भारतीय सिनेमा में संभावित संघर्ष: दो संस्कृतियों में भिड़ंत

परिणाम जो भी हो, वामपंथी कलाकारों का पतन निश्चित!

Source: womensrepublic.net

परिवर्तन ही संसार का शाश्वत सत्य है। यही बात सिनेमा पर भी लागू होती है। जिस प्रकार से हमें फिल्मांकन में बदलाव देखने को मिल रहा है, शीघ्र ही वो समय भी आएगा जब भारतीय सिनेमा के क्षेत्र में युद्ध होगा। परंतु ये युद्ध वैचारिक होगा, और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण भी होगा।

इस लेख में पढ़िए उन तथ्यों से, जिनके आधार पर ये स्पष्ट होता है कि शीघ्र ही भारतीय सिनेमा वैचारिक युद्ध का साक्षी होगा, वो भी परिवार तोड़ने वालों और परिवार जोड़ने वालों के बीच।

फिल्मों के नाम पर एंजेडा नही चलेगा

2022 में एक बात तो स्पष्ट हो गई : भारतीय सिनेमा के नाम पर आप जो भी परोसो, परंतु जनता पर आप अपने विचार नही थोप सकते हो. उद्योग कोई भी हो, यदि आप मनोरंजन के नाम पर एजेंडा, विशेषकर वामपंथ ठूँसना चाहोगे, तो आप मुंह की ही  खाओगे।

अब आप कहोगे कि ये कैसे हो सकता है? ज़्यादा समय भी बस दो फिल्मों पर प्रकाश दालने कि जरूरत है। एक है लव रंजन की हाल ही में प्रदर्शित “तू झूठी मैं मक्कार”, तो दूसरी है “भीड़”, जो शीघ्र ही सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी । दोनों ही आधुनिक समय के गतिविधियों को लेकर बनी है, और दोनों ही बड़े बैनर के अंतर्गत आई हैं। परंतु एक ने लगभग अंत तक अपने संदेश को जगज़ाहिर नहीं होने दिया, और एक तो ट्रेलर की झलकी से चीख चीखकर बता रहा है कि इनका एजेंडा क्या है?

इसका तात्पर्य? तात्पर्य यह कि फिल्म के नाम पर जो एजेंडावाद परोसा जाता था, उसका समय अब समाप्त हो रहे हैं।

हो सकता है आपको “पठान” के कथित सफलता देखकर ये मज़ाक लगे, परंतु बिना आग के धुआँ नहीं निकलता।

और बेहतर समझने के लिये पिछले वर्ष के दो फिल्म इस बात को और अच्छे से स्पष्ट कर सकते हैं। एक तरफ थी आनंद एल राय की “रक्षा बंधन”, जो कहने को तो एक ‘मर्मस्पर्शी कथा’ थी, परंतु उसमें भी कई बार कथा से ध्यान भटकाकर उपदेश देने पर फ़िल्मकारों ने ध्यान दिया।

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भारतीय संस्कृति का मूल हो फिल्मों में

दूसरी तरफ उसी से एक सप्ताह पूर्व आई थी “सीता रामम”। कहने को ये एक प्रेम कथा थी, परंतु इसमें संस्कृति को तोड़ने और उसपर प्रश्न उठाने पे नहीं, अपितु अपनी संस्कृति के गुण दिखाने पर ध्यान अधिक केंद्रित था। रामायण के कुछ तत्व भी इस फिल्म में उपस्थित थे, और वर्षों बाद किसी प्रेम कथा को देखकर आप कह सकते थे, “ये तो सपरिवार देखने योग्य है”।

परंतु ये गुण केवल किसी एक उद्योग तक सीमित नहीं। OTT पर ही देख लें, तो “कौन प्रवीण तांबे” जैसे फिल्मों ने ये संदेश दिया कि हर उद्देश्य की पूर्ति में आवश्यक नहीं कि परिवार बाधक हो। भले ही “जर्सी” का हिन्दी संस्करण मूल फिल्म की भांति बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुआ, परंतु उसने भी ये बताया कि परिवार का महत्व क्या होता है जीवन में। यहाँ तक कि “विक्रम” जैसी एक्शन पैक्ड फिल्म में भी परिवार के महत्व को दर्शाया गया।

यहाँ तो चाहे नायक विक्रम हो या खलनायक संधानम, दोनों का मूल उद्देश्य एक ही था : परिवार पर आंच नहीं आनी चाहिए। “कैथी” से पूर्व विगत कुछ वर्षों में कितनी तमिल फिल्मों में ये बात दोहराई गई है?

वहीं, जिनका उद्देश्य परिवार तोड़ना है, उनकी विचारधारा से प्रेरित फिल्मों के क्या हाल हैं? कुछ नहीं, बस बॉलीवुड के पिछले वर्ष के रिपोर्ट कार्ड पर दृष्टि डाल लीजिए। जितनी भी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर औसत से ऊपर प्रदर्शन की हैं, उनमें से एक भी ऐसी फिल्म नहीं, जिसमें वामपंथी विचारधारा को बढ़ावा दिया गया हो, या फिर परिवार के मूल सिद्धांतों पर कटाक्ष किया गया हो।

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यहाँ तक कि “गंगूबाई काठियावाड़ी”, “जुग जुग जीयों” जैसी एजेंडावादी सौ सौ करोड़ कमाकर भी मुंह की खाई है, और अभी तो हमने “ब्रह्मास्त्र” के वर्ल्ड रिकॉर्ड प्रदर्शन पर प्रकाश भी नहीं डाला है।

व्यक्तिवाद बनाम परिवारवाद की इस भिड़ंत में किस प्रकार से हमारी भारतीय संस्कृति को पुनः बढ़ावा दिया जा रहा है, इसका सबसे बड़ा साक्षी तो पिछले वर्ष प्रदर्शित दो फिल्में रही है, एस एस राजामौली द्वारा निर्देशित “RRR” एवं अभिषेक पाठक द्वारा निर्देशित “दृश्यम 2” ।

दोनों के कलेक्शन में बहुत अंतर था, परंतु दोनों में एक बात समान थी : परिवार या संस्कृति के लिए अपना सर्वस्व लुटाने से नहीं चूकना है। अब तो स्थिति यह है कि RRR ने कई मानक और अपेक्षाओं को धता बताते हुए देश विदेश में अपनी धाक जमाई है, और यदि सब कुछ ठीक रहा, तो शायद सर्वश्रेष्ठ मौलिक गीत का प्रथम ‘स्वदेशी ऑस्कर  भी भारत आ सकता

ऐसे में इतना तो स्पष्ट है कि यदि स्थिति यथावत रही, तो जल्द ही भारतीय सिनेमा एक भीषण युद्ध का साक्षी होगा : जिसमें एक तरफ होंगे समाज एवं भारतीय संस्कृति को तोड़ने वाले वामपंथी, और दूसरी तरफ होंगे समाज और संस्कृति जोड़ने वाले सांस्कृतिक राष्ट्रवादी। इस युद्ध में कौन विजयी होगा, ये समय के गर्भ में है, परंतु एक बात तो स्पष्ट है : हमारी संस्कृति झुकने वाली नहीं।

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