“हिंदी फिल्मों से गायब हो गई उर्दू”, नसीरुद्दीन शाह की कुंठा साफ तौर पर दिख रही है

इनका उर्दू प्रेम खत्म नहीं हो रहा!

With anti-Hindi rhetoric, naseeruddin shah again shows his frustration

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अगर इंस्टाग्राम पर तनिक भी ध्यान दिया हो, तो एक किरदार पर आपका ध्यान अवश्य गया होगा – “थारा भाई जोगिंदर”। यूं तो इंस्टाग्राम पर सभी नौटंकी करते हैं, पर इन जनाब के अलग ही शौक है और कोई उन्हें बताता कि यह ठीक नहीं, तो उल्टा उसे ही सुनाने लगते और दावा करते “भूचाल ला दूंगा, बवंडर लाऊंगा”। वो अलग बात है कि कुछ महीनों बाद स्वयं ही उड़नछू हो गए। वास्तविक जीवन में कुछ ऐसे ही लोग हैं, जो राई का पहाड़ बनाना नहीं छोड़ते, चाहे स्वयं का नाश क्यों न जाए। नसीरुद्दीन शाह भी उन्हीं में से एक हैं।

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उर्दू गायब होने पर भड़क गए

नसीरुद्दीन शाह इस बार पुनः सुर्खियों में है और पुनः गलत कारणों से। महोदय अब इस बात से खफा हैं कि हिन्दी सिनेमा में उर्दू का प्रयोग क्यों नहीं होता। कुछ माह पूर्व उर्दू समारोह “जश्न ए रेखता” की एक वार्तालाप अब जाकर सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है। नसीरुद्दीन उर्दू के प्रयोग पर बोलते हैं, “सत्यानाश हो गया है। पर हिन्दी फिल्म में कुछ भी बेहतर क्या है?”

वाह भई, एजेंडा का श्रीगणेश ही हिन्दी से हुआ, पर छोड़िए, आगे बढ़ते हैं। जनाब फरमाते हैं, “आज फिल्मों में उर्दू सुनने को ही नहीं मिलती। पहले जब सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट आता है, तो उसमें स्पष्ट तौर पर लिखा होता था कि इसमें उर्दू है। ऐसा इसलिए क्योंकि गीत और शायरी उन्हीं लफ़्जों में लिखे जाते हैं और हमारे फनकार भी फारसी मंच से आते थे। अब कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा, अब तो बेहूदा अल्फ़ाज़ होते हैं। कोई भी फिल्म के शीर्षक पर ध्यान नहीं देता है, वो भी पुराने गीतों से लिए गए हैं।”

ठहरिए, ये तो मात्र प्रारंभ है। नसीरुद्दीन आगे कहते हैं, “फिल्मों ने तो अब स्टीरियोटाइप बनाना शुरू दिए हैं। अब तो ये सभी कौम का बराबर मज़ाक उड़ाती हैं। पहले हीरो का एक अज़ीज़ दोस्त होता था, जो मुसलमान होता था। परंतु अंत में उसे भी मरना होता था। अब हिन्दी फिल्मों का बुलबुला जल्दी फूटेगा क्योंकि इनमें दम नहीं। हम दावा करते हैं कि हमारी फिल्मों को दुनियाभर में देखा जाता है, जैसे हिन्दुस्तानी खाने की तारीफ करते हैं। हिन्दुस्तानी खाना इसलिए पसंद किया जाता है, क्योंकि उसमें दम है, उसमें एक बात है!”

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पता नहीं क्यों इन बातों को पढ़कर “नायक” मूवी में अनिल कपूर के किरदार शिवाजी राव के संवाद स्मरण हो आए, “आप जो बोल रहे हैं, वो बहस के लिए, सुनने के लिए अच्छा है, लेकिन प्रैक्टिकल नहीं है!” अब एक उदाहरण देते हैं- आप एक रेस्टोरेंट में जाते हो, और मांग करते हो फिश एंड चिप्स की और नहीं मिलने पर आप आसमान सर पर उठा लेते हो। यदि वो रेस्टोरेंट भारत में स्थित है और भारतीय व्यंजन परोसता है, तो यहां गलती किसकी है- ऐसा भोजन डिमांड करने वाले ग्राहक की या रेस्टोरेंट के रसोइये एवं खानसामे की?

