उर्दू पुस्तक को मिला “राष्ट्रभाषा सम्मान” : ये कहाँ आ गए हम?

उर्दू से ये कैसा मोह?

भारत की विविधता से कोई भी अनभिज्ञ नहीं। यूं ही नहीं “दो कोस में बदले पानी चार कोस में बानी” इस देश की विविधता का परिचायक है। परंतु जब एक भाषा को दूसरों की तुलना में अधिक प्राथमिकता मिले, और इसके पीछे कोई ठोस तर्क न हो, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है। ठीक ऐसा ही हुआ जब ‘बैंक ऑफ बड़ौदा राष्ट्रभाषा सम्मान’ 2023 की घोषणा की गई, जिसने काफी विवादों को बढ़ावा दिया है!

भारत के अग्रणी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में से एक बैंक ऑफ बड़ौदा ने हाल ही में ‘बैंक ऑफ बड़ौदा राष्ट्रभाषा सम्मान’ के प्रथम संस्करण के विजेता की घोषणा की। यह पुरस्कार विभिन्न भारतीय भाषाओं और उनके हिंदी अनुवादों में प्रकाशित प्रशंसित उपन्यासों को मनाने और स्वीकार करने के लिए डिज़ाइन किया गया है, और जिसके प्रथम विजेता बने उर्दू उपन्यास ‘अल्लाह मियां का कारखाना‘ के लेखक मोहसिन खान और हिंदी अनुवादक सईद अहमद ने जीता था।

हाँ, ठीक पढे आप। एक उर्दू उपन्यास और उसके हिंदी अनुवाद को ‘राष्ट्रभाषा सम्मान’ से सम्मानित करने के फैसले ने हंगामा खड़ा कर दिया है और यह सही भी है। ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का अनुवाद ‘राष्ट्रीय भाषा’ के रूप में किया गया है, और भारत के संदर्भ में यह अक्सर हिंदी से जुड़ा हुआ है। भले ही यह आधिकारिक राष्ट्रभाषा न हो, लेकिन बाकी राष्ट्रों के साथ हिंदी के संबंध से इंकार नहीं किया जा सकता है। हालांकि, उद्घाटन विजेता के रूप में एक उर्दू उपन्यास को सम्मानित करने के पुरस्कार के फैसले ने इस पुरस्कार के उद्देश्य और दिशा के बारे में सवाल उठाए हैं।

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अब कोई हमें ये बताए कि उर्दू किस एंगल से भारतीय भाषा कहलाये जाने योग्य है? जिसका उपयोग विदेशी आक्रांता अधिक किये हो, जिसके उपयोग से कोई गौरवान्वित न हो, वो कैसे हमारी भाषा हो सकती है, राष्ट्रभाषा तो बहुत दूर की बात रही? परंतु किस्से हम आशा कर रहे हैं, जब ज्यूरी ही उर्दू प्रेमियों से भरी हुई हो। विश्वास न हो तो ज्यूरी के सदस्यों को ही देख लीजिए। एक ओर हैं बुकर पुरस्कार विजेता गीतांजलि श्री, कवि अरुण कमल, अकादेमिक एवं भोज्य आलोचक पुष्पेश पंत, कवियत्री अनामिका एवं साहित्य लेखक प्रभात रंजन।

आलोचकों का मानना है कि एक उर्दू उपन्यास को अन्य पुस्तकों की तुलना में अत्यधिक प्राथमिकता देना उर्दू के प्रति ज्यूरी के पूर्वाग्रह को दर्शाता है। एक धारणा है कि वरीयता कुछ जूरी सदस्यों द्वारा उर्दू के लिए प्रशंसा से उपजी हो सकती है, जो संभावित रूप से अन्य भारतीय भाषाओं के महत्व को कम कर सकती है।

इस प्रवचन को ट्रिगर करने वाले प्रमुख कारकों में से एक जूरी में श्री पुष्पेश पंत की उपस्थिति है, जो एक अकादमिक मुगल संस्कृति की चाटुकारिता से परिपूर्ण पर प्रशंसा के लिए जाने जाते हैं, जिसका उर्दू के साथ एक मजबूत संबंध है। मुगल प्रेम के पीछे इन्हे सोशल मीडिया पर काफी आलोचना का भी सामना करना पड़ा है, और ऐसे में पैनल में उनकी उपस्थिति अनजाने में चयन प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती थी।

इसके अलावा, पुरस्कार की आकर्षक पुरस्कार राशि भी जांच के दायरे में आ गई है। विजेता लेखक और अनुवादक को 21.00 लाख और रु. 15.00 लाख क्रमशः, रुपये के नकद पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वहीं उपविजेता लेखकों को लाख दो लाख रुपयों में ही निपटा दिया गया।

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भारत जैसे देश में, जहां सैकड़ों भाषाएं सह-अस्तित्व में हैं, ‘राष्ट्रभाषा सम्मान’ के विजेता के रूप में एक उर्दू उपन्यास का चयन सही संदेश नहीं भेजता है। जबकि भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने की पहल सराहनीय है, यह सुनिश्चित करने के लिए ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई भी भाषा दूसरों पर हावी न हो।

यह देखते हुए कि यह पुरस्कार का उद्घाटन वर्ष है, बैंक ऑफ बड़ौदा और पुरस्कार की जूरी भविष्य के संस्करणों में उनकी पसंद के निहितार्थ पर विचार करना चाह सकती है। आखिरकार, भारत की ताकत इसकी विविध भाषाई विरासत में निहित है, और ‘राष्ट्रभाषा सम्मान’ का सही सार सभी भारतीय भाषाओं और साहित्य जगत में उनके अद्वितीय योगदान का उत्सव मनाने में है!

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