दूध का दरिया है और डूब के जाना है, हाय रे पागल कांग्रेसी!

ऐसे जीतेंगे कर्नाटक

कहीं सुने थे, “ये इश्क नहीं आसान, बस इतना समझ लीजिए, इक आग का दरिया है और डूबके जाना है”। परंतु शायरी का ओवरडोज़ चढ़ाए काँग्रेसियों ने इसका अलग ही वर्जन निकाला है। फरमाते हैं, “ये चुनाव नहीं आसान, बस इतना समझ लीजिए, दूध का दरिया है और डूबते ही जाना है”।

इस लेख में पढिये कांग्रेस के नई चुनावी अस्त्र को, और कैसे इससे इस पार्टी का कर्नाटक में बुरी तरह पिटना तय है।

समस्या क्या है?

हवा से बातें करने और हवा से लड़ने में अंतर होता है। परंतु ये बात कोई तनिक काँग्रेसियों को बता दे। राई का पहाड़ बनाना कांग्रेस पार्टी से बेहतर कोई नहीं जानता और कर्नाटक में इन्होंने पुनः वही किया है। वो कैसे? असल में केंद्र सरकार ने प्रस्ताव दिया कि गुजरात की विश्वप्रसिद्ध डेरी सहकारिता कंपनी अमूल अब कर्नाटक में भी अपने उत्पादन को बढ़ावा देगी।

तो इसमें समस्या क्या है? समस्या ये है कि कोई समस्या ही नहीं है। कांग्रेस ये भ्रम फैला रही है कि अमूल के आने से कर्नाटक की स्थानीय सहकारिता डेरी, नंदिनी खतरे में आ जाएगी, और इसके चलते कांग्रेस ने अमूल के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है, जिसमें पूर्व सीएम सिद्दारमैया, कांग्रेस के प्रमुख नेता डीके शिवकुमार सहित कई सदस्य भाग ले रहे हैं। इनका ध्येय स्पष्ट है : अमूल को कर्नाटक में घुसने नहीं देना है।

क्यों नहीं घुसने देना है? क्योंकि वह गुजरात की है, और मोदी समर्थक है!

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ये कैसा नेतृत्व?

कुछ दिनों पूर्व जब कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने राहुल गांधी के प्रकोप से बचाने और स्थानीय विषयों पर अधिक फोकस देने के लिए पार्टी हाइकमान से गुहार लगाई, तो लगा : कितनी दयनीय स्थिति है इन लोगों की। बेकार ही भावुक हो रहे थे, क्योंकि अगर स्थानीय विषय ऐसे हैं, तो फिर तो ये चुनाव जीतने का ख्याल भूल ही जाए।

यही लोग रोते हैं कि केंद्र सरकार समर्थक कंपनियों का एकछत्र राज चलता है, और सभी उद्योगों एवं क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा मांगते हैं, और जब सरकार में उस दिशा में कार्यरत दिखती है, तो यही लोग “स्थानीय मुद्दों” का हवाला देकर इसपे रोक लगाते हैं। आखिर चाहते क्या हो भाई?

इन काँग्रेसियों की कुछ डिमांड अगर आप सुन लें, तो आप अपने भीतर के उदय शेट्टी को कंट्रोल करने के लिए उत्सुक प्रतीत होंगे। उदाहरण के लिए अमित शाह के उस बयान, जहां पर उन्होंने कहा कि अमूल और नंदिनी को साथ आना चाहिए, को कांग्रेस प्रचारित कर रही है कि इससे 26 लाख किसानों की रोजी रोटी खतरे में आ जाएगी।

परंतु उस ट्वीट में वे ये बताना भूल गए कि कैसे अमूल पहले से ही उत्तरी कर्नाटक में 2015 से सक्रिय है, और वह बस अपने ऑपरेशन का विस्तार करना चाहती है। स्वयं नंदिनी डेरी ने भी महाराष्ट्र में कई आउट्लेट खोले हैं।

अगर कर्नाटक कांग्रेस वाला लॉजिक महाराष्ट्र प्रशासन लागू करने लगे, तो?

इसके अतिरिक्त सहयोग और हस्तांतरण यानि टेकओवर में अंतर होता है। जो चीज़ न हुई, न जिसके होने के आसार है, उस पर पूरे राज्य को अराजकता की आग में झोंकना कहाँ की समझदारी है?

परंतु आपको क्या लगता है, यह पहली बार है? कुछ ही हफ्तों पूर्व एक कंपनी द्वारा दही का नाम हिन्दी में क्या प्रकाशित हुआ, उसके पीछे कांग्रेस ने तमिलनाडु से लेकर कर्नाटक तक में उत्पात मचाने में कोई प्रयास अधूरा नहीं छोड़ा। हां वो अलग बात है कि इस आग को लगाने की शुरुआत एम के स्टालिन ने की थी।

आश्चर्यजनक रूप से तमिलनाडु की भाजपा इकाई ने भी हिन्दी में दही का नाम अंकित होने का विरोध किया, परंतु वह कांग्रेस के शोर में कहीं छुप सा गया।

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रहने दो कांग्रेस, आपके बस की नहीं….

और वैसे भी, नंदिनी डेरी की चिंता किसको हो रही है? उस कांग्रेस को, जिसके पूर्व मुख्यमंत्री खुलेआम गौमाँस के पीछे लालायित रहते हैं? अभी तो हमने काँग्रेस के नेतृत्व संकट पर प्रकाश भी नहीं डाला है, अन्यथा जो लोग अपनी पार्टी नहीं संभाल पा रहे हैं, वो कृपया राज्य को “भाजपा के प्रकोप” से बचाने पर उपदेश न ही दे।

बता दें कि स्थिति भाजपा के पक्ष में अधिक नहीं है, परंतु इसके बाद भी कांग्रेस इस स्थिति में बिल्कुल नहीं है कि वह निर्विरोध रूप से वर्तमान विधानसभा चुनावों में विजयी सिद्ध हो सके।

सिद्दारमैया के चुनाव लड़ने पर ही संशय है, डीके शिवकुमार आपराधिक कार्रवाई का सामना कर रहे हैं, मल्लिकार्जुन खड़गे का “दिल्ली कनेक्शन” ही उनके आड़े आ रहा है, और जी परमेश्वर कर्नाटका राज्य की राजनीति में कोई खास प्रभाव बनाते नही दिख रहे.

इसके अतिरिक्त विगत कुछ वर्षों में CAA और किसान आंदोलन के नाम पर काँग्रेसियों ने उपद्रवियों को किस प्रकार बढ़ावा दिया है, ये भी किसी से नहीं छुपा है। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि दूध और दही की यह फर्जी लड़ाई कांग्रेस को कहीं का नहीं छोड़ने वाली।

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