जिसे तनिक भी व्यावहारिकता की समझ होंगी, वो तो यही बोलेगा कि ग्राहक को कूटो, रेस्टोरेंट का क्या दोष और नसीरुद्दीन शाह वहीं ग्राहक है। देखिए हमारा हिन्दी फिल्म उद्योग शुद्ध हिन्दी को बढ़ावा देता है या नहीं यह अलग वाद विवाद का विषय है, परंतु वहां जहां ये रोना कि हिन्दी फिल्मों में अब पहले जैसी उर्दू नहीं रही, प्रथम श्रेणी की बेवकूफी है और यदि ये परीक्षा का कोई विषय होता, तो नसीरुद्दीन शाह इसके निर्विरोध टॉपर होते।

इसके अतिरिक्त अगर नसीरुद्दीन शाह का निष्पक्ष विश्लेषण करें, तो भी यहां इनसे सहानुभूति जताने योग्य कोई भी बात नहीं है। पहली बात, किरदारों का चित्रण कैसे होता है, ये लेखक और फिल्मकार के ऊपर निर्भर करता है और यदि आपको इस बात से आपत्ति है कि मुस्लिम कलाकारों को पहले की भांति नहीं दिखाया जा रहा है, तो ऐसे में तो अब नसीरुद्दीन मियां पर ही प्रश्न उठेंगे- कहीं ये भी रवि शास्त्री के साथ गुफ्तगू तो नहीं करते? ऐसा किसलिए? नसीरुद्दीन शाह यदि तनिक भी फिल्म उद्योग से परिचित होंगे, तो उन्हें इतना तो ज्ञान होना ही चाहिए कि न तो उर्दू का प्रयोग समाप्त हुआ है और न ही एजेंडावाद। विश्वास नहीं होता तो “पठान” देख लीजिए, जिसके कलेक्शन पर आप भले ही संदेह करें, परंतु एजेंडा पर- बिल्कुल नहीं।

इसके अतिरिक्त क्या इस बात पर ध्यान दिया है कि हिन्दी फिल्मों पर ज्ञान देने वाले ये वही नसीरुद्दीन शाह हैं, जो पिछले कुछ वर्षों में एक भी सफलता नहीं दे पाए। रोचक बात तो यह है कि उनकी अंतिम सफल फिल्म “द ताशकंद फाइल्स” है, जिसके निर्देशक एवं उसकी विचारधारा को यह महोदय कोसने में कोई प्रयास अधूरा नहीं छोड़ते। उनकी फिल्म “कुत्ते” के कलेक्शन एवं इनके रोल में जितना कम बोलें, उतना ही अच्छा।

“उर्दू केवल मुसलमान की भाषा नहीं”

परंतु आपको क्या लगता है, ये अभी से प्रारंभ हुआ है? बिलकुल नहीं। इससे पहले भी ये महोदय ऐसी बयानबाजी कर चुके हैं। जब बॉलीवुड बनाम साउथ का विवाद उत्पन्न हुआ था तो नसीरुद्दीन ने उस पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था– “लोगों में बहुत बड़ी गलतफहमी है कि उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा है। अजबी विडंबना है कि जो जुबान इसी मुल्क में पैदा हुआ, पली बढ़ी उसे विदेशी भाषा का दर्जा दिया जा रहा है।” उर्दू के भविष्य पर बात करते हुए महाशय आगे कहते हैं- “मैं दुआ करता हूं उर्दू सलामत रहें। आजकल मां-बाप बच्चों से अंग्रेंजी में बात करते हैं। यह अफसोस की बात है। उर्दू को हजार मिटाने की कोशिश की जाये, लेकिन ये मर नहीं सकती। नसीरुद्दीन ने आगे यह भी कहा- “हिंदुस्तान में ढेरों जुबानें हैं और सब की सब अपनी जगह महान हैं। किसी को भी रिप्लेस करना या फिर एक जुबान को हलक में ठूंसना कि तुम्हें यही बोलनी पड़ेगी, ये जरा डरावनी बात है।

