर कुछ समय बाद कस्तूरबा को ब्रॉन्काइटिस की शिकायत हो गई, इसके बाद उन्हें दो दिल के दौरे पड़े और फिर वो निमोनिया से ग्रस्ति हो गईं।
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डॉक्टर चाहते थे बा को पेंसिलिन का इंजेक्शन दिया जाए, परंतु गांधी इसके खिलाफ थे। गांधी इलाज के इस तरीके को हिंसा मानते थे और प्राकृतिक तरीकों पर ही भरोसा करते थे।
बा ने कहा कि अगर बापू कह दें तो वो इंजेक्शन ले लेंगी, परंतु गांधी ने अलग ही लीला रचते हुए कहा कि वो नहीं कहेंगे, अगर बा चाहें तो अपनी मर्ज़ी से इलाज ले सकती हैं। इसके बाद कस्तूरबा की तबीयत और अधिक बिगड़ गई।
गांधी के बेटे देवदास गांधी भी इलाज के पक्ष में थे वो पेंसिलिन का इंजेक्शन लेकर भी आए। तब बा बेहोश थीं और गांधी ने उनकी मर्ज़ी के बिना इंजेक्शन लगाने से मना कर दिया और ऐसे ही 22 फरवरी 1944 को महाशिवरात्रि के दिन कस्तूरबा गांधी इस दुनिया से चली गईं।
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