“वर्ल्ड बैंक हमारी संधि को हमें ही नहीं समझा सकता”, पाकिस्तान को 90 दिन के अल्टीमेटम के बाद World Bank को भारत का जवाब

यह बहुत आवश्यक था!

Indus water treaty

Source- TFI

लगता है भारत सरकार को “गदर” कुछ अधिक ही भा गई है, तभी वे आजकल तारा सिंह मोड में है। प्रतिद्वंदी कोई भी हो यदि बात भारत पर आई, तो कोई चुप नहीं बैठेगा और विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपना मुख खोला तो सभी जानते हैं कि आगे क्या होगा। परंतु शायद ये बात किसी ने वर्ल्ड बैंक को नहीं बताई थी, तो वे आ गए सिंधु जल समझौते (Indus water treaty) में हस्तक्षेप करने और फिर जो हुआ उसके बारे में वर्ल्ड बैंक के कर्ताधर्ताओं ने तो अपने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा।

इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे भारत ने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी है कि क्यों कोई भी भारत को उसकी आंतरिक नीतियां रचने पर उपदेश नहीं दे सकता, चाहे वह वर्ल्ड बैंक जैसा संस्थान ही क्यों न हो।

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विश्व बैंक के कदम पर भारत ने उठाए सवाल

हाल ही में सिंधु जल समझौता (Indus water treaty) पर पुनर्विचार करने की दिशा में केंद्र सरकार ने व्यापक कदम बढ़ाए हैं, जिसमें पीएम मोदी का रुख स्पष्ट है : “रक्त और जल दोनों साथ साथ नहीं बह सकते”, अर्थात भारत अपने अखंडता के साथ अब किसी भी प्रकार का समझौता स्वीकार नहीं करेगा। परंतु न जाने वर्ल्ड बैंक को क्या हो गया कि उसने इन मामलों में दोनों देशों के मतभेदों को दूर करने के लिए दो अलग अलग प्रक्रियाओं के तहत एक मध्यस्थता अदालत और एक तटस्थ विशेषज्ञ नियुक्त करने का निर्णय लिया। स्वयं विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने इसकी जानकारी देते हुए बताया कि कैसे पाकिस्तान को भारत सरकार द्वारा नोटिस भेजे जाने पर वर्ल्ड बैंक ने अप्रत्यक्ष रूप से अपना “विरोध” दर्ज किया।

प्रेस कॉन्फ्रेंस में अरिंदम के अनुसार, “समझौते में सुधार के लिए हमने पिछले 25 जनवरी को पाकिस्तान को नोटिस दिया है और पड़ोसी मुल्क को 90 दिनों के भीतर इसका जवाब देना है। नोटिस देने का उद्देश्य पाकिस्तान को संशोधन से 90 दिनों के भीतर अंतर सरकारी वार्ता करने का अवसर प्रदान करना है।” अब इस मामले में वर्ल्ड बैंक का कहना है कि दोनों देश इस मुद्दे को सुलझाने के लिए दो अलग अलग रास्ते अपनाएं। दोनों इसके लिए न्यूट्रल एक्सपर्ट अपॉइंट करें और कोर्ट ऑफ आरबिट्रेशन जाएं।

परंतु ये बात भारत को बिल्कुल नहीं भाई और स्पष्ट कर दिया गया कि वह स्वयं पहले उच्चायुक्त के स्तर पर इस मुद्दे को सुलझाना चाहेगा। इसके बाद वे अगर चाहेंगे तो न्यूट्रल एक्सपर्ट और कोर्ट ऑफ आरबिट्रेशन का रुख करना चाहेगा। इसके साथ ही विश्व बैंक को आइना दिखाते हुए अरिंदम बागची ने कहा कि वर्ल्ड बैंक ने खुद इस बात को स्वीकार किया है ये दो पैरलर प्रोसेस हैं, और ऐसे में ‘हमारा आकलन है कि यह संधि के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है। इस मुद्दे पर हमने पाकिस्तान को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया है और साथ ही यह भी कहा है कि पड़ोसी देश चाहें तो सरकार के स्तर पर भी इसको लेकर बातचीत कर सकते हैं”।

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क्यों सिंधु जल संधि (Indus water treaty) को लेकर मचा है बवाल? 

तो ये सिंधु जल समझौता (Indus water treaty) है क्या, जिसको लेकर इतनी हाय तौबा मची हुई है? बता दें कि वर्ष 1960 के सितंबर माह में इस समझौते पर दोनों देशों द्वारा जल बंटवारे को लेकर हस्ताक्षर किए गए थे। तब तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने कराची में समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें विश्व बैंक भी इस समझौते का एक वादी है। परंतु इस समझौते से मुख्य रूप से भारत को हानि होती थी और इस मुद्दे को सुलझाने की बजाये पाकिस्तान बार-बार उसी वर्ल्ड बैंक के पास चला जाता था, जिसके कारण भारत को मजबूरन पाकिस्तान को 90 दिनों का अल्टीमेटम देना पड़ा।

