दक्षिण भारत के इतिहास में वीरों का शोणित वैसे ही बहा है जैसे कावेरी, कृष्णा, गोदावरी और नर्मदा का जल. सन 1296: देवगिरी से अलाउद्दीन खिलजी के क्रूर अभियान का प्रारंभ हुआ। अपने श्वसुर को सत्ताच्युत करने के पश्चात, खिलजी ने समृद्ध काकतीय साम्राज्य पर अपनी विकृत दृष्टि गड़ाई.
1303 इसवी में मलिक फकरुद्दीन के नेतृत्व में सल्तनत का पहला आक्रमण हुआ परन्तु काकतीय योद्धाओं के अदम्य शौर्य के समक्ष फकरुद्दीन नतमस्तक हुआ। तत्पश्चात, छह वर्ष उपरान्त, मलिक काफ़ूर ने राज्य में प्रवेश किया और उसने कई दुर्गों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। वारंगल दुर्ग से राजा प्रताप रूद्र ने भीषण युद्ध लड़ा परन्तु उन्हें अंततः आत्मसमर्पण करना पड़ा. राजा प्रताप रुद्र को शांति के लिए खिलजी को भारी धन राशि अर्पित करनी पड़ी।
1320 में राजवंशीय परिवर्तन के कारण दिल्ली में तुगलक का उदय हुआ। काकतीय योद्धा पुनः स्वतंत्र राष्ट्र के स्वप्न को सत्य होता देख जागृत हो उठे. तब तुग़लक के शहजादे, उलूग खान ने 1323 में वारंगल पर आक्रमण किया. पहले से ही बिखरे वारंगल में युद्ध के कोई विशेष साधन नहीं थे. मुस्लिम आतताइयों ने कई मास तक लूटपाट, बलात्कार और नरसंहार किया, वारंगल खण्डित हो चुका था. राज्य का सम्पूर्ण कोष, जिसमें प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भी था, सब तुगलक का हुआ। राजा प्रताप रुद्र ने अपमान के तत्स्थान मृत्यु का वरण करना श्रेयस्कर समझा. वे माँ नर्मदा की गोद में सदा के लिए सो गए।
तेलुगुभूमि का हृदय लहूलुहान हो चुका था. वारंगल का पतन हो