न्यायपालिका और कार्यपालिका यानि सरकार में तनातनी किसी से नहीं छुपा है। संविधान की आड़ में कुछ जज सरकार की स्वायत्ता को चुनौती देने से भी बाज़ नहीं आते। परंतु जब अपने ही उनकी पोल खोलें, तो? सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जे चेलामेश्वर ने यही किया है।
इस लेख में पढिये जस्टिस जे चेलामेश्वर के बयानों को, और कैसे उन्होंने न्यायपालिका को आत्मवलोकन करने पर विवश किया है।
बात आती है कार्यक्षमता पे
इन दिनों न्यायाधीश लोकतंत्र की अवस्था के नाम पर कुछ ज्यादा ही चिंतित दिखाई देते हैं। काम हो न हो, जनता को न्याय मिले न मिले, परंतु “न्यायपालिका की स्वायत्ता” को कुछ नहीं ही होना चाहिए। इसी पर जस्टिस जे चेलामेश्वर ने अलग रुख अपनाया है।
बातों ही बातों में जस्टिस चेलामेश्वर ने ये सिद्ध किया कि क्यों कभी कभी न्यायाधीशों को अपनी क्षमता पे भी ध्यान देना चाहिए, और सब कुछ सरकार के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए। उनके अनुसार,
“बात सारी कार्यक्षमता पे आती है। आप लोग माने या नहीं, परंतु किसी निर्णय पे आने में इतना समय नहीं लगता, जितना कुछ जज जानबूझकर लगाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो उन्हे केस में कोई रुचि नहीं है, और इन कुछ जजों के कारण हमारा संस्थान बदनाम होता है” ।
"Some judges are inefficient"~ Justice Chelameswar.
Justice Chelameswar was the only dissent voice in NJAC judgement. He had called it transparent and constitutional. pic.twitter.com/IRCBjEyRKM
— Facts (@BefittingFacts) April 12, 2023
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जस्टिस चेलामेश्वर गलत नहीं….
जी हाँ, आपने बिल्कुल ठीक सुना। काफी समय बाद सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश ने इस बात को स्वीकारा है कि किस भांति कुछ केस वर्षों तक लंबित पड़े रहते हैं, चाहे सभी साक्ष्य याची के पक्ष में ही क्यों न हो। ज्यादा दिनों की बात नहीं है, कुछ दिनों पूर्व एक व्यक्ति, जो सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता था, वह न्याय की आस लगाए मृत्युलोक पहुँच गया। तो इसमें चिंताजनक बात क्या है? असल में जो याचिकाकर्ता था, वो 108 वर्ष का था, और उसने 1968 में ये मुकदमा दायर किया था, जिसपर अब जाके सुनवाई सुनिश्चित हुई।
परंतु जस्टिस चेलामेश्वर की कथा इतने तक सीमित नहीं है। जब NJAC के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश न्यायाधीशों ने मोर्चा खोला था, तो अंतिम निर्णय में केवल जस्टिस चेलामेश्वर थे, जिन्होंने NJAC को न्यायसम्मत एवं संवैधानिक बताया, और उन्हे इस कमेटी के गठन से तनिक भी आपत्ति नहीं थी। जस्टिस चेलामेश्वर ने 2018 में सेवानिर्वृत्ति ली थी।
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जब तक स्वयं नहीं सुधरेंगे….
परंतु जस्टिस चेलामेश्वर इतने पे नहीं रुके। उन्होंने बातों ही बातों में कॉलेजियम व्यवस्था पर भी प्रश्न उठाया और कहा कि यदि जज ही न्याय देने को इच्छुक न दिखे, तो फिर कैसे चलेगा? उनका संकेत अप्रत्यक्ष रूप से उन न्यायाधीशों की ओर था, जो अपने काम को छोड़कर बाकी समस्त मुद्द पर ज्ञान देते रहते हैं।
ज़्यादा समय की बात नहीं है, जब उदय उमेश ललित सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख न्यायाधीश थे, तो उन्होंने भी अप्रत्यक्ष रूप से न्यायिक व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन की आवाज़ उठाई थी। उन्होंने अपना स्वयं का उदाहरण देते हुए बताया था कि कैसे न्यायपालिका में एक अलग ही प्रकार का “वंशवाद” चल रहा है। ये इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि विगत कुछ माह से सुप्रीम कोर्ट की वर्तमान पीठ ऐसे निर्णय ले रही है, जो न्याय के विषय पर उनकी प्रतिबद्धता पे प्रश्न उठा रही है।
चाहे नूपुर शर्मा प्रकरण पे अनर्गल प्रलाप करना हो, या फिर आईआईटी बॉम्बे में दर्शन सोलंकी की आत्महत्या को अनावश्यक तूल देना हो, सुप्रीम कोर्ट कई कारणों से आलोचना के घेरे में है, और अभी तो हमने मोहम्मद ज़ुबैर को जिस प्रकार से साक्ष्य होने के बाद भी जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ द्वारा रिहा किया गया, पर चर्चा हि नही किया.
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जब से सरकार बनाम न्यायपालिका का मुद्दा उठा है, तब से कई बार संविधान के नाम पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को ही चुनौती दी जाती है। कोई विरोध करे, तो उसे “न्यायपालिका के लिए खतरा” बता दो। इस लॉजिक से क्या जस्टिस जे चेलामेश्वर भी “न्यायपालिका के लिए खतरा” हैं?
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