पिछले ३ दशक भारतीय साहित्यिक जगत हेतु किसी नर्क से कम नहीं!

ये कहाँ आ गए हम?

विश्वास नहीं होता, यह वही भारत है, जहाँ से अर्थशास्त्र, रामायण, महाभारत जैसी कालजयी रचनायें निकली है. ये वो भारत नहीं लगता, जहाँ चंद्रकांता, आवरण जैसी रचनाओं से साहित्यिक जगत को समृद्ध किया गया.

इस लेख में वो कारण जानिये, जिनके पीछे भारतीय साहित्य की छवि पर प्रश्नचिन्ह लग चूका है, और कौन लोग इस नैतिक पतन के प्रमुख दोषी है!

ये कहाँ आ गए हम?

भारत का साहित्य एक असीमित सागर सामान रहा है. जितना गहरा जाओ, उतने ही अकल्पनीय रत्नों की प्राप्ति होती है. परन्तु विगत ३ दशक तो कुछ और ही कथा बताते हैं. वर्तमान रचनाओं और चर्चाओं को देखकर अब किसी को विश्वास नहीं होगा, कि ये वही भारत है, जहाँ महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास जैसे विभूति जन्मे, जहाँ प्रेमचंद और सुब्रह्मण्या भारती जैसे साहित्यकारों ने हमारे साहित्य को समृद्ध किया. ये अंग्रेज़ी और उर्दू की ऐसी खिचड़ी बनी है, जिसमें तड़का और मसाला खूब लगाया, परन्तु खाने योग्य शायद एक कौर भी न हो!

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तो इस पतन के पीछे क्या कारण हैं?

साहित्यिक पतन की इस जटिल टेपेस्ट्री को बनाने में कई कारक एकजुट होते हैं, और यह एक एकल धागा नहीं बल्कि परस्पर जुड़े प्रभावों का एक जाल है। सर्वप्रथम हमारा वर्तमान साहित्य अंग्रेजी ओरिएंटेड अधिक है, यानि जो कुछ भी लिखा या व्यक्त किया जायेगा, सब औपनिवेशक मानसिकता और दृष्टिकोण के अनुसार.

विश्वास न हो तो एक बार उन भारतीयों की रचनात्मकता पर ध्यान दें, जिन्होंने पिछले तीन दशकों में बुकर पुरस्कार जीता है. एक उत्कृष्ट कृति होने की बात भूल जाइए, आप अपने साथ मेरियम वेबस्टर के बिना “द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स” नहीं पढ़ सकते। साहित्य कुछ भी हो, अझेल नहीं होना चाहिए. परन्तु साहित्यकार के भेस में इन “भूरे साहबों” को कौन समझाए?

अब जब चर्चा प्रारम्भ हुई है, तो सोचिये, साइंस फिक्शन में अंतिम बार कौन सी कालजयी कृति आई है भारत से? या फिर गुप्तचर यानी Espionage क्षेत्र से? विविधता को तो मानो हमारे खान मार्किट मण्डली छाप साहित्यकारों ने गटर में बहा दिया है. इससे स्मरण हुआ,  क्या आपने कभी “द व्हाइट टाइगर” नामक उपन्यास को पढ़ने की कोशिश की है? एक भारतीय के लिए रूढ़िवादी रूढ़ियों को एक तरफ रखते हुए, सामाजिक संरचना हमारे समाज पर थोपे गए साम्राज्यवादी एकरसता की ही गंध का प्रतिनिधित्व करती है: दुष्ट पूंजीपति गरीबों का शोषण करते हैं। फिर भी, कुछ लोग इसे भारत का सच्चा, प्रामाणिक प्रतिनिधित्व मानते हैं। “ब्राउन साहब” मानसिकता अभी तक समाप्त नहीं हुई है।

ये हमारा सर्वश्रेष्ठ है?

अच्छा इन सब बातों को छोड़िये, ये बताइये कि भारतीय साहित्य में हमारे प्रतिनिधि कौन है?

चेतन भगत? वह व्यक्ति जो बिना सास बहु स्टाइल तड़के के एक साधारण निबंध भी नहीं लिख सकता। चूंकि वह आईआईटी/आईआईएम से स्नातक है, इसलिए उसने जरूर कुछ समझदार लिखा होगा। बंधु, हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती!

