सौरभ शुक्ला: वो अभिनेता जो फिल्मों में लीड एक्टर को ही डकार जाता है

सौरभ शुक्ला के सामने बड़े से बड़े स्टार भी नतमस्तक हो जाते हैं!

सौरभ शुक्ला

Source- Google

योग्य कलाकार वही नहीं होता, जो हिट पर हिट देता जाए अपितु योग्य वो भी होते हैं, जो अपने अभिनय की कला से अच्छे अच्छों को पानी मांगने पर विवश कर दे। खेल हो या फिल्म उद्योग, ऑलराउंडर यानी बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति का हर जगह सम्मान होता है। सौरभ शुक्ला भी ऐसे ही एक अभिनेता हैं। इस लेख में हम आपको विस्तार से  सौरभ शुक्ला की बहुमुखी प्रतिभा से आपको अवगत कराएंगे, जिन्हें कम ही लोगों ने सम्मान दिया पर जिन्होंने भी दिया, उनकी कृपा से आज वो भारतीय सिनेमा के बहुमूल्य कलाकारों में से एक हैं।

5 मार्च 1963 को गोरखपुर में जन्मे सौरभ शुक्ला कलाकारों के परिवार से संबंध रखते हैं। उनके माता पिता दोनों शास्त्रीय संगीत में पारंगत थे एवं उनकी मां जोगमाया शुक्ला को भारतीय संगीत की श्रेणी में प्रथम महिला तबला वादक माना जाता है। सौरभ दो वर्ष के ही थे, जब उनका परिवार गोरखपुर से दिल्ली आ गया।

सौरभ शुक्ला ने अपनी शिक्षा दीक्षा दिल्ली से पूरी की एवं अपना स्नातक दिल्ली के श्री गुरु तेगबहादुर खालसा कॉलेज से पूरा किया। तत्पश्चात 1984 में उन्होंने रंगमंच की ओर रुख किया। 1991 तक आते आते वो नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के बहुचर्चित पेशेवर थियेटर कंपनी- The Repertoire Company में सम्मिलित हुए और अपने नाट्यकला के लिए चर्चा का केंद्र भी रहे। उनकी कला से प्रभावित होकर फिल्मकार शेखर कपूर ने उन्हें अपनी बहुचर्चित फिल्म “बैंडिट क्वीन” में कैलाश की भूमिका दी, जिससे उन्होंने फिल्म जगत विशेषकर बॉलीवुड में पदार्पण किया। उन्होंने कुछ अन्य फिल्में भी की परंतु उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली।

और पढ़ें: एक चतुर नार: अनेक गीतों से प्रेरणा लेकर पड़ोसन का बहुचर्चित क्लासिक बना

फिल्म सत्या से बदल गई किस्मत

फिर आया वर्ष 1998, जब मिल बैठे तीन यार- शुक्ला, वर्मा एवं कश्यप। ये कोई मज़ाक नहीं अपितु वास्तविकता है, क्योंकि परिस्थितियां ऐसी बनी कि राम गोपाल वर्मा ने अनुराग कश्यप एवं सौरभ शुक्ला के साथ मिलकर अपने उस विचार को स्वरूप दिया, जो उन्हें गुलशन कुमार की हत्या के बारे में जानने के बाद आया। उन्हें लगा कि गैंगस्टर एवं अंडरवर्ल्ड के बारे में तब सुनने को मिलता है जब वो कोई कारनामा करते हैं या फिर मारे जाते हैं, परंतु बीच में क्या करते हैं, उनकी दिनचर्या क्या है और फिर उसी कहानी पर सामने आई फिल्म “सत्या”, जिसे निर्देशित किया राम गोपाल वर्मा ने, संवाद लिखे अनुराग कश्यप ने और पटकथा रची सौरभ शुक्ला ने।

फिर क्या था, जिसका अंदेशा किसी को भी नहीं था वो हुआ और 3 जुलाई 1998 को प्रदर्शित फिल्म “सत्या” राम गोपाल वर्मा की सबसे प्रभावशाली सफलताओं में से एक बन गई। उस फिल्म ने कई डूबते करियर संभाले, कुछ करियर को एक नई उड़ाने दी, जिनमें से एक सौरभ शुक्ला भी थे। कल्लू मामा के रोल में उन्होंने लोगों को ऐसा प्रभावित किया कि फिल्म में उनके किरदार के लिए एक विशेष गीत भी समर्पित था, “गोली मार भेजे में!”

