“हम अच्छा माँ है, बुरा माँ है, पता नहीं, पर माँ, माँ हूँ सर”
क्या हो अगर आपके नन्हे मुन्हे संतानों को कोई अचानक से उठाकर ले जाए, और आप ही को दोषी ठहरा दे? क्या हो, अगर आपकी संस्कृति किसी की आँखों में इतनी खटकने लगे, कि वह आपकी संतानों को ही निशाना बना दे। हम नहीं जानते कि सागरिका चक्रवर्ती के ऊपर उस समय क्या बीती होंगी, पर Mrs Chatterjee vs Norway ने कम से कम उनकी दुविधा को चित्रित करने के नाम पर निराश नहीं किया।
इस लेख में पढिये कैसे “Mrs Chatterjee vs Norway” फिल्म ने एक संवेदनशील मुद्द पर सराहनीय चित्रण किया है।
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कथा क्या है?
कथा प्रारंभ होती है नॉर्वे में, जहां देबीका चैटर्जी अपने अभियंता पति, अनिरुद्ध और अपने बच्चों, शुभ और शुचि के साथ रहती है। एक दिन अचानक कुछ स्थानीय समाजसेवी उनके दोनों बच्चों को उठाकर ले जाते हैं। उन्हे बाद में समझ में आता है कि उनके बच्चों को राजकीय फ़ॉस्टर केयर में झूठे आरोपों पर डाल दिया गया, और अपनी बात रखने के लिए देबीका के पास कोई माध्यम नहीं है।
परंतु देबीका की समस्या यहीं पर खत्म नहीं होती। एक ओर नॉर्वे का प्रशासन ये सिद्ध करने में जुटा है कि कैसे देबीका का लालन पालन उनके संस्कृति के विरुद्ध है, तो दूसरी ओर अनिरुद्ध को केवल अपने नागरिकता की चिंता है।
कैसे देबीका अपने बच्चों के लिए समस्त नॉर्वे से भिड़ने को तैयार है, और क्या देबीका अपने प्रयासों में सफल होती है, “Mrs Chatterjee vs Norway” इसी के इर्दगिर्द घूमती है।
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एक संवेदनशील विषय पर सराहनीय प्रयास
जब इस फिल्म का ट्रेलर आया, तो उत्साह भी था और चिंता भी। उत्साह इस बात का कि एक महत्वपूर्ण विषय, और सांस्कृतिक मतभेद पर ऐसी फिल्म आ रही थी, और चिंता इसकी कि कहीं ये मूल विषय से भटक न जाए।
परंतु “Mrs Chatterjee vs Norway” में ऐसा कुछ नहीं था। प्रारंभ से ही ये मूल विषय को डॉक्यूड्रामा बनाए बिना एक मार्मिक चित्रण देती है। जिस फिल्म का नॉर्वे प्रशासन ये कहते हुए खंडन करे कि केस को निपटा दिया गया था, ऐसे में बाकी सब कल्पना है, तो कुछ तो बात होगी।
चलिए, एक बार को नॉर्वे प्रशासन की आपत्ति मान लेते हैं, परंतु ऐसी स्थिति में मूल किरदारों को 3 वर्ष क्यों लगे न्याय पाने में?
इतना ही सशक्त व्यवस्था थी, तो भारतीय संस्कृति की आम दिनचर्या के कुछ वस्तुओं, जैसे हाथ से खाना खिलाना, बच्चों को साथ लेके सोना, इस पर किस बात की आपत्ति?
इस केस में कुछ ऐसे आरोप लगाए थे, जिसे सुनकर ही आप कहोगे : ऐसे लोग सच में होते हैं?
चक्रवर्ती परिवार के बच्चों को इसलिए फ़ॉस्टर केयर को सौंप दिया गया, क्योंकि बच्चों को टीका लगाया जाता था, और ये उनके लिए [स्थानीय प्रशासन] “प्रताड़ना समान है”।
परिवार के सिद्धांत पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए इन्होंने ऐसे काल्पनिक मान्यताएँ निर्मित की गई, जिन्हे देखकर आप भी अपना माथा पीट लें। ऐसे में बिना आग के तो धुआँ नहीं निकलता।
इस फिल्म से लगभग 4 वर्ष बाद रानी मुखर्जी ने वापसी की है, और इसमें कोई दो राय नहीं कि उनके बिना यह फिल्म अधूरी है। इस फिल्म में परिवार को बनाए रखने की जिजीविषा, बच्चों को पाने की ज़िद, और अपने बच्चों के लिए संसार से लड़ने का आत्मविश्वास उन्होंने काफी सफलतापूर्वक दिखाया है।
इस फिल्म से अनिर्बन भट्टाचार्य [जो “गुमनामी” के लिए काफी चर्चित हैं] ने अपना हिन्दी डेब्यू किया, और कम से कम वे असहज नहीं दिखे। जिम सर्भ, नीना गुप्ता और चारु शंकर भी छोटी, परंतु महत्वपूर्ण भूमिकाओं में दिखे हैं।
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फिल्म मास्टरपीस हो सकती, पर….
ये फिल्म अपने आप में एक मास्टरपीस हो सकती थी। इसमें कुछ भी गलत नही था, परंतु कुछ ऐसी जगह है, जहां ये फिल्म तनिक मात खा जाती थी।
ये एक विशुद्ध बहुभाषीय फिल्म है, जहां पर कभी हिन्दी, कभी बांग्ला तो कभी नॉर्वे की स्थानीय भाषा पर भी जोर दिया गया है, परंतु सब के लिए कुछ रेफ्रेन्स पॉइंट या सब टाइटल नहीं।
इसे अगर फिर भी दरकिनार करें, तो देबीका का अपने ससुराल के साथ जो तनाव था, वो एक समय पर मूल विषय से लगभग भटकाने की दिशा में आगे बढ़ रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कहीं ये उपदेश का रूप न ले ले, परंतु कम से कम ऐसा कुछ नहीं हुआ।
कुल मिलाकर “Mrs Chatterjee Vs Norway” एक अच्छी फिल्म है, जिसे आप कुछ कारणों के लिए अवश्य सिनेमा हॉल में जाकर देख सकते हैं। ये परफेक्ट फिल्म तो बिल्कुल नहीं है, परंतु कुछ कथित समाजसेवियों की फिल्मों की भांति आपको सोने पर विवश भी नहीं करती।
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