द नाइट मैनेजर: एक व्यक्ति पैसों का भूखा है और वह अपनी भूख मिटाने के लिए आयुध के व्यापार को अपना मार्ग बनाता है। उसे भ्रम हो जाता है कि उसे कोई परास्त नहीं कर सकता, लेकिन तभी उसका पाला एक कर्मचारी से पड़ता। धीरे-धीरे दोनों के संबंध विश्वास के शिखर तक पहुंच जाते हैं और दोनों की घनिष्ठता बढ़ने लगती है। परंतु क्या वो कर्मचारी उस व्यक्ति का हित चाहता है? बस, यही कहानी है द नाइट मैनेजर की, लेकिन ऐसी पटकथा के लिए तो “CAT” और “मुखबिर” ही पर्याप्त हैं, फिर द नाइट मैनेजर बनी ही क्यों?
कमियों का भंडार है “द नाइट मैनेजर”
कल्पना कीजिए कि आप एक अति सम्पन्न रेस्टोरेंट में जाते हैं, और वहाँ आप एक बढ़िया भारतीय डिश ऑर्डर करते हैं, जिसमें मसाला, सब्ज़ी, अन्न इत्यादि सब प्रचुर मात्रा में हो। संक्षेप में कहें तो उस डिश का एक कौर खाते ही आपके अंदर से वाह का स्वर गूंज जाए परंतु यदि अगली बार आपको उसी डिश के नाम पर उबली सब्ज़ियों का शोरबा परोस दिया जाए और साथ में बेक्ड बीन्स, जिनमें ना कोई नमक की मात्रा हो और ना ही स्वादिष्ट मसाले का गुण, इसके बाद भी उसे यदि खाना ही पड़े- यह ससोचकर ही मन झल्ला-सा जाता है। वेबसीरीज़ “द नाइट मैनेजर” का हिन्दी संस्करण ऐसी ही डिश के समान है। जो 17 फरवरी को हॉटस्टार पर स्ट्रीम हुई और जिसका दूसरा भाग जून के आसपास प्रदर्शित होगा ।
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जॉन ले केर् ने एक पुस्तक लिख, द नाइट मैनेजर- इस पुस्तक पर आधारित 7 वर्ष पूर्व बीबीसी ने एक वेबसीरीज़ बनाई, जिसमें ह्यूज लौरी और टॉम हिडिलस्टन ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाई थी, शस्त्रों की अवैध तस्करी पर केंद्रित इस वेबसीरीज़ को उस वक्त बड़ी सफलता मिली थी, अब इसी का भारतीय संस्करण बना है। परंतु वो कहते हैं ना कि नकल के लिए भी अक्ल की आवश्यकता होनी चाहिए, जिसकी प्रचुर कमी इस बेवीसीरज़ के भारतीय संस्करण में दिखती है।
“द नाइट मैनेजर” के हिन्दी संस्करण में कहने को अनेक गलतियाँ निकाली जा सकती हैं, परंतु इसकी तीन गलतियाँ ऐसी हैं, जो छुपाये नहीं छुपती। सबसे पहले ये सीरीज़ अपने मूल आधार यानि बेसिक्स पर ही मात खा जाती है। कहने को ये फिल्म एक क्राइम थ्रिलर है, पर रोमांच ढूँढने के लिए शायद आपको माइक्रोस्कोप का सहारा लेना पड़े। मजे की बात तो ये है कि, इस सीरीज़ के निर्माताओं में से प्रीटी ज़िंटा भी एक हैं।
लेकिन प्रश्न यह है कि ऐसे कमबैक कौन करता है?
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कास्टिंग से कहानी तक की समस्या
अब किसी भी प्रोजेक्ट या वेबसीरीज़ के लिए सबसे महत्वपूर्ण होती है उसकी कास्टिंग। कल्पना कीजिए कि “विक्रम” में कमल हासन के रोल में तन्मय भट्ट होते, या फिर हाल ही में प्रदर्शित “फ़र्जी” में शाहिद कपूर के बजाए शाहरुख खान होते, तो क्या उन रोल में वही बात, वही कसावट होती, जो मूल अभिनेताओं ने दिखाई थी?
