अपनी ही भूमि वक्फ से छुड़ाने को इलाहाबाद हाईकोर्ट को लगाना पड़ा एडी चोटी का ज़ोर

अब भी समय है, जाग जाएँ!

बचपन में एक कहावत सुनी थी : जाके पाँव न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई, अर्थात जब तक खुद पे न आये, तब तक दूसरों का दर्द नहीं समझ में आता। अब 23 साल बाद अपनी भूमि वापस पाते हुए कहीं न कहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट के वर्तमान पीठ के मन मस्तिष्क में  ये बात  बैठ गई होगी।

इस लेख मे पढे कि कैसे इलाहाबाद हाईकोर्ट को अपनी ही ज़मीन को वक्फ के चंगुल से छुड़ाने के लिए काफी परिश्रम करना पड़ा और कैसे ये न्यायपालिका के लिए एक गंभीर विषय बन रहा है। तो अविलंब आरंभ करते हैं।

मूल विषय

वक्फ बोर्ड दूसरों की भूमि पर किसी गिद्ध दृष्टि डालता है, ये किसी से नहीं छुपा है। परंतु स्थिति ऐसी होगी कि इलाहाबाद हाईकोर्ट को अपनी ही ज़मीन इनके अतिक्रमण से मुक्त कराने हेतु लड़ना पड़े, ये किसी ने नहीं सोचा होगा।

हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट (Allahabad High Court) के एक्सटेंशन कैम्पस में बनी दो मंजिला मस्जिद को गिराए जाने के आदेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को यथावत रखा है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले में किसी तरह की कोई कमी नहीं है। ऐसे में उस फैसले में किसी तरह के दखल दिए जाने की जरूरत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद कमेटी और यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को आदेश दिया है कि वह 3 महीने के अंदर जमीन खाली कर उस पर हुए निर्माण को खुद ही गिरा दें। मस्जिद कमेटी वक्त बोर्ड को निर्माण का मलबा भी खुद ही हटाना होगा।

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इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आदेश दिया है कि अगर मस्जिद कमेटी और वक्त बोर्ड 3 महीने में निर्माण को तोड़कर मलबा नहीं हटाती है तो प्रशासन को यह अधिकार होगा कि वह सुरक्षा के कड़े इंतजामों के बीच बुलडोजर के जरिए निर्माण को तोड़ दे।

हाई कोर्ट में याचिका दाखिल करने वाले वकील अभिषेक शुक्ला ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है तो साथ ही मस्जिद कमेटी के सदस्यों और यहां नमाज पढ़ने वाले लोगों ने कहा है कि वह अदालत के फैसले का पूरी तरह सम्मान करेंगे और आदेश का पालन करेंगे।

इतने वर्ष क्यों लगे?

परंतु प्रश्न तो अब भी व्याप्त है, न्यायपालिका को इतना समय क्यों लगा?

बता दें कि वक्फ बोर्ड द्वारा नियंत्रित इस ढांचे का निर्माण एक सरकारी पट्टे की भूमि पर किया गया था, जिसका अनुदान 2002 में रद्द कर दिया गया था। 2004 में, भूमि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पक्ष में वापस ले ली गई थी। 2012 में, सुप्रीम कोर्ट ने भूमि को फिर से शुरू करने का आदेश दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ताओं का परिसर पर कोई कानूनी अधिकार नहीं है। गौरतलब है कि हाईकोर्ट के जिस आदेश के खिलाफ शीर्ष अदालत में याचिका दायर की गई थी, वह अधिवक्ता अभिषेक शुक्ला द्वारा दायर जनहित याचिका में पारित किया गया था।

 

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परंतु हाथ में आई वस्तु को क्या वक्फ इतनी आसानी से जाने देगा?

जी नहि बिल्कुल नहि. तो आ गए इनके बचाव में कपिल सिब्बल, जिन्होंने ये तर्क दिये कि मस्जिद कमेटी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल पेश हुए। उन्होंने तर्क दिया कि मस्जिद 1950 के दशक से वहां थी और एक वैकल्पिक साइट के लिए कहा। उन्होंने कहा, “2017 में सरकार बदली और सब कुछ बदल गया। नई सरकार बनने के दस दिन बाद एक जनहित याचिका दायर की गई थी। जब तक वे हमें देते हैं, हमें वैकल्पिक स्थान पर जाने में कोई समस्या नहीं है।

 

यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने तर्क दिया कि मस्जिद निजी तौर पर बनाई गई थी, लेकिन बाद में इसे जनता को समर्पित कर दिया गया और वक्फ बोर्ड के साथ पंजीकृत किया गया, इस प्रकार वक्फ संपत्ति बन गई। इसके विपरीत, सिब्बल ने इस तर्क से खुद को अलग कर लिया कि यह एक वक्फ मस्जिद थी।

अब भी समय है

परंतु हाईकोर्ट ने हार नहीं मानी। उच्च न्यायालय की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने इस मामले को धोखाधड़ी बताते हुए कहा, “दो बार नवीनीकरण के आवेदन आए थे, और इस बात की कोई कानाफूसी नहीं थी कि मस्जिद का निर्माण किया गया था, और यह जनता के लिए इस्तेमाल किया गया था। उन्होंने नवीनीकरण की मांग करते हुए कहा कि यह आवासीय उद्देश्यों के लिए आवश्यक है। केवल यह तथ्य कि वे नमाज़ पढ़ रहे हैं, इसे मस्जिद नहीं बना देंगे। अगर सुविधा के लिए सुप्रीम कोर्ट के बरामदे या हाईकोर्ट के बरामदे में नमाज की अनुमति दी जाती है, तो यह मस्जिद नहीं बन जाएगा।”

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इसी आधार पर खंडपीठ ने कहा कि अगर तीन महीने की अवधि के भीतर निर्माण नहीं हटाया जाता है, तो अधिकारियों को इसे हटाने या गिराने की अनुमति होगी। अदालत ने याचिकाकर्ताओं को पास की एक वैकल्पिक भूमि के लिए यूपी सरकार को एक प्रतिनिधित्व करने की भी अनुमति दी, जिस पर राज्य विचार कर सकता है कि क्या कानून अनुमति देता है और विचार कर रहा है कि वर्तमान में या भविष्य में किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि की आवश्यकता नहीं है।

अब इस निर्णय से दो बातें स्पष्ट होती है। एक तो ये कि वक्फ बोर्ड के लालच की कोई सीमा नहि, और दूसरा, जब ये न्यायपालिका को नहीं छोड़ रहे, तो फिर आम आदमी की क्या हस्ती? ऐसे में अब भी समय है, न्यायपालिका को सचेत होकर इन कट्टरपंथी तत्वों के विरुद्ध कड़ाएक्शन लेना ही नहीं होगा, अन्यथा फिर न्याय का नहीं, अराजकता का राज होगा।

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