1998 में करण जौहर नाम के एक नए चेहरे वाले निर्देशक के आगमन के साथ भारतीय सिनेमा परिदृश्य हमेशा के लिए बदल गया, जब इनके निर्देशन में एक रोमांटिक चलचित्र, “कुछ कुछ होता है” का अनावरण किया गया। यह एक ऐसा पदार्पण था जिसने न केवल देश की सामूहिक चेतना को आंदोलित किया बल्कि मुख्य रूप से जोहर के नेतृत्व में ग्लैमर और चमक दमक के युग के आगमन को भी चिह्नित किया।
आइए इस लेख में करण जौहर के 25 साल की यात्रा का निरीक्षण करें, और यह भी प्रकाश में लाएं कि कैसे, धूमधाम और चमक दमक के बावजूद, ये एक औसत फिल्मकार से अधिक कुछ नहीं थे।
नेपोटिज्म रॉक्स!
भारतीय सिनेमा के भव्य मंच पर करण जौहर का योगदान निर्विवाद रूप से महत्वपूर्ण है। हालाँकि, उनके मार्ग को अक्सर विरोधाभास के साथ चिह्नित किया गया है। यह वह व्यक्ति है जिसने हाई-स्कूल रोमांस और बड़े पैमाने पर पारिवारिक नाटकों की अवधारणा को बॉलीवुड की मुख्यधारा में पेश किया। दूसरी ओर, वह ऐसे व्यक्ति भी हैं, जो अपार संसाधनों और रचनात्मक स्वतंत्रता के बावजूद, अपने कम्फर्ट ज़ोन से कभी निकले ही नहीं। इन्हे फिल्म जगत का मोहम्मद अज़हरुद्दीन कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
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इस विरोधाभास को 2015 में सूक्ष्मता से उजागर किया गया था जब एसएस राजामौली की महान कृति “बाहुबली” ने बॉलीवुड और क्षेत्रीय सिनेमा की पारंपरिक सीमाओं को तोड़ दिया था। जौहर, जो फिल्म के हिंदी वितरक थे, ने बताया कि वे दूसरे निर्देशकों के प्रशंसा के पुल बांधने में कोई प्रयास अधूरा नहीं छोड़ते, जबकि स्वयं उन्हे कोई भाव नहीं देता। परंतु एक क्षण के लिए सही, जौहर उद्योग और दर्शकों में समान रूप से कई लोगों द्वारा साझा की गई भावना को प्रतिध्वनित करते दिखे – उनकी असली प्रतिभा उनके रणनीतिक कौशल और प्रस्तुति कौशल में निहित थी, न कि गुणवत्तापूर्ण सिनेमा बनाने में।
रणनीति और प्रस्तुति के लिए जौहर की रुचि उनके पूरे करियर में लगातार स्पष्ट रही है। धर्मा प्रोडक्शंस के प्रमुख के रूप में, उन्होंने उल्लेखनीय व्यावसायिक कौशल दिखाया है। इन्हे यूं ही “बॉलीवुड का कॉकरोच” नहीं कहा जाता। उन्होंने फिल्म उद्योग के उथल पुथल मार्ग पर अपने प्रोडक्शन हाउस के जहाज को सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया है, जिसमें भाग्य और प्रभाव दोनों शामिल हैं। हालांकि, जब उनके निर्देशकीय उपक्रमों की बात आती है, तो जितना कम कहा जाए, उतना अच्छा है।
उदाहरण के लिए, उनकी पहली फिल्म “कुछ कुछ होता है” को ही लें। इसमें एक ब्लॉकबस्टर के सभी गुण थे: एक स्टार-स्टडेड कास्ट, फुट-टैपिंग म्यूजिक, उद्धरण योग्य संवाद और भव्य सेट पीस। सूत्र हिट था, और फिल्म ने न केवल बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचाया, बल्कि बॉलीवुड में जोहर की स्थिति को मजबूत करते हुए पुरस्कारों की झड़ी लगा दी। यह पैटर्न उनकी बाद की फिल्मों में भी स्पष्ट था, जिसमें “कभी खुशी कभी गम” भी शामिल है, एक फिल्म जिसने चांदनी चौक, दिल्ली के हलचल वाले क्षेत्र में स्थित एक महल जैसी संरचना का भव्य भ्रम बेचा। लाँग स्टोरी शॉर्ट, भाईसाब ने आधे से अधिक करियर बिना कोई बड़ा दांव खेले निकाल लिया।
नाम बड़े, दर्शन छोटे
परंतु ऐसा भी नहीं है कि करण ने प्रयोग ही नहीं किया। चक्कर ये है कि जो भी प्रयोग किया, सब गुड़गोबर किया। “कभी अलविदा न कहना” और “माई नेम इज खान” से इन्होंने अंदर के स्पीलबर्ग को निकालने का प्रयास किया, परंतु कब्ज वाले मल की भांति ये इनके मस्तिष्क में ही अटक गई। वैसे भी करण मियां देश के लिए फिल्में थोड़े ही बनाते थे। इनकी अपनी एक ऑडियंस थी, और यही इनका सबसे बड़ा गुण और अवगुण दोनों ही सिद्ध हुआ।
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जब महोदय की फिल्मों को आलोचना का भाग बनना पड़ा, तो इन्होंने लुभावने प्रोजेक्ट्स में निवेश करना प्रारंभ किया। इसीलिए ये “बाहुबली” जैसे प्रोजेक्ट से जुड़ पाए। परंतु एक निर्देशक के रूप में ये कभी नहीं निखर पाए। “ए दिल है मुश्किल” लाख आलोचना के बाद भी सफल तो हुई, परंतु इसमें करण जौहर का प्रभाव लगभग नगण्य था। रही सही कसर तो अजय देवगन ने अपनी “शिवाय” के माध्यम से इसके कलेक्शन में सेंध लगा पूरी कर दी।
शायद इसीलिए करण जौहर से एस एस राजामौली ने दूरी बना ली, और “RRR” के वितरण राइट इन्हे बिल्कुल नहीं सौंपे। इसके पीछे कहीं न कहीं सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमयी मृत्यु में इनकी कथित भूमिका का भी हाथ था। अब ये 7 वर्ष बाद पुनः निर्देशक की कुर्सी संभाल रहे हैं, “रॉकी और रानी की प्रेम कहानी” के माध्यम से। परंतु जिस तरह से इनकी फिल्म की रिलीज़ टल रही है, और जिस प्रकार ये “पोंन्नियन सेल्वन” जैसी औसत फिल्म से भिड़ने से भयभीत हुई थी, उससे इस फिल्म के प्रभावशाली होने के आसार कम ही लग रहे हैं। जितना दिमाग इन्होंने शोशेबाज़ी में लगाई, उसका आधा भी अगर ये दमदार फिल्में बनाने में लगाते, तो इनकी गिनती देश के उच्चतम फ़िल्मकारों में होती।
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