हर कृति के पीछे उसकी एक अंतर्कथा उपलब्ध है। अपने देश के क्लासिक्स यूं ही नहीं बनते, उनके पीछे ढेर सारा परिश्रम और थोड़ी प्रेरणा अवश्य रहती है। अब बॉलीवुड को अक्सर ही हम “कॉपीवुड” कहते हैं, क्योंकि या तो वह विदेशी गीतों से ट्यून उठाता है या अपने ही किसी क्लासिक गीत का अस्थि पंजर कर देता है। परंतु अगर कोई विभिन्न स्त्रोतों से प्रेरणा लेकर एक अद्भुत रत्न उत्पन्न करें, तो? इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे पड़ोसन के सबसे अद्भुत गीतों में से एक को तीन विभिन्न गीतों से प्रेरित होकर पिरोया गया था।
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जिसने “पड़ोसन” नहीं देखी,वह भारतीय सिनेमा का जानकार होने का दावा बिल्कुल नहीं कर सकता। 1968 में प्रदर्शित इस ब्लॉकबस्टर में सुनील दत्त और सायरा बानू प्रमुख भूमिकाओं में थे और उनका साथ देने के लिए महमूद से लेकर मुकरी, केष्टो मुखर्जी यहां तक कि किशोर कुमार जैसे हास्य कलाकार उपलब्ध थे। इसके अधिकतम गीत बहुत लोकप्रिय हुए, परंतु जो गीत आज भी इस फिल्म की पहचान है, वो है “एक चतुर नार करके श्रृंगार”!
इस गीत को राजेंद्र कृष्ण ने अपने शब्दों में पिरोया और सुर लगाए आर डी बर्मन ने। Carnatic एवं हिन्दुस्तानी संगीत का ऐसा प्रचुर मिश्रण इससे पूर्व किसी हिन्दी फिल्म में बहुत कम ही देखने को मिला था और किशोर कुमार एवं मन्ना डे की यह जुगलबंदी अपने आप में इस गीत को अलग स्तर पर ले गई। परंतु क्या आपको पता है कि ये गीत पूर्णत्या मौलिक नहीं है?
3 गानों को मिलाकर बनाया गया
1941 में एक फिल्म आई थी “झूला”, जो अशोक कुमार की सर्वप्रथम सफलताओं में से एक थी, वो भी लीड अभिनेता के रूप में। उन्होंने इस फिल्म में कुछ गीतों को अपना स्वर भी दिया था, जिसमें एक “एक चतुर नार” भी था। इसी को 27 वर्ष बाद पड़ोसन में विस्तार दिया गया और इस बार भी गीतकार मूल गीत के लेखक राजेंद्र कृष्ण ही थे।
परंतु बात यहीं तक सीमित नहीं थी। इस फिल्म के दो छंद ऐसे थे, जो दो अन्य फिल्मों से लिए गए थे। 1939 के आसपास आई थी संत तुलसीदास, जिसका एक गीत लोकप्रिय हुआ, “बन चले राम रघुराई”। अगर आप किशोर दा का वो छंद सुने, “अरे देखी, अरे देखी चतुराई”, तो आपको आश्चर्य होगा कि दोनों की धुन लगभग एक ही है।
इसके अतिरिक्त जब किशोर कुमार ने “ज़िद्दी” फिल्म से डेब्यू किया था, तो उसमें एक गीत था “चन्दा रे जा रे जा रे”। उसकी धुन को “एक चतुर नार” के उस छंद से मिला कर देखिए, जहां किशोर कुमार गाते हैं, “काला रे, जा रे जा रे”। यहां भी आपको कोई अंतर नहीं स्पष्ट होगा।
तो एक गीत को एक्सटेंड करके, उसमें दो अन्य गीतों के स्वर मिलाकर एक क्लासिक बनाना शायद आज असंभव लगे, परंतु उस समय ऐसा भी होता था, क्योंकि रचनात्मकता के लिए भी परिश्रम चाहिए। बस आवश्यकता है इसी कला को सही दिशा में मोड़ने की, जो पड़ोसन के कलाकारों ने सफलतापूर्वक करके दिखाया।
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