चुनाव आयोग ने घोषणा भी नहीं की और कांग्रेस और जेडीएस का पत्ता पहले ही कट

ये तो शुरू होते ही खत्म हो गया ....

हाल ही में चुनाव आयोग ने कर्नाटक में आगामी विधानसभा चुनाव की तारीख घोषित कर दी है। चुनाव आयोग के अनुसार कर्नाटक के समस्त क्षेत्रों के विधानसभा चुनाव एक ही फेज में होंगे, और 10 मई को सम्पन्न चुनाव के परिणाम 13 मई तक आ जाएंगे। परंतु इसी के साथ कांग्रेस और जेडीएस, दोनों के लिए एक विकट समस्या उत्पन्न हुई है, जो राज्य में पार्टी के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगाती है।

इस लेख में पढिये कि कैसे कांग्रेस आगामी कर्नाटक विधानसभा चुनाव में अपना ही विध्वंस करने के लिए कमर कस चुकी है, और कैसे JDS का भी कोई भला नहीं होने वाला। तो अविलंब आरंभ करते हैं।

कांग्रेस में फूट?

चुनाव आयोग ने बस अभी कर्नाटक के विधानसभा चुनाव से संबंधित जानकारी साझा की है, और अभी से ही कांग्रेसी खेमे में हलचल मची हुई है। ऐसा क्यों?

असल में भले ही कागज़ी तौर पर भाजपा के लिए राह कठिन है, परंतु कांग्रेस को भी कोई विशेष लाभ नहीं है। कारण है पार्टी की गुटबाज़ी, जो इस समय स्पष्ट तौर पर तीन खेमों में बँटी हुई है।

एक ओर हैं कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्दारमैया, तो दूसरी ओर है पार्टी के वरिष्ठ प्रबंधक एवं “रिज़ॉर्ट किंग” डीके शिवकुमार। तीसरा नाम तनिक अप्रत्याशित है, परंतु इन्हे भी अपना हिस्सा चाहिए, और ये कोई और नहीं, कांग्रेस पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, जो इस समय राहुल गांधी के रुतबे को बचाने के लिए “आकाश पाताल एक कर रहे हैं”।

किसका पलड़ा भारी?

तो प्रश्न ये उठता है : यहाँ पर पलड़ा किसका भारी है? यह समझ पाना तनिक विकट है, क्योंकि सभी गुट एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं, लेकिन इसमें निर्णायक विजेता कोई नहीं निकल पा रहा।

सर्वप्रथम आते हैं सिद्दारमैया पर।

ये कहने को कर्नाटक में कांग्रेस के सबसे प्रबल दावेदार हैं, और क्षेत्रवाद के बहुत बड़े प्रणेता भी। इन्ही के नेतृत्व में 2013 में कांग्रेस ने चुनाव जीते थे, और इन्ही के नेतृत्व में कांग्रेस ने सत्ता बनाए रखने के लिए 2018 में जनता दल [सेक्युलर] के साथ संधि कर एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमन्त्री बनाया, ठीक वैसे ही, जैसे 21 वर्ष पूर्व भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस ने कई अन्य दलों के साथ मिलकर इनके पिता, एच डी देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाया था, वो अलग बात कि दोनों ही व्यक्ति अपने अपने पद पर 2 वर्ष भी नहीं टिक पाए।

अब रही बात जेडीएस की, तो उनके पास क्षेत्रवाद के अलावा कोई कार्ड नहीं है। जाति के इक्वैशन पे इनका परफ़ॉर्मेंस लगभग निल बट्टा सन्नाटा रहा है।

2018 में जितनी भी उन्होंने मेहनत की थी, उन सब पर पानी फेरते हुए 2019 में भाजपा ने लोकसभा चुनाव में रिकॉर्ड तोड़ परफ़ॉर्मेंस दी थी।

2014 के 17 सीटों की तुलना में भाजपा ने 2019 में लगभग सूपड़ा साफ करते हुए 51.38% के वोट शेयर के साथ 25 सीट प्राप्त किये।

परंतु इस समय सिद्दारमैया के साथ विकट समस्या है। सर्वप्रथम पार्टी के सबसे प्रभावी नेता होने के बाद भी उन्हे कोई भाव नहीं देता, और इन्हे स्वयं ही समझ में नहीं आ रहा कि वे लड़ें तो लड़ें कहाँ से?

