विगत कुछ माह से “बॉयकॉट बॉलीवुड” आंदोलन ने एक अलग राह पकड़ ली है। कुछ इसे तवे पर पानी के छींटे समान मानते हैं, तो कुछ इसे अपने जीवन का उद्देश्य। परंतु अभय देओल के इस विषय पर कुछ अनोखे विचार हैं, जिन्हे जान आप भी इनके प्रशंसक बन जाएंगे।
इस लेख में पढिये कि कैसे अभय देओल ने “बॉयकॉट बॉलीवुड” के पीछे के उद्देश्य का एक तार्किक विश्लेषण किया है, और जनता को सही राह दिखाने का प्रयास किया है।
बॉयकॉट बॉलीवुड: समय के साथ बदलना आवश्यक है
हाल ही में “बॉयकॉट बॉलीवुड” पर तरह तरह के विचार देखने और सुनने को मिले है। ऐसे में जब अभय देओल से इस विषय पर पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि विरोध के पीछे दो प्रकार के लोग होते हैं।
इनके अनुसार, “टेक्नोलॉजी ने ज्ञान का प्रसार तो बहुत बढ़िया किया है, परंतु दुर्भाग्यवश इससे भ्रामक जानकारी भी उतनी ही जल्दी फैलती है। ये एक मिक्स्ड बैग है। आज कुछ लोग होंगे, जो [फिल्म] उद्योग को इसलिए आड़े हाथ लेते हैं, क्योंकि वे समय के साथ नहीं बदलते। जिन्हे सच में बदलाव चाहिए, उनका विरोध तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए, और उनके साथ मैं भी हूँ। सिनेमा की एक यूनिवर्सल भाषा है, जिससे हम लोग नहीं जुड़े हैं, क्योंकि हम अपने कूप मंडूक मानसिकता से बाहर ही नहीं निकल पाए हैं”।
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फर्जी विरोध अच्छा नहीं
पर जहां उन्होंने उचित विरोध करने वालों का साथ दिया, अभय देओल ने ये भी बताया कि अंध विरोध को बिल्कुल भी बढ़ावा नहीं देना चाहिए। उनके अनुसार, “कुछ फिल्में ऐसी भी होती है, जिन्हे आप पसंद करो न करो, पर उनकी एक ऑडियंस है। इसके लिए आप पूरे उद्योग को नहीं बदनाम कर सकते। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनका एक विशिष्ट एजेंडा होता है, ताकि उनके निजी हित पूरे हो सके। विचारधारा जो भी हो, ये कैंसल कल्चर का एक भाग है, और मैं इसे बिल्कुल बढ़ावा नहीं दे सकता!”
परंतु वे इतने पर नहीं रुके। उन्होंने आगे कहा, “कुछ लोग गजब के विरोधी होते हैं। वे कहते हैं कि उन्हे ये फिल्म पसंद नहीं है, पर वे उसका टिकट भी खरीदेंगे, उस फिल्म को देखेंगे भी, और उसे अपशब्द भी कहेंगे। आप फिर किसे लाभ पहुंचा रहे हो?”
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बॉलीवुड के विनाश से कथा खत्म नहीं होंगी
सच पूछें, तो अभय देओल के इस तर्क का कोई जवाब नहीं। निस्संदेह बॉलीवुड कोई दूध का धुला नहीं है। कॉन्टेन्ट से इनका उतना ही नाता है, जिनका आम आदमी पार्टी का आम आदमी कि इच्छाओं से। इसके अतिरिक्त इनका अपना एजेंडा भी है, जिसकी पूर्ति हेतु ये किसी भी हद तक जा सकते हैं।
परंतु इसके कारण अगर बॉलीवुड में कुछ अच्छा भी हो रहा है, तो क्या उसका भी विरोध आवश्यक है? इस प्रश्न का उत्तर शायद ही किसी के पास होगा। अगर सेक्रेड गेम्स, Leila जैसे शो हैं, तो फिर पंचायत, फर्जी, जुबिली जैसे शो भी हैं। अगर पठान जैसी फिल्में है, तो फिर दृश्यम 2, चुप जैसी फिल्में भी हैं, अगर केवल बॉलीवुड की बात करें तो। अंतर इस बात से पड़ता है कि आप किस प्रकार के प्रोजेक्ट पसंद करते हो, और इसी बात को अभय देओल ने सरलता से समझाने का प्रयास भी किया है।
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