कर्नाटक चुनाव परिणाम : यही समय है आत्ममंथन का!

2024 का चुनाव हुआ और रोचक!

कर्नाटक चुनाव के परिणाम आ चुके हैं, और कई दिनों के बाद काँग्रेसियों के पास मुस्कुराने का एक कारण है। एक के बाद एक चुनाव हारने के बाद और किसी भांति हिमाचल में सरकार बनाने के बाद अब कांग्रेस कर्नाटक के बल पर उछल सकता है। परंतु कांग्रेस से अधिक इस चुनाव से भाजपा के लिए बहुत कुछ सीखने को है।

2023 के कर्नाटक चुनावों में सब कुछ देखने को मिला है: क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता, गुटबाज़ी और न जाने क्या क्या। 224 सीटों पर अपना वर्चस्व जमाने हेतु कांग्रेस, भाजपा और जनता दल [सेक्युलर] ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। परंतु परिणाम निकलने के बाद इतना तो स्पष्ट हो गया : इस बार कांग्रेस का सिक्का चल गया।

“कांग्रेस की नैतिक विजय”

कुछ भी कहिए, परंतु कांग्रेस ने अपना प्रभाव अवश्य जमाया है। बहुमत से तनिक आगे इन्होंने 125 सीटों से अधिक पर बढ़त बनाई है, और अगर ये 130 से ऊपर जाते हैं, तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि इन्होंने शहरी से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ावा बनाई है।

परंतु यहाँ से खेल प्रारंभ होता है, क्योंकि सीएम पद के लिए एक नहीं, दो दावेदार है। डीके शिवकुमार ने पहले ही अपने क्षेत्र से पूर्ण बहुमत से विजय प्राप्त की है। वहीं दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्री सिद्दारमैया भी अपनी दावेदारी अलग पेश कर रहे हैं। ऐसे में देखना रोचक होगा कि विजेता कौन होता है।

न घर की रही न घाट की रही जेडीएस

वहीं दूसरी ओर जनता दल [सेक्युलर] ने इस बार मुंह की खाई है। पिछली बार 40 सीट होते हुए भी सीएम पद प्राप्त करने वाली इस पार्टी को अगर 20 सीटें भी मिल जाए तो बहुत बड़ी बात हो जाएगी। परंतु बात यहाँ से प्रारंभ होती है, क्योंकि कुमारस्वामी और उनके परिवार को भी इस चुनाव में काफी नुकसान हुआ है। अपने ही क्षेत्र हासन के चन्नापटना क्षेत्र से इन्हे अपनी सीट बचाने के लाले पड़ गए, तो वहीं इनके बेटे निखिल अपना सीट ही हार गए।

अब तनिक समय का चक्र घुमाकर 2018 की ओर जाइए। विश्वास कीजिए, ये वही पार्टी है, जो भाजपा और कांग्रेस से कम सीटें होने के बाद भी सीएम की कुर्सी हथियाने में सफल रही थी। अगर परिणाम में थोड़ी हेर फेर रहती, तो पुनः किंगमेकर बनते, परंतु अब इनके राजनीतिक अस्तित्व पर ही इस चुनाव ने प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं।

“बोम्मई कोई येदयुरप्पा नहीं”

इस चुनाव से एक बात और सिद्ध हो गई। जैसे हर चमकती चीज सोना नहीं सिद्ध होती, वैसे ही बसावराज बोम्मई येदयुरप्पा के आस पास भी नहीं ठहरे। कर्नाटक में लगभग सब कुछ सही था, सिवा सशक्त नेतृत्व के। स्थानीय नेतृत्व भी एक वस्तु होती है, ये राज्य के हाइकमान को पता ही नहीं था।

वो कैसे? जब क्षेत्रवाद को अपना हथियार बना कांग्रेसी नेताओं ने धावा बोला, तो बोम्मई महोदय बगलें झाँकते दिखाई दिए। अब कांग्रेस ने लाख जितने प्रपंच फैलाए हों, इन्होंने एक काम ठीक किया : स्थानीय मुद्दों पर अड़े रहे! पहली बार राहुल गांधी का मैजिक फेल हो गया, क्योंकि स्थानीय नेताओं का होमवर्क चौकस था! ऊपर से बोम्मई की अपरिपकवता भाजपा के लिए कोढ़ में खाज समान बनती जा रही थी।

कुल मिलाकर क्षेत्रवाद का अपना प्रभाव होता है, और ये परिणामों में भी झलका है। अगर ऐसा नहीं होता, तो वास्तव में कांग्रेस और भाजपा में दमदार टक्कर देखने को मिलती। केवल आक्रामक हिन्दुत्व से कुछ नहीं होगा, अगर साथ में सामाजिक उन्मूलन, आर्थिक प्रगति न दिखाई दे। यही बात एक अलग तरह से उत्तर प्रदेश के नगरपालिका चुनाव में सिद्ध भी हुए। तो भाजपा से एक सविनय निवेदन है : ये आत्ममंथन का समय है, इसे चुनौती नहीं, सही समय पर मिली सही सीख समझकर सोचिए!

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