“तेरे बाप की” से “लंका की”: प्रयास अच्छा है पर अब कोई फायदा नहीं!

बहुत देर हो चुकी!

देखो भई, ए बात तुम भी जानते और हम भी कि “आदिपुरुष” ने हम सबकी आशाओं पर जबरदस्त पानी फेरा है। “आदिपुरुष” ने जो किया है, उसके पीछे कई लोग इसके पीछे की रचनात्मक टीम के इरादों पर सवाल उठा रहे हैं। फिल्म के संवादों से लेकर इसके एस्थेटिक्स तक मुद्दों को सुधारने की कोशिशें निल बट्टे सन्नाटा। कहने को सुधार किये जाएंगे, और हो भी रहे हैं, परंतु अब उनका कोई लाभ नहीं।

इस लेख में, आइए “आदिपुरुष” से जुड़े विवादों को गहराई से देखें और सार्वजनिक आक्रोश के पीछे के कारणों की जांच करें।

“बहुत देर हो चुकी”

सच कहें तो ऐसा प्रतीत होता है कि “आदिपुरुष” के निर्माता और रचनात्मक टीम उन आलोचनाओं की भयावहता को समझने में विफल रहे हैं जिनका उन्हें सामना करना पड़ा। भारी प्रतिक्रिया और नकारात्मक प्रतिक्रिया के बावजूद ऐसा लगता है कि उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा है, और जे बात मियां मुंतशिर की बकैती से स्पष्ट होती है। टिकट की कीमतों में कटौती के साथ फिल्म को संशोधित करना, समर्थन हासिल करने और फिल्म की प्रतिष्ठा को बचाने के लिए एक अधीर परंतु निरर्थक प्रयास का परिचायक है।

फ़िल्म के समस्याग्रस्त संवादों पर जनता के हंगामे के जवाब में, कुछ संपादन किए गए हैं। फिल्म से जुड़े मनोज मुंतशिर ने पुष्टि की है कि “जली ना, तेरी भी जलेगी” और “कपड़ा तेरे बाप का” जैसी कुछ आपत्तिजनक लाइनें हटा दी गई हैं। हालाँकि, हालाँकि ये संशोधन विशिष्ट चिंताओं को संबोधित कर सकते हैं, लेकिन वे मौजूदा गहरे मुद्दे को संबोधित करने में विफल रहते हैं। जब किसी फिल्म की मूल सामग्री और संदेश मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण होते हैं, तो संवादों में सतही बदलाव उन लाखों लोगों के अपमान और अपमान की पर्याप्त भरपाई नहीं कर सकते हैं जो रामायण को प्रिय मानते हैं।

और पढ़ें: मनोज मुंतशिर शुक्ला, कुछ प्रश्न पूछना चाहता है भारत

राइमिंग और उर्दूकरण : कोढ़ में खाज

भई विश्वास मानो, जो गड़बड़ “आदिपुरुष” में हुए, उसे देख तो एक बार को आपको “गुंडा” जैसे फिल्मों के लिए हृदय से इज्जत बढ़ जाएगी, और ये मज़ाक नहीं है। राइमिंग तो राइमिंग, जिस प्रकार से लेखक ने अनावश्यक उर्दूकरण इस फिल्म का किया है, उसके लिए जितना बोलो मियां मुंतशिर को, उतना काम। अत्यधिक उर्दू का समावेश, जैसे “फिसद्दी,” “बगीचा,” “बाबा,” और “बाप” जैसे शब्दों का उपयोग, प्रासंगिकता और प्रभाव के बारे में चिंताएं पैदा करता है। ऐसे युग में जब रामायण युग के दौरान संस्कृत संभवतः संचार का प्राथमिक माध्यम थी, ये भाषाई विकल्प अशोभनीय और अक्षम्य है, और कथा की प्रामाणिकता को कमजोर करते हैं।

