एक बार नुसरत फतेह अली खान ने बॉलीवुड गीतों को उनकी गीतों से “प्रेरित” होने पर उपहास उड़ाते हुए कहा था कि इन्हे मूल गीत कॉपी करने के अलावा कुछ नहीं आता। इन्हे “कॉपीवुड” कहना चाहिए।
अब कुछ हद तक वे गलत भी नहीं थे, परंतु ऐसा दावा तभी करना चाहिए, जब आप स्वयं एक उत्कृष्ट कलाकार हो, अथवा आपकी रचनाओं पर कोई संदेह न कर सके, और नुसरत फतेह अली खान दोनों श्रेणियों में से कहीं खड़े नहीं उतरते।
इस लेख में पढ़िए कैसे कि कैसे एक कर्णप्रिय भजन को बड़ी ही चतुराई से नुसरत फतेह अली खान ने अपना बनाया, और साथ ही साथ उसके मूल जड़ों को समाप्त करने का भी कुत्सित प्रयास किया। तो अविलंब आरंभ करते हैं।
नुसरत फतेह अली खान के कव्वाली के कई प्रशंसक आज भी भारत में उपस्थित है। परंतु क्या आपको पता है कि इन्होंने मीराबाई के एक लोकप्रिय भजन को न केवल कव्वाली में परिवर्तित किया, अपितु उसके मूल रचयिता से भी अलग करने का प्रयास किया?
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मीराबाई मेवाड़ के उत्कृष्ट कलाकारों में से एक थी
अब जो मीराबाई को नहीं जानते, उनका ईश्वर हि भला करे। अपने कृष्णभक्ति के लिए सुप्रसिद्ध मीराबाई मेवाड़ के सबसे उत्कृष्ट कलाकारों में से एक थी। उनके भजनो के निश्छल प्रेम को आज भी भारतवर्ष नमन करती है।
इन्ही भजनों में से एक था “साँसों की माला में सिमरूँ मैं”, जिसके अनेक रूपांतरण हो चुके हैं, और इन्ही में से एक है नुसरत फतेह अली खान का वो गीत, जो इसी भजन से बना था।
कहते हैं कि जब ऋषि कपूर का विवाह हो रहा था, तो राज कपूर ने नुसरत फतेह अली खान को समारोह में आमंत्रित किया था, और इसी समारोह में “साँसों की माला” का सर्वप्रथम लाइव परफ़ॉर्मेंस दिया।
इस गीत को 1979 में रिकॉर्ड किया गया था। [विशेष साभार यूट्यूबर साहिल चंदेल को, जिन्होंने अपने चैनल के माध्यम से इन तथ्यों से अवगत कराया]
तो इसमें क्या समस्या है? एक पाकिस्तानी संगीतज्ञ ने इस गीत को गाया, क्या यह अपराध है?
बिल्कुल नहीं, परंतु किसी गीत से प्रेरित होना एक बात है, और उसका अस्थि पंजर करना दूसरी। मूल भजन में श्रीकृष्ण और प्रभु श्रीराम के गुणगान में कई छंद थे, परंतु उन छंदों को बड़ी ही सफाई से हटवा दिया गया। इस गीत से ऐसा प्रतीत हुआ मानो भजन नहीं कोई कव्वाली है। परंतु बात यहीं तक सीमित नहीं रही।
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चलिए, भजन को कव्वाली बना दिया, वो भी एक बार को अनदेखा करते। परंतु गीत के पूर्व जो प्रस्तावना या आलाप का मंचन इन्होंने किया, उसने अलग ही मोड़ ले लिया।
बता दें।इस गीत से अमीर खुसरो का दूर दूर तक कोई नाता नहीं था, परंतु उसका भी उल्लेख ऐसे किया गया, जिससे ये भ्रम फैलने लगा कि इस गीत की रचना मीराबाई ने नहीं, अमीर खुसरो ने की।
यह वो समय था, जब नुसरत ने संगीत के क्षेत्र में बस कदम रखा था, परंतु इस छल की ओर शायद ही किसी भारतीय ने ध्यान दिया होगा।
वामपंथी और कट्टरपंथी के गठजोड़
आप शायद समझ रहे होंगे कि कैसे वामपंथी और कट्टरपंथी के गठजोड़ ने भारत के इतिहास को तोड़ने मरोड़ने की व्यवस्था की थी?
दूसरी की रचना को तोड़-मोड़ कर पेश करने वाले नुसरत फतेह अली खान के तेवर तो देखिए।कि बॉलीवुड द्वारा कुछ गीतों से “प्रेरणा” लेने पर बॉलीवुड को। “कॉपीवुड” की उपाधि दे दी।
पर छोड़िए हम नैतिकता की आशा भी किस्से कर रहे हैं? उस नुसरत फतेह अली खान से, जिनके लिए गैर मुस्लिम यानि काफिर के साथ बैठना भी पाप है?
कुछ माह पूर्व नुसरत फतेह अली खान का एक गीत वायरल हुआ था, जिसके बोल कुछ इस प्रकार थे:
“कुछ तो सोचो मुसलमान हो तुम,
काफिरों को न घर में बैठाओ”
ये वही नुसरत फतेह अली खान हैं, जिनका परिवार जालंधर में बसा हुआ था और जिनके गीतों को आज भी भारत देश के युवा गुनगुनाते हुए दिखाई देते हैं, चाहे वह ‘मेरे रश्के कमर’ हो, ‘तेरे बिन नहीं लगदा’ हो, ‘नित खैर मंगा हो, ‘मेरा पिया घर आया हो या ‘दूल्हे का सेहरा हो।
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अगर आपको याद हो तो वर्षों पहले एक चलचित्र “सरफ़रोश” में गुलफाम हसन के माध्यम से भारत को चेतावनी मिली थी कि सीमा के उस पार से कलाकार के नाम पर चंदन पर लिपटे भुजंग समान लोग इस देश में पधारते हैं जो खाएंगे यहां का पर गाएंगे सदैव उन्हीं का जो भारत का और मानवता का अहित चाहेंगे।
नुसरत फतेह अली खान भी ऐसे ही एक भुजंग थे, जिन्होंने हमारी ही रचनाओं का दुरुपयोग किया, और बाद में हम ही लोगों को हीन सिद्ध करने के अनेक प्रयास भी किये।
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