भीड़ : ये फिल्म बनी ही क्यों?

अनुभव सिन्हा, तुमसे न हो पाएगा....

किसी त्रासदी का होना एक बात है, और उसी त्रासदी का चित्रण करना दूसरी। ये कार्य कभी सरल नहीं होता, क्योंकि उसमें आपको हर पक्ष की बात करनी है, और कभी कभी तो उस वास्तविकता से परिचित कराना है, जो सबको नहीं पचेगा। परंतु अनुभव सिन्हा को ये काम दीजिए और वे हर बार ये सिद्ध करने में लग जाएंगे कि अपने लाभ के लिए वे किस हद तक गिर सकते हैं।

इस लेख में पढिये कैसे फिल्म भीड़ केवल भारतीय सिनेमा पर ही नहीं, अपितु सिनेमा के नाम पर कलंक है। तो अविलंब आरंभ करते हैं।

कथा क्या है?

अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित “भीड़” कोविड 19 और उससे उत्पन्न समस्याओं पर आधारित एक फिल्म है, जिसमें राजकुमार राव, भूमि पेडनेकर, पंकज कपूर, आशुतोष राणा, दिया मिर्ज़ा, कृतिका कामरा इत्यादि प्रमुख भूमिकाओं में है।

ये फिल्म एक स्टेट बॉर्डर के आसपास घूमती है, जहां पर कई किरदारों के परिप्रेक्ष्य से बताया जाता है कि कोविड की महामारी कैसे मुसीबतों के पहाड़ समान लोगों पर टूट पड़ी थी।

एक पुलिसकर्मी है जो आम मजदूरों पर हो रहे अत्याचारों को सह नहीं पा रहा, एक धनाढ्य महिला है जो अपनी बच्ची को वापिस लेने के लिए गाड़ी से बॉर्डर पार कर रही है, एक गार्ड है, जिसे किसी पर विश्वास नहीं, एक सरकारी कर्मचारी है जो ड्यूटी और नैतिकता के बीच में फंसा हुआ है।

बस कर अनुभव भाई….

कोविड 19 कैसे हमारे जीवन में उथल पुथल लाया, और कैसे उसने कई लोगों का जीवन बर्बाद किया, ये किसी से नहीं छुपा है।

हम में से कई लोग शायद भाग्यशाली थे कि हमारे सर पर छत थी, खाने को दो वक्त की रोटी थी, पर कई लोग, विशेषकर दिहाड़ी मजदूरों को वो भी मिलना बंद हो गया था। ये बहुत ही विकट स्थिति थी, जिसके लिए कोई तैयार नहीं था, और आज भी इसके बारे में लिखने से हृदय कंपयमान हो जाता है।

परंतु इन सब से अनुभव सिन्हा का कोई वास्ता नहीं। सामाजिक सेवा के नाम पर इन्होंने जो कबाड़ परोसा है, उसके लिए किसी भी प्रकार की निंदा कम ही पड़ेगी। अभी तक लग रहा था कि एजेंडावाद में नंदिता दास का कोई सानी नहीं, जिन्होंने “Zwigato” के माध्यम से इसे सिद्ध भी किया। परंतु अनुभव सिन्हा ने गजब पराजित किया है, चाहे वह मार्मिकता के नाम पर एजेंडा चलाना हो, या फिर निर्लज्जता की पराकाष्ठा पार करनी हो।

सबसे पहले बात करते हैं कथा की, जिसे आप लालटेन लेकर भी ढूँढने निकलोगे, तो शायद ही मिले। कल्पना कीजिए कि आपको सरकार से कोई रोष हो, और आप उसके लिए कोविड को अपना ढाल बना लो। “भीड़” इसी का परिणाम है, जिसे देखने के लिए बीस लोग भी सिनेमाघरों में नहीं आए होंगे।

