वर्ष था 2008। अमेरिका से परमाणु समझौते से रुष्ट वामपंथी दलों ने यूपीए को समर्थन देने से मना कर दिया, और अविश्वास प्रस्ताव सामने आया। ऐसा लग रहा था कि मनमोहन सिंह की सरकार अब गिरेगी कि तब गिरेगी। तभी समाजवादी पार्टी ने “राष्ट्रहित” में स्पष्ट तौर पर कांग्रेस को समर्थन दिया, और वह सत्ता में बनी रही। परंतु क्या सपा में अचानक से हृदय परिवर्तन हुआ? बिल्कुल नहीं, इसकी एक बहुत भारी कीमत उत्तर प्रदेश की जनता को चुकानी पड़ी। इस लेख में पढिये उस निर्णय के बारे में, जिसके कारण अतीक अहमद पुनः सक्रिय हुए, और जिसका दुष्परिणाम कई वर्षों तक यूपी की जनता ने भुगता।
जब यूपीए पर आया संकट
2004 में अपेक्षाओं के विपरीत कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सत्ता में आई थी। उसमें वामपंथी दलों ने भी सहयोग दिया था। परंतु 2008 के आसपास, जब ये सुनिश्चित हुआ कि भारत और अमेरिका एक महत्वपूर्ण समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे, तो स्वभाव अनुसार वामपंथी दलों ने अपना असली रूप दिखाते हुए इस डील का विरोध किया, और अविलंब समर्थन वापिस लेने का निर्णय किया।
ये यूपीए के लिए किसी झटके से कम नहीं था, क्योंकि वामपंथी दल के पास 43 सीट थे, और उन्हे हटाकर यूपीए के पास कुछ 228 सांसद बच रहे थे। परंतु इसके बाद वो हुआ, जो किसी ने सोचा नहीं थे। मुलायम सिंह यादव ने अविलंब यूपीए को समर्थन दिया, और उस समय अपने 36 सांसदों का समर्थन भी प्रदान कराया। परिणामस्वरूप, समाजवादी पार्टी बच गई, और यूपीए ने 2009 में अप्रत्याशित रूप से पुनः सत्ता प्राप्त की।
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सपा का वो दांव, जिसे आज भी क्षमा नहीं किया जा सकता
अब आपको लग रहा होगा, इन सब में अतीक अहमद का क्या काम? माफिया अतीक अहमद लगातार 5 बार इलाहाबाद पश्चिम से विधायक रहा है। 1989, 1991, 1993, 1996 और 2002 – वो 5 बार जीत कर लगातार 15 वर्षों तक विधायक बना रहा।
पहले 3 बार उसने बतौर निर्दलीय और फिर समाजवादी पार्टी और उसके बाद ‘अपना दल’ के टिकट पर चुनाव लड़ा। 2004 के लोकसभा चुनाव में उसने फूलपुर से बतौर सपा प्रत्याशी जीत दर्ज की। इसी साल केंद्र में UPA की सरकार भी बनी।
जब 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते से खफा होकर वामपंथी दलों ने यूपीए से समर्थन वापस ले लिया था। ऐसे समय में मुलायम सिंह यादव की सपा ने 36 सांसदों के साथ UPA की सरकार बचाई थी। राजेश सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ‘BAAHUBALIS OF INDIAN POLITICS: From Bullet to Ballot’ में इस संबंध में एक खुलासा है।
इसमें बताया गया है कि अतीक अहमद समेत 6 अपराधी सांसदों को तब 48 घंटे के भीतर रिहा कर दिया गया था, ताकि वो वोट देकर संप्रग की सरकार बना सकें। ये वो समय था जब अतीक अहमद का आतंक सर्वत्र था, और 2005 में इसने विधायक राजू पाल की हत्या भी कारवाई थी। परंतु सत्ता में बनाए रखने हेतु सपा ने यूपीए को इन्हे जेल से निकलवाने के लिए विवस किया, और अतीक अहमद ने जेल से निकल कर UPA सरकार के पक्ष में संसद में वोट डाला था। उस समय UPA के 228 सदस्य थे और उसे 44 सांसदों की ज़रूरत थी। सपा के अलावा रालोद और जेडीएस ने भी तब कॉन्ग्रेस का समर्थन किया था।
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काम सपा का, परिणाम भुगते यूपी
अब अतीक अहमद के जेल से बाहर होने का एक ही अर्थ था : पूर्वांचल में पुनः जंगल राज का लौटना, और हुआ भी वही। 2012 तक इनकी सक्रियता कुछ खास नहीं थी, परंतु जैसे ही 2012 में समाजवादी पार्टी पुनः सत्ता में आई, अखिलेश यादव ने अतीक पर विशेष कृपा बरसाई। भले ही राजनीतिक विवशता के कारण इन्हे सार्वजनिक तौर पर चुनाव में नहीं उतारा गया, परंतु व्यवस्था ऐसी थी कि अगर अखिलेश 2017 में पुनः सत्ता में आते, तो वर्तमान में तेजस्वी प्रशासन की भांति ये भी कानून को तोड़ मरोड़ देते, ताकि अतीक जैसे लोग सत्ता के माध्यम से इनका “कार्य” जारी रखे। अभी जब योगी प्रशासन में उमेश पाल की हत्या हुई है, तो सोचिए जब सत्ता इनके हाथ में होती, तो अतीक क्या क्या करते….
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