परंतु ऐसी प्रेरणा सौरभ शुक्ला को कहां से मिली? उन्होंने एक साक्षात्कार में स्पष्ट किया था कि “मुझे ऐसी फिल्में बनाना क्यों अच्छा लगता है? क्योंकि ऐसी फिल्में मुझे बहुत पसंद हैं। यथार्थ का चित्रण करना रोचक भी है और चुनौतीपूर्ण भी।” यूं ही नहीं सत्या के संवाद आज भी इतने लोकप्रिय है। बस फिर क्या था, सौरभ शुक्ला के करियर ने सत्या से ही उड़ान भर ली और उन्होंने फिल्मकला के लगभग हर शैली में अपना भाग्य आजमाया। वो अभिनेता के साथ पटकथा लेखक भी बने और कुछ फिल्मों का उन्होंने निर्देशन भी किया। अब कहीं उन्हें सफलता मिली तो कहीं वो बॉक्स ऑफिस की परीक्षा में फेल हुए। परंतु उन्होंने प्रयोग करना नहीं छोड़ा।

लीड एक्टर पर भी भारी पड़ते हैं शुक्ला

इसी बीच वर्ष 2000 में उन्हें कमल हासन की बहुभाषीय फिल्म “हे राम” में एक छोटी पर महत्वपूर्ण भूमिका मिली। उन्होंने फिल्म “बालू ABCDEFG”, “अपरिचित”, “मुंबई एक्सप्रेस” इत्यादि जैसी फिल्मों में भी अपनी कला का जौहर दिखाया। परंतु वर्ष 2012 उनके करियर का टर्निंग पॉइंट रहा, जब अनुराग बसु की फिल्म “बर्फ़ी” में उन्होंने पुलिसकर्मी सुधांशु दत्ता के रोल में सबको प्रभावित किया। परंतु अगले ही वर्ष उन्होंने एक ऐसी फिल्म में भाग लिया, जिसमें उनकी कला ने पूरे देश को अपना फैन बना दिया।हमारे देश में कोर्टरूम ड्रामा या तो बनते ही नहीं हैं और अगर बनते भी हैं तो वे यथार्थ से कोसों दूर रहते हैं। ऐसे में जब सुभाष कपूर ने “जॉली एलएलबी” जैसी फिल्म प्रदर्शित की, तो लोग दौड़े दौड़े थियेटर चले आए। इस फिल्म के लगभग सभी कलाकारों ने उत्कृष्ट काम किया परंतु सबसे प्रभावशाली रहे अरशद वारसी एवं सौरभ शुक्ला

जस्टिस सुंदरलाल त्रिपाठी के रूप में उन्होंने एक न्यायाधीश का स्वभाव और उनकी दुविधा को इतने चुटीले रूप में व्यक्त किया कि सब ‘जज साब’ के प्रशंसक बन गए और पहले तो पहले, दूसरे संस्करण में भी वे कई अवसरों पर प्रमुख अभिनेता चाहे अरशद वारसी हो या अक्षय कुमार, दोनों पर ही भारी पड़ते हुए दिखाई दिए। “तुम जानते नहीं कि अदालत में झूठ बोलना कानूनी अपराध है? चलो मुर्गा बनो!” जैसे संवाद भी एक प्रमुख कारण थे कि सौरभ शुक्ला को इस भूमिका के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया।

इसके अतिरिक्त भी सौरभ शुक्ला ने कई ऐसी फिल्में की, जहां वो प्रमुख अभिनेता को या तो टक्कर देते दिखाई दिए या उन्हें लील गए। उदाहरण के लिए वर्ष 2018 में राजकुमार गुप्ता द्वारा रचित फिल्म “रेड” (जोकि सत्य घटनाओं पर आधारित थी) में रामेश्वर सिंह यानी ताऊजी की भूमिका में सौरभ शुक्ला ने अजय देवगन को अपनी कला एवं अपने संवादों से खूब टक्कर दी और वहीं अगले ही वर्ष अमर कौशिक की फिल्म “बाला” में उन्होंने आयुष्मान खुराना का खूब साथ दिया। चूंकि वो स्वयं इस फिल्म के मूल विषय यानी हेयर लॉस के भुक्तभोगी भी हैं, इसलिए कहीं न कहीं अपनी भूमिका में उन्होंने जमकर प्रयास भी किये। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि सौरभ शुक्ला वास्तव में बॉलीवुड के वो कलाकार हैं, जो सही अवसर पर लीड एक्टर की लाइमलाइट भी उड़ा ले जाए।

और पढ़ें: “किशोर कुमार चाहते थे कि चलती का नाम गाड़ी फ्लॉप हो जाए”, लेकिन जब फिल्म चल गई तब क्या हुआ?

TFI का समर्थन करें:

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ‘राइट’ विचारधारा को मजबूती देने के लिए TFI-STORE.COM से बेहतरीन गुणवत्ता के वस्त्र क्रय कर हमारा समर्थन करें।

Exit mobile version