इस फिल्म के माध्यम से जो कुछ भी चित्रित हुआ, क्या वो पहले कभी नहीं हुआ? ऐसा नहीं है, और न ही इस फिल्म में जो कुछ दिखाया गया, वह सब झूठ है। परंतु जिस तरह से चित्रण किया गया है, उसका यथार्थ से दूर दूर तक कोई नाता नहीं,

और कोविड जैसी त्रासदी का अनुभव करने के बाद भी आप में से अधिकतर लोग चाहकर भी इससे कनेक्ट नहीं कर पाओगे। आपको लगेगा, इससे अच्छा रवीश कुमार के चैनल पर दस मिनट का लेक्चर झेल लेता, और विश्वास मानिए, वो लेक्चर इस फिल्म से ज्यादा सेंस बनाएगा।

त्रासदी से पैसा निकालना….

जब इस फिल्म ने कोविड 19 की त्रासदी की तुलना 1947 के विभाजन से की थी, तभी हमने अपने पूर्ववर्ती लेख में कहा था कि इस फिल्म में कुछ तो गड़बड़ है। लेकिन किसी त्रासदी को अपने निजी लाभ हेतु ऐसे उपयोग में लाया जाएगा, किसी ने नहीं सोचा था।

कल्पना कीजिए कि आप एक ऐसी फिल्म देख रहे हो, जिसमें त्रासदी है, और जिससे आप कनेक्ट करना चाहते हो, परंतु अचानक से आपके समक्ष एक ऐसा दृश्य आ जाए, जिसे आप चाहकर भी अनदेखा न कर सको। परंतु “भीड़” में यही हुआ है, जहां कोविड 19 के त्रासदी के नाम पर कुछ अश्लील दृश्य भी ठूँसे गए हैं, परोसे नहीं।

इतना ही नहीं, फिल्म में प्रशासन को ऐसे दिखाया गया है, जैसे वह इस त्रासदी की ही प्रतीक्षा कर रही थी, कि कब वह आए और कब वे जनता पर शोषण कर सके।

अनुभव भई, संसार आपकी फिल्मों की तरह ब्लैक एण्ड व्हाइट में नहीं रहता। उसके भी विभिन्न रूप होते हैं।

फिल्म में चित्रित किया गया है कि कैसे अभिजात्य वर्ग को कोई अंतर नहीं पड़ा, जो हुआ है सब मजदूरों के साथ हुआ है। ये कुछ हद तक सत्य है, परंतु यही सत्य नहीं है।

पुलिस से लेकर आम आदमी तक जिस जिस तरह से हुआ, सहायता की गई। यहाँ तक कि दूसरे लहर की भयावहता के बाद भी कई लोग मोर्चे पर डटे रहे। क्या वो दिखाने का साहस है इनमें?

अनुभव सिन्हा, और जेम्स कैमरून में ज़मीन आसमान का अंतर है। वो हर फिल्म में जात पात, धर्म इत्यादि नहीं ठूँसता। नकल में भी अक्ल लगती है, पर छोड़िए, आपसे क्या ही आशा करना?

जो व्यक्ति अपने लाभ के लिए “आर्टिकल 15” में केस के पैरामीटर ही बदल दे, “मुल्क” में हिन्दू आतंकवाद का उल्लेख करे, और “अनेक” में पूर्वोत्तर का ‘निष्पक्ष चित्रण’ करने के नाम पर पूर्वोत्तर को ही स्टीरियोटाइप करे, तो उससे किस स्थिति में नैतिकता की आशा करें?

कुल मिलाकर भीड़ वो टॉर्चर है, जिसे झेलने के लिए एडवांस में आपके पास सेरिडॉन की एक पत्ती और एक बोतल पानी उपलब्ध होना चाहिए। अन्यथा कोविड की त्रासदी का ‘असल चित्रण’ करने के नाम पर जो परोसा गया, उसके आधार पर तो अनुभव सिन्हा पर “मानसिक उत्पीड़न” का केस तो अवश्य बनता है।

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