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बेतुकी बातें करने नजर आते हैं नसीरुद्दीन

बेतुकी बातें करना, अपनी इच्छाअनुसार कार्य न होने पर पीएम मोदी से लेकर ब्रह्मांड के लगभग हर तत्व को कोसना नसीरुद्दीन मियां का फैशन बन चुका है। इनके कुछ विचार सुनकर ऐसा कभी कभी लगता है ये इसी लोक के हैं न?

उदाहरण के लिए दिसंबर 2021 में द वायर से जुड़े पत्रकार करण थापर को दिए साक्षात्कार में नसीरुद्दीन शाह ने कहा, “मुगल यहां पर बसने के लिए आए थे। उन्होंने भारत की संस्कृति और संगीत को अपना अप्रतिम योगदान दिया था। उन्हें आप शरणार्थी भी कह सकते हैं, बड़े धनाढ्य शरणार्थी थे वे!”

अब कल्पना कीजिए कि आप घर बार छोड़कर अफगानिस्तान में डेरा जमाते हो, अपना आशियाना बनाते हो और फिर भारत पर हमला करते हो, ताकि युगों-युगों तक एक अभेद्य, अकाट्य सल्तनत की नींव रखी जा सके और फिर सैकड़ों वर्ष बाद आपका कोई वंशज ये कह दें कि आप मात्र एक ‘शरणार्थी’ थे तो? कहीं न कहीं नसीरुद्दीन शाह का यह बयान सुनकर मुगलों के मन में भी ये विचार आया होगा, “गजब बेइज्जती है यार!”

परंतु ये तो कुछ भी नहीं है। जब इन्होंने तालिबान ने अफगानिस्तान में पुनः सत्ता स्थापित की, तो तालिबान के बढ़ते प्रभाव को लेकर पंथनिरपेक्षता के दावे करने का प्रयास किया था और कहा था, “अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है, लेकिन भारतीय मुसलमानों के कुछ वर्गों द्वारा बर्बर लोगों का जश्न कम खतरनाक नहीं है। जो लोग तालिबान के पुनरुत्थान का जश्न मना रहे हैं, उन्हें खुद से सवाल करना चाहिए, क्या वे एक आधुनिक इस्लाम चाहते हैं या पिछली कुछ शताब्दियों के पुराने बर्बरता (वहशीपन) के साथ रहना चाहते हैं?”

जी हां, आपने ठीक सुना। नसीरुद्दीन शाह हिन्दुस्तानी इस्लाम और रेगिस्तानी इस्लाम के बीच में अंतर रेखांकित कर रहे थे। इसी वीडियो में जनाब आगे कहते हैं, “अल्लाह ऐसा समय न लाए जब यह इतना बदल जाए कि हम इसे पहचान भी न सकें। मैं एक भारतीय मुसलमान हूं और जैसा कि मिर्जा गालिब ने सालों पहले कहा था, ईश्वर के साथ मेरा रिश्ता अनौपचारिक है। मुझे राजनीतिक धर्म की जरूरत नहीं है।” अभी तो रत्ना पाठक शाह के सुविचारों पर हमने प्रकाश भी नहीं डाला है, जहां वे RRR के विरोध के नाम पर ऐसे राग अलापती है कि स्वरा भास्कर और राणा अयूब भी एक समय को इनसे सयाने लगने लगे।

ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि नसीरुद्दीन शाह अब मोहल्ले के वो दद्दू हो चुके हैं, जो अपने विचार सबको साझा करना चाहते हैं, परंतु उनकी सुनता कोई भी नहीं है। जिस प्रकार से वे अनर्गल प्रलाप करते हैं, एक समय ऐसा भी आएगा जब श्रोताओं के नाम पर इनके विचार सुनने के लिए केवल एक ही व्यक्ति बचेगा- स्वयं नसीरुद्दीन शाह।

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