संधि के अंतर्गत छह नदियों ब्यास, रावी, सतलुज, सिंधु, चिनाब और झेलम के पानी के वितरण और उपयोग करने के अधिकार शामिल हैं। इन नदियों के कुल 16.8 करोड़ एकड़ फुट में भारत का भाग 3.3 करोड़ एकड़ फुट है, जो समझौते के अंतर्गत आने वाली नदियों का कुल 20 प्रतिशत के आसपास है। इसके अतिरिक्त भारत को यह अधिकार प्राप्त है कि वह इन नदियों के जल को कृषि एवं घरेलू कार्यों हेतु उपयोग में ले सकता है, जोकि वैधानिक भी है। अब ये अलग बात कि भारत को दशकों तक अपने ही अधिकारों का कोई आभास नहीं प्रतीत हुआ। समझौते के अनुसार तीन पूर्वी नदियों ब्यास, रावी और सतलुज  का नियंत्रण भारत को तथा तीन “पश्चिमी” नदियों सिंधु, चिनाब और झेलम का नियंत्रण पाकिस्तान को दिया गया।

इस संधि को लेकर कुछ मतभेद हैं। समझौते से भारत को एकतरफा नुकसान हुआ है और उसे छह नदियों की जल व्यवस्था का महज 20 प्रतिशत पानी ही मिला है। भारत इस समझौते में बदलाव चाहता है। 2016 में उरी और फिर 2019 में पुलवामा में सुरक्षाबलों पर हुए घातक हमलों के पश्चात कई राष्ट्रवादियों एवं सांसदों ने इस समझौते में संशोधन की मांग भी की और इसी की ओर भारत ने अपने कदम भी बढ़ाए थे। परंतु भारत के इस कदम से ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व बैंक तनिक भी प्रसन्न नहीं।

इस समझौते में पाकिस्तान हमेशा से ही अपनी मनमानी चलाता आया है। पाकिस्तान के द्वारा जम्मू-कश्मीर की किशनगंगा और रतले पनबिजली परियोजनाओं पर आपत्ति जताई जा रही है। उसने भारत के साथ चर्चा करने से ही इनकार कर दिया।

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भारत का रूख स्पष्ट

इस बार भारत ने भी तय कर लिया है कि अब कोई अन्य संस्थान ये तय नहीं कर सकता कि वह अपनी नीतियां कैसे निर्धारित करेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व बैंक ने अमेरिका और पाकिस्तान के उदाहरणों से कोई सीख नहीं ली है, अन्यथा ये भूल वह अपने स्वप्न में भी नहीं करते। चूंकि पाकिस्तान OIC का सदस्य है, इसलिए वह कभी न कभी अपना कश्मीर का फटा हुआ ढोल लेकर पहुंच जाता है, वो अलग बात है कि अब पाकिस्तान के “अरबी मित्र” भी यदि प्रत्यक्ष तौर पर नहीं तो अप्रत्यक्ष तौर पर पाकिस्तान की हरकतों से तंग आ चुके हैं। तभी तो यूएई और सऊदी अरब जैसे देशों ने पाकिस्तान को सुझाव दिया है कि वो कश्मीर को छोड़कर भारत के साथ दोस्ती कर लें, क्योंकि इसमें उसकी ही भलाई है।

दूसरी ओर अमेरिका ने रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध में भारत से समर्थन न मिलने पर तरह तरह के प्रपंच रचे, यहां तक कि ये भी बता दिया कि अमेरिका का साथ न देने पर भारत को दुष्परिणाम भी भुगतने पड़ सकते हैं। विशेषकर तब जब भारत रूस के साथ तेल संसाधनों को लेकर एक अलग ही नीति तय कर रहा था। परंतु भारत के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी और उल्टे विदेश मंत्री ने अमेरिका के यूरोपीय सहयोगियों को दर्पण दिखाते हुए कहा कि जो स्वयं चोरी छुपे रूस से संसाधन लेने को आतुर हों, वो कृपया भारत को कूटनीति देने पर उपदेश न ही दे।

संसद में भारत की बदलती विदेश नीति रेखांकित करते हुए दिसंबर 2022 में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्पष्ट किया कि भारतीय विदेश नीति भारतीयों लोगों की सेवा के लिए है और विदेश नीति “केवल एक मंत्रालय या यहां तक कि केवल सरकार की कवायद नहीं रह गई है। इसका सभी भारतीयों के दैनिक जीवन पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है”।

ऐसे में वर्ल्ड बैंक ने सिंधु जल समझौता (Indus water treaty) के विषय पर हस्तक्षेप करने की बात कर अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारी है। इस समय भारत ने संसार को स्पष्ट कर दिया है कि वह अपने आत्मसम्मान से अब कोई समझौता नहीं करेगा और यदि किसी को इससे आपत्ति हो, तो उससे भारत का कोई वास्ता नहीं। ऐसे में भारत का रुख स्पष्ट है: कोई दूसरा नहीं तय कर सकता कि भारत की नीतियां कैसे निर्धारित होंगी और कैसे भारत उन्हें लागू करेगा।

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