परंतु “द नाइट मैनेजर” में यही हुआ है। भारतीय संस्करण में अनिल कपूर और आदित्य रॉय कपूर प्रमुख भूमिकाओं में हैं। अब दोनों कोई बहुत निकृष्ट अभिनेता नहीं है, परंतु टॉमी शेल्बी और सुल्तान कुरैशी की भांति “Death Stare” देना ही यदि अभिनय का पैरामीटर होता तो फिर आदित्य रॉय कपूर को क्यों लिया? सीधा अर्जुन कपूर को लेते, क्योंकि इनसे एक्सप्रेशन निकलवाना भी एक कला है।
और अनिल कपूर? इनके किरदार शैली रुंगटा को देखकर मुझे बस यही लगा कि यह कहीं देखा हुआ तो नहीं है? कल्पना कीजिए फर्जी के “मंसूर बिलाल” की और उसमें वेलकम के मजनू भाई का तड़का लगाइए, आपका शैली रुंगटा तैयार! हम मज़ाक नहीं कर रहे हैं, अनिल कपूर का कैरेक्टर स्केच ऐसा ही है, जहां आप बस यही सोचते रह जाओगे कि हंसी कैसे कंट्रोल करें।
और आदित्य रॉय कपूर, इन्हे हुआ क्या है? कलंक में जब इन्होंने देव चौधरी के रूप में अपने अभिनय से चौंकाया था तो लोगों को लगा कि एक दमदार अभिनेता है, जो बस गलत स्क्रिप्ट और भाग्य का मारा है। परंतु अगर लूडो के अपवाद को छोड़ दें, तो ये विचार एक छलावा ही रहा है। विश्वास नहीं होता तो “सड़क 2” और “राष्ट्रकवच ओम” में इनके अभिनय को देख लीजिए।
अब आते हैं इस सीरीज़ की कथा पर। कहने को इस सीरीज़ को और क्रिस्प बनाने के लिए इसे 4 एपिसोड तक सीमित कर दिया, जबकि मूल सीरीज़ में 6 एपिसोड थे, परंतु यहाँ सीरीज़ देखने के बाद सबसे प्रथम विचार आपके मन में यही आएगा : कोई सेंस है इस सीरीज़ में? अब ये “तांडव” और “बेताल” के लेवल वाली वेबसीरीज़ तो बिल्कुल नहीं है, परंतु इसे मास्टरपीस कहने वाले शायद अभी भी पोगो पर “छोटा भीम” चाव से देखते होंगे।
ऐसा इसलिए क्योंकि इस सीरीज़ के प्रथम दो एपिसोड में जितनी भी आपको रुचि थी, वह तीसरा एपिसोड आते आते अचानक से धड़ाम हो जाएगी, और चौथे एपिसोड तक आपको लगेगा कि इस शो में कुछ बचा भी है।
अब सुष्मिता सेन की वेब सीरीज़ “आर्या” कोई बहुत बड़ी मास्टरपीस नहीं थी , परंतु कम से कम “द नाइट मैनेजर” की भांति आपके दिमाग का दही तो नहीं करती।
वो तो भला मानिए कि अपने ओरिजिनल बॉब बिस्वास यानि शाश्वत चटर्जी जैसे कलाकार भी यहाँ उपस्थित थे, जिन्होंने कुछ हद तक इस शो को बांधने का प्रयास किया, पर अकेला चना क्या भाड़ फोड़ता? कुल मिलाकर “द नाइट मैनेजर” वो अंग्रेज़ी पकवान समान है, जिसकी चर्चा बहुत होती है, परंतु जिसके स्वाद को लेकर जितनी कम चर्चा हो, उतना ही अच्छा।
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