रचनात्मकता और श्रद्धेय महाकाव्यों से जुड़े ऐतिहासिक संदर्भ और भाषाई परंपराओं का सम्मान करने के बीच संतुलन बनाना महत्वपूर्ण है।इतना सब होने के बाद भी “आदिपुरुष” के रचनाकारों ने स्थिति की सुधि नहीं ली है। वो अलग बात है कि उनके प्रयास व्यर्थ हैं। दर्शकों और आम जनता की भारी नकारात्मक प्रतिक्रिया ने यह स्पष्ट कर दिया है कि फिल्म की खामियों और असंवेदनशीलता से होने वाली क्षति को आसानी से ठीक नहीं किया जा सकता है या बचाव नहीं किया जा सकता है।

जिस समय संस्कृत बोलचाल का माध्यम हुआ करता हो, वहाँ “आदिपुरुष” की भाषा न केवल असंगत है, अपितु सम्पूर्ण कथानक अर्थात नेरेटिव के साथ अन्याय भी करती है। ये सत्य है कि संस्कृत में वार्तालाप को समझना कई लोगों के लिए दुष्कर होगा, परंतु जनता इतनी भी जड़मति नहीं कि विशुद्ध हिन्दी को न समझ सके। कुछ नहीं तो सबटाइटल्स ही लगा देते!
परंतु पटकथा के उर्दूकरण ने पूरा खेल बिगाड़ दिया।  जब फिल्म का शीर्षक ही “आदिपुरुष” हो, तो फिर जिस भाषा का उक्त समय में अस्तित्व भी नहीं था, वो कैसे हमारे मूल संस्कृति एवं भाषा से अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है? क्या उर्दू की रचना त्रेता युग से भी पूर्व हुई थी? काश, इतनी बेसिक समझ इस फिल्म के रचनाकारों में होती!

कमियों को स्वीकार करने और सार्थक संवाद में शामिल होने के बजाय, रचनाकारों द्वारा अपनाया गया रक्षात्मक रुख दर्शकों को अलग-थलग कर देता है और मौजूदा विवाद को बढ़ा देता है।

रामायण की विरासत का अपमान

जब रामायण जैसे प्रिय हिंदू महाकाव्य पर केंद्रित कोई फिल्म इसकी विरासत का सम्मान करने में विफल रहती है, तो परिणाम निस्संदेह अच्छे तो नहीं ही होने वाले। रामायण में श्रद्धा रखने वाले लाखों लोगों का अपमान करके “आदिपुरुष” के पीछे की रचनात्मक टीम के इरादों और संवेदनशीलता पर स्वाभाविक तौर पर प्रश्न उठ रहे हैं।

और पढ़ें: मनोज मुंतशिर शुक्ला, कुछ प्रश्न पूछना चाहता है भारत

रामायण के साथ लोगों का सांस्कृतिक और भावनात्मक संबंध बहुत गहरा है, जिससे कोई भी गलत बयानी या अनादर बहुत दुखद हो जाता है। इस फिल्म से होने वाली क्षति महज़ सिनेमाई खामियों तक सीमित नहीं; यह उन लोगों के भावनात्मक ताने-बाने को प्रभावित करता है जो रामायण को प्रिय मानते हैं।”आदिपुरुष” एक ऐसी फिल्म का प्रमुख उदाहरण है जो अपने दर्शकों को समझने और उस सांस्कृतिक विरासत का सम्मान करने में विफल रही जिसे वह चित्रित करना चाहती थी।

समस्याग्रस्त संवादों से लेकर संदिग्ध सौंदर्यशास्त्र तक, फिल्म को बचाने के प्रयास अपर्याप्त रहे हैं। “आदिपुरुष” को लेकर हो रही आलोचनाओं ने निर्माताओं से आत्मनिरीक्षण और जवाबदेही की मांग की है। इस फिल्म से हुए नुकसान को आसानी से भुलाया नहीं जा सकेगा, जो श्रद्धेय कहानियों को देखभाल, सम्मान और गहन शोध के साथ संभालने के महत्व की याद दिलाता है।

TFI का समर्थन करें:

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ‘राइट’ विचारधारा को मजबूती देने के लिए TFI-STORE.COM से बेहतरीन गुणवत्ता के वस्त्र क्रय कर हमारा समर्थन करें।

Exit mobile version