देखिये, लोकप्रियता ही एक पैमाना होती, तो देवदत्त पटनायक कौन सा बुरा है? पर लोकप्रियता भी दो प्रकार की होती है : वास्तविक लोकप्रियता और मिर्च मसाला यानी विवादों / तड़क भड़क के सहारे मिली लोकप्रियता! हालाँकि लोकप्रियता ध्यान आकर्षित कर सकती है, लेकिन जरूरी नहीं कि यह गुणवत्ता के बराबर हो। चेतन भगत जैसे लेखकों ने अपनी व्यापक अपील के साथ, काफी संख्या में अनुयायी बना लिए हैं, फिर भी सवाल उठता है: क्या वे वास्तव में भारतीय साहित्यिक परंपराओं की प्रतिभा को दर्शाते हैं?

हम ऐसे प्रतिनिधियों के लिए तरसते हैं जो उत्थान और ज्ञानोदय के जुनून से प्रेरित हों, न कि उन लोगों के लिए जो केवल व्यावसायिक सफलता चाहते हैं। देवकी नंदन खत्री और मुंशी प्रेमचंद जैसे लोगों को एक समय हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए मनाया जाता था, लेकिन हाल के दिनों में, माइक्रोस्कोप लेकर भी खोजने निकलो, तो एक ढंग का हिंदी साहित्यकार नहीं मिलता.

गुणवत्तापूर्ण लेखकों की बात करें तो हमारे सांस्कृतिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कौन करता है? देवदत्त पटनायक! हाँ, वही आदमी जो दिन रात सोशल मीडिया पर विष उगलने में अजब ही आनंद पाता है!  इनके विरुद्ध एक भी शब्द आलोचना का पोस्ट कर दो, तो ऐसे भभक उठते हैं, मानो इनके मृत्युदंड का आह्वान जारी कर दिया हो! इतना लीचड़ तो कमाल आर खान भी नहीं रहा है भाई!

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अच्छा साहित्य क्या है?

अच्छा साहित्य क्या है? क्या उसे एक विशिष्ट वर्ग के लिए एक्सेसिबल होना चाहिए? इसे सुलभ और समावेशी नहीं होना चाहिए? आधुनिक भारतीय साहित्य चरित्र विकास और सहानुभूति के साथ संघर्ष करता हुआ प्रतीत होता है, अक्सर उसी सीमित कथानक को दोहराता है, जो विभाजन, सामाजिक मुद्दों या पौराणिक कथाओं पर केंद्रित होता है।

अगर कहीं अभी भी आशा है, तो वह है क्षेत्रीय साहित्य में। एसएल भैरप्पा जैसे लेखक और मराठी, मलयालम और अन्य भाषाओं में साहित्यिक कृतियाँ अपनी सांस्कृतिक जड़ों को अपनाती हैं, कहानी कहने के सार को संरक्षित करती हैं जिसे भारत सदियों से प्रिय मानता आया है। स्मरण रहे, रबीन्द्रनाथ टैगोर को अंग्रेजी रचनाओं के लिए नोबल पुरस्कार नहीं मिला था!

इस समय हमें लेखकों को भारतीय कहानी कहने की गहराई में जाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, हमारे देश में मौजूद असंख्य कथाओं को अपनाने के लिए। आइए हम पुनः खोज की यात्रा शुरू करें, क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाएं, और शास्त्रीय साहित्यिक परंपराओं और समकालीन दृष्टिकोणों के बीच की खाई को पाटें।

भारतीय साहित्य में एक बार फिर देदीप्यमान कमल की तरह खिलने की क्षमता है, लेकिन इसके लिए हमें सबसे पहले अपने कार्यों में रचनात्मकता, मौलिकता और समावेशिता के सार को पुनर्जीवित करना होगा। आइए हम अपनी सांस्कृतिक टेपेस्ट्री की विविधता का उत्सव मनाएं, उस प्रतिभा की लौ को फिर से जगाएं जिसने एक बार दुनिया को रोशन किया था, और अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गए जो आने वाली पीढ़ियों के लिए गूंजती रहेगी।

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