पंजाब में इन दिनों खालिस्तान जैसी कुत्सित विचारधारा ने पुनः पाँव पसारने प्रारंभ कर दिए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पंजाब पुनः उसी मार्ग पर अग्रसर हो रहा है, जहाँ से निकालने में केपीएस गिल समेत कई पंजाबियों की कमर लगभग टूट ही गई थी। परंतु क्या आपको पता है कि इस विषबेल की नींव ब्रिटिश शासन में ही पड़ चुकी थी?
इस लेख मे पढ़िए, कैसे खालिस्तान की नींव ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने डाली, जिसके दुष्परिणाम पंजाब आज भी भुगत रहा है।
खालिस्तान की मांग कब उठी?
प्रश्न यह है कि खालिस्तान की मांग सर्वप्रथम कब उठी? आप कहेंगे, 1970 के दशक के अंत में, जब जरनैल सिंह भिंडरावाले और उसके चमचों ने उत्पात मचाना प्रारंभ किया था? लेकिन यह सही नहीं है कि क्योंकि दशकों पूर्व अलगाववाद का यह बारूद अंग्रेजों ने पंजाब में बिछा दिया था- उसी बारूद की चिंगारी आज खालिस्तानियों के रूप में दिख रही हैं-
इसमें कोई दो राय नहीं कि खालिस्तानी विचारधारा को बढ़ावा देने में कहीं न कहीं वर्तमान SGPC का भी हाथ है। एक वर्ष पूर्व 16 जून को, एसजीपीसी ने सिपाही से बीकेआई आतंकवादी बने दिलावर सिंह के चित्र का अनावरण किया था, जो 31 अगस्त, 1995 को पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या करने के लिए एक आत्मघाती हमलावर बन गया था।
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पंजाब के पूर्व पुलिस अधिकारी दिलावर सिंह ने अपनी कमर के चारों ओर विस्फोटकों की एक बेल्ट बांधी थी और 31 अगस्त, 1995 की शाम को पंजाब सिविल सचिवालय में तत्कालीन सीएम बेअंत सिंह और 16 अन्य लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।
परंतु क्या आपको पता है कि इन सबके पीछे का उद्देश्य पंजाब, विशेषकर सिख समुदाय को भारतीयता एवं उनकी मूल संस्कृति से दूर रखना था? इन सभी घटनाओं को सही तरीके से समझने के लिए हमें इतिहास को समझना होगा। वर्ष 1914 में वापस लौटते हैं।
विश्वयुद्ध प्रारंभ हो चुका था और इसका लाभ उठाते हुए देश के क्रांतिकारी दल ने अपनी सर्वेसर्वा गदर पार्टी को आह्वान दिया। लाला हरदयाल एवं बाबा सोहन सिंह भाकना के आशीर्वाद से स्थापित हुए इस संगठन ने संसार के कोने कोने में क्रांति के मार्ग से भारत को छुड़ाने हेतु समर्थन जुटाना प्रारंभ किया। इस कार्य में बंगाल के क्रांतिकारियों ने भी साथ दिया, जिसमें नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य (बाद में एम एन रॉय), रास बिहारी बसु एवं बाघ जतिन यानी जतींद्र नाथ मुखर्जी प्रमुख थे।
इन लोगों ने कलकत्ता, लखनऊ, लाहौर इत्यादि में विद्रोह की नींव स्थापित की। परंतु एक किरपाल सिंह के पीछे पूरा आंदोलन ठप पड़ गया, और अनेक क्रांतिकारी पकड़े गए। कुछ को भाई परमानंद की भाँति कालापानी हुई, तो कुछ को करतार सिंह सराभा की भाँति मृत्युदण्ड दिया गया।
परंतु इसका खालिस्तान से क्या कनेक्शन है? जब ब्रिटिश प्रशासन ने जांच बिठाई, तो उन्होंने पाया कि इन लोगों को एक करने में सनातनी पुजारियों एवं सिख ग्रंथियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ऐसा तो 1857 में भी नहीं हुआ था, और यदि ये सफल हो जाता तो 1920 में ही भारत को स्वतंत्रता मिल जाती।
इस ख्याल से ही ब्रिटिश इतने भयभीत हो गए कि उन्होंने दोनों समुदायों के अभिजात्य वर्ग, यहाँ तक कि पुरोहित वर्ग को भी आकृष्ट करना प्रारंभ किया। क्या पंजाब, क्या कनाडा, क्या यूके, लगभग हर जगह जो पुजारी एवं ग्रंथि भारत एवं भारतीयता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ थे, उन्हे हटाकर इन्होंने अपने चमचे डालना प्रारंभ किये।
जनरल डायर को किया गया सम्मानित
इसका क्या प्रमाण है? प्रमाण है, और ऐसे कि आज भी वामपंथी इतिहासकार इसका उल्लेख करने से कतराते हैं। जलियांवाला बाग नरसंहार को लोग भूले नहीं हैं, जब रक्त के प्यासे ब्रिटिश प्रशासन ने हज़ारों निर्दोषों को गोलियों से भून दिया था।
तो उस समय सिख समुदाय क्या कर रहा था? आम सिख तो अत्यंत आक्रोशित थे, परंतु उनका नेतृत्व करने वाले अमृतसर में स्थित अकाल तख्त ने उन्ही के घावों पर नमक रगड़ते हुए न केवल जनरल डायर और उनका समर्थन करने वाले माइकल ओ ड्वायर को स्वर्ण मंदिर आमंत्रित किया, अपितु जनरल डायर को सिरोपा भी भेंट की।
इसी चमचागिरी का शेर सिंह कंबोज को भी सामना करना पड़ा, जिन्हे इतिहास आज ऊधम सिंह के नाम से जानता है। जब ऊधम सिंह भारत की स्वतंत्रता हेतु दूसरी बार यूरोप आये 1933 के आसपास, तो उन्होंने स्वभाविक तौर पर गुरुद्वारा में अपने विचारों का प्रसार करने की सोची। परंतु उन्हे कुछ विशेष सफलता नहीं मिली, और कई बार उन्हे गुरुद्वारे से खाली हाथ भी लौटना पड़ा।
ऐसा केवल एक ही कारण से हुआ: अंग्रेज़ो की Divide And Rule वाली नीति, जिसके अंतर्गत जो पुजारी एवं ग्रंथि भारत एवं भारतीयता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ थे, उन्हे हटाकर इन्होंने अपने चमचे डालना प्रारंभ किये।
क्या ये बात किसी इतिहास के पुस्तक ने इसे पूर्व आपको बताई? वो छोड़िये, क्या ऊधम सिंह पर कुछ समय पूर्व बने “सरदार ऊधम” में इस बात पर प्रकाश डाला गया? क्यों डालेंगे, इनका एजेंडा ही खतरे में आ जाता न!
Sources: Revolutionaries : The Other Story of How India won its Freedom by Sanjeev Sanyal
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