कल “The Kerala Story” को Ban किया, आज दीदी और कम्युनिस्ट फूफाजी पर केस हो गया!

अभी तो खेल शुरू भयो है!

The Kerala story ban: अगर किसी आम दर्शक से आप कुछ समय पूर्व कहते कि “द केरल स्टोरी” एक हफ्ते से भी कम के अंतराल में ब्लॉकबस्टर होने वाली है, तो सर्वप्रथम रिएक्शन यही आता, “बंधु, मज़ाक की भी लिमिट होती है!” परंतु भारतीय जनता के मन को टटोलना बड़ा कठिन है। जिस प्रकार दिन प्रतिदिन ये फिल्म नोट पे नोट छाप रही है, उसने इस फिल्म की छवि को मलिन करने वालों के विरुद्ध फिल्म के रचनाकारों को और अधिक आक्रामक होने का बल दिया है।

The Kerala story ban: ऐसी पब्लिसिटी तो सपने में भी नहीं सोची.

सच कहें तो ये सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई कि ‘द केरला स्टोरी’ दिन का उजाला न देख पाए। सेंसर बोर्ड की मंजूरी के बाद भी [10 कट्स के साथ], अभी भी कुछ प्रचंड बुद्धिजीवी हैं जो सोचते हैं कि फिल्म आजीवन प्रतिबंध के लायक है, और उन्होंने एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।

हालाँकि, उन्हे अब जोर का झटका लगने वाला है। इसका प्रारंभ तभी हो गया, जब तमिलनाडु ने अनौपचारिक रूप से “कानून व्यवस्था ” का हवाला देते हुए रिलीज को रोक दिया है, Bengal ने आधिकारिक तौर पर किसी भी स्थान पर फिल्म की स्क्रीनिंग पर प्रतिबंध (The Kerala story ban) लगा दिया है। अब इसी बात को हाथों हाथ लेते हुए “द केरल स्टोरी” के रचनाकारों ने दोनों राज्यों के प्रशासन को न्यायालय तक घसीटा है।

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निर्माता एव सहलेखक विपुल अमृतलाल शाह के अनुसार ऐसे यूं ही कोई फिल्म पर प्रतिबंध (The Kerala story ban) नहीं लगा सकता, वो भी तब जब सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही क्लीन चिट दे दी हो। मजे की बात, प्रतिबंध प्रेमी गैंग से पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म के रचनाकारों की अपील सुनने का निर्णय लिया है। यानि 12 मई को पहले फिल्म पर अनावश्यक प्रतिबंध के विरुद्ध याचिका सुनी जाएगी, और वो तय करेगा कि 15 मई को सुप्रीम कोर्ट में फिल्म के प्रतिबंध के पक्ष में नौटंकी करने वालों की सुनी जाएगी या नहीं।

“द केरल स्टोरी” के पक्ष में वैधानिक तथ्य

बहुत से लोग यह नहीं जानते होंगे, और वामपंथी बिरादरी में से अधिकतम इसे पचा नहीं पाएंगे, परंतु एक से अधिक कारक हैं जो निर्माताओं के मामले को पहले से अधिक मजबूत बनाते हैं। प्रथम, स्वयं सुप्रीम कोर्ट की पीठ के शब्दों में, जब किसी फिल्म को सेंसर बोर्ड ने ही हरी झंडी दे दी है, तो सुप्रीम कोर्ट की इसमें कोई विशेष भूमिका नहीं रह जाती है। इसके अलावा, एक अदालत का मामला केवल बयानबाजी के आधार पर नहीं चलाया जा सकता है, उन्हे प्रमाण चाहिए।
ऐसे में कानून और व्यवस्था को बिगाड़ने वाली फिल्म के संबंध में प्रतिबंध की मांग करने वाले लोगों के पास किस तरह के प्रमाण हैं? इसी परिप्रेक्ष्य में विपुल अमृताल शाह ने कहा,
“अगर कोई राज्य सरकार या कोई निजी व्यक्ति फिल्म को रोकने की कोशिश करेगा, तो हम हर संभव कानूनी रास्ता अपनाएंगे। तमिलनाडु में, एक व्यक्ति ने धमकी क्या दी, सरकार को रिलीज रोकने के लिए मजबूर किया गया”
विपुल ने आगे कहा, “हमारे पीएम ने इस फिल्म के बारे में बात की है। अन्य महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों ने फिल्म के बारे में बात की है और इस विषय को राष्ट्रीय महत्व के विषय के रूप में प्रस्तुत किया है। कुछ लोगों ने समर्थन किया तो कुछ ने विरोध किया। अब राष्ट्रीय स्तर पर इसे कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता, जो हमारे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है”।

ये तो बस प्रारंभ है

इसके अतिरिक्त सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व में भी ऐसे केस हैंडल किये हैं। मजे की बात, इसमें भी विपक्ष में ममता सरकार ही थी। 2019 में बंगाली फिल्म “भविष्यतेर भूत” पर ममता बनर्जी के अत्याचारी प्रतिबंध को लतियाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ममता बनर्जी को खूब खरी खोटी सुनाई। ये फिल्म एक राजनीतिक व्यंग्य था, जिसमें कथित तौर पर “ममता सरकार” पर निशाना साधा गया था। वो अलग बात थी कि TMC के पक्ष में एक भी साक्ष्य नहीं था।

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ऐसे में आश्चर्य तो इस बात पर होगा, अगर सुप्रीम कोर्ट वास्तव में इन अराजकतावादियों की हाँ में हाँ मिलाते फिल्म पर प्रतिबंध लगाता है। ये न केवल अव्यावहारिक होगा, अपितु ये सुप्रीम कोर्ट पर “आतंकी समर्थक” होने का टैग भी लगा सकता है, जो इस समय सुप्रीम कोर्ट कतई नहीं चाहेगा। यह न तो सर्वोच्च न्यायालय की वर्तमान पीठ की छवि के लिए अच्छा होगा और न ही राष्ट्रीय हितों के लिए। इसके अलावा, एकमुश्त प्रतिबंध लगाकर, एमके स्टालिन और ममता बनर्जी ने ठीक वही किया है जो निर्माताओं को चाहिए था: फिल्म को इतना महत्वपूर्ण बनाएं कि प्रतिबंध उलटे जनता को फिल्म देखने के लिए लालायित करे!

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