प्रारंभ में तो वे अपने पारंपरिक क्षेत्र कोलार से ही लड़ने को उद्यत थे, परंतु फिर जब जनता में इनके प्रति रोष दिखा, तो इन्होंने वरुना क्षेत्र से लड़ने का निर्णय लिया।

परंतु अब सिद्दारमैया को जाने क्या भूत सवार है कि वे कोलार से भी लड़ेंगे और वरुना से भी। कहीं ये दो नावों पर चलने की रणनीति इन्ही को न ले डूबे।

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फिर ऐसे में क्या विकल्प है?

कांग्रेस के लिए इस समय दो नेता सशक्त विकल्प के रूप में सामने आते हैं : डीके शिवकुमार और मल्लिकार्जुन खड़गे। जहां डीके शिवकुमार कर्नाटक के सबसे प्रभावशाली समुदाय वोक्कालिगा के प्रमुख चेहरे हैं, तो वहीं खड़गे अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वाले समुदाय के लिए प्रमुख विकल्प है।

परंतु इनके साथ भी समस्या है। जहां डीके शिवकुमार भ्रष्टाचार संबंधी विभिन्न आरोपों में घिरे हुए हैं, तो वहीं मल्लिकार्जुन खड़गे का दिल्ली प्रवास उनके लिए स्थिति कठिन बना रहा है, और ये छवि बन रही है कि वे “जमीनी तौर पर कर्नाटक से नहीं जुड़ पाएंगे”।

एक और नाम उभरकर सामने आया है : जी परमेश्वर का, जो एक समय कर्नाटक कांग्रेस के सबसे धाकड़ नेताओं में से एक गिने जाते थे, और कुछ समय के लिए कर्नाटक के पूर्व उपमुख्यमंत्री भी रहें है। वे भी नहीं चाहते कि सिद्दारमैया चुनाव में पार्टी की ओर से प्रमुख उम्मीदवार के रूप में उतरे, और ऐसे में इनकी भूमिका देखना दिलचस्प रहेगी।

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क्या होगा कांग्रेस का?

जब 2013 में चुनाव हुए थे, तब कांग्रेस के लिए चुनाव जीतना मानो हाथ की सफाई थी। तब लगभग 37 प्रतिशत के वोट शेयर के साथ कांग्रेस ने सत्ता प्राप्त की थी, और 122 सीटों के साथ उन्हे पूर्ण बहुमत भी मिल था। परंतु 2018 में राज्य का मानो कायापलट हो गया। कांग्रेस का वोट शेयर बढ़ने के बाद भी वह उसे सीटों में नहीं परिवर्तित कर पाई, और उसे मात्र 80 सीटों पर संतोष करना पड़ा।

परंतु जेडीएस के लिए भी स्थिति कोई बेहतर नहीं है, 2018 में जितना वोट प्रतिशत उन्हे मिला था, यानि 18 प्रतिशत से कुछ अधिक, उसका आधा भी इन्हे 2019 में नहीं मिला। इन्हे मात्र 9 प्रतिशत वोट और 1 लोकसभा सीट के साथ संतोष करना पड़ा।

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वैसे भाजपा की स्थिति वर्तमान में बहुत बेहतर नहीं है, परंतु जिस प्रकार से कांग्रेस अपने ही जाल में उलझ रही है, और जेडीएस अपने कूप मंडूक प्रवृत्ति को छोड़ने के लिए तैयार नहीं, उस अनुसार 2023 में असंभव भी संभव हो सकता है, अर्थात वर्षों बाद भाजपा न केवल सत्ता में पुनर्वापसी करेगी, अपितु कांग्रेस और जेडीएस को कहीं का नहीं छोड़ेगी।

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