एक फिल्म को सफल बनाने के लिए क्या क्या चाहिए? दमदार संवाद, चौकस कथा, और प्रभावी परफ़ॉर्मेंस। ये बात पैन इंडिया अथवा बहुभाषीय फिल्मों के लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, और अगर कोई फिल्म इन पैमानों पर खरी नहीं उतरती, तो समस्या अवश्य होंगी। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि जनता ही मूर्ख है, जैसे “पोन्नियन सेल्वन 1” के कार्ति शिवकुमार मानते हैं।
इस लेख में पढिये कि कैसे पोन्नियन सेल्वन 1 की असफलता का ठीकरा उत्तर भारतियों पे फोड़ा जा रहा है.
“हिन्दी ऑडियंस के पल्ले नहीं पड़ी”
“अंगूर खट्टे हैं” को कार्ति शिवकुमार अलग ही लेवल पर ले गए हैं। मणि रत्नम द्वारा निर्देशित “पोन्नियन सेल्वन 1” की चर्चा तो बहुत हुई थी, परंतु अन्य केंद्रों की भांति वह हिन्दी मार्केट में औसत प्रदर्शन ही कर पाई। जल्द ही इस फिल्म का दूसरा संस्करण सम्पूर्ण भारत में विभिन्न भाषाओं में 28 अप्रैल को प्रदर्शित होने वाली है, परंतु हिन्दीभाषी क्षेत्र तो छोड़िए, बाकी देश में भी इस फिल्म के लिए कोई विशेष उत्सुकता नहीं दिखाई पड़ती।
इसी विषय पर बात करते हुए कार्ति शिवकुमार ने कहा, “मुझे लगता है कि नॉर्थ इंडियन ऑडियंस को यह फिल्म (पोन्नियन सेल्वन 1) समझ में नहीं आई थी। मैंने OTT पर भी इसकी प्रतिक्रिया देखी, तो मुझे लगा कि वहाँ की जनता ने इसे बेहतर समझा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हमारे दूसरे संस्करण को पहले से बेहतर प्रतिक्रिया मिलेगी”।
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मजाक समझा है?
अच्छा भैया, मान लिया कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों का टेस्ट खराब है, तो फिर “विक्रम”, “कैथी” जैसी फिल्में कैसे चर्चा में रही? ये तो वही बात हुई, नाच न जाने, आँगन टेढ़ा। फिल्में तो “कान्तारा”, “रॉकेट्री”, “KGF”, “RRR” जैसी भी प्रदर्शित हुई है, परंतु उनपे तो जनता ने बेहिसाब प्रेम लुटाया।
पता है क्यों? क्योंकि बात को सीधे सीधे बोलने और घुमा फिरा के बोलने में अंतर होता है। अगर मणि रत्नम के एजेंडावाद को अलग भी रख दे, तो “पोन्नियन सेल्वन” को देखकर दो बातें स्पष्ट होती है : न तो ये चोल साम्राज्य के गौरव के साथ सम्पूर्ण न्याय करती है, और न ही इससे सब लोग अपने आप को जोड़ पाएंगे। इसको देखते ही सबसे प्रथम प्रतिक्रिया यही आती है, “अरे कहना क्या चाहते हो?” अभी तो हमने “कैथी” पर उत्तर भारतीय सिनेमा प्रेमियों की प्रतिक्रिया पर प्रकाश भी नहीं डाला है, अन्यथा कार्ति को पता चल जाता कि उसने किससे पंगा मोल लिया है।
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तमिल फ़िल्मकारों को थोड़ा परिपक्व होना पड़ेगा
इन सब से क्या पता चलता है? इतना तो स्पष्ट है कि अन्य उद्योगों की तुलना में तमिल फिल्म उद्योग आज भी Superiority Complex से ग्रसित है, यानि हम ही हम है, बाकी सब पानी कम है। इनके मसालेदार फिल्मों में भी ऐसी भावना रखी जाती है, मानो उत्तर के सिनेमा प्रेमी तो भट्टगंवार है, उन्हे सिनेमा के बारे में कुछ नहीं पता।
लेकिन अब जनता पहले जैसी नहीं रही। जब अपने ही उद्योग के रद्दी उत्पादों को कौड़ी का भाव नहीं देती, तो सोने का वर्क चढ़ाए हुए अन्य उद्योगों के रद्दी उत्पादों को भला क्यों हाथ लगाया जाए? जो फिल्में विगत कुछ माह में सम्पूर्ण भारत, विशेषकर हिन्दी मार्केटस में धूम मचा रहे हैं, उन सबमें एक बात समान है, चेन्नई का वेलु हो या गोरखपुर का रामलखन, सब उक्त कहानियों से कहीं न कहीं कनेक्ट कर सकते हैं, और कुछ नहीं तो उन्हे मनोरंजन भरपूर मिलता है।
लेकिन अगर लोकेश कनागराज जैसे कुछ फिल्मकार छोड़ दें, तो तमिलनाडु में फिल्में बुद्धिजीवियों के दृष्टिकोण से अधिक बनाई जाती है। कभी कभी उन विषयों को भी जानबूझकर जटिल बना देते हैं, जिनकी आवश्यकता थी ही नहीं। अभी तो हमने “जय भीम” जैसे फिल्मों पर प्रकाश भी नहीं डाला है, और परिणामस्वरूप फिल्म न घर की रहती और न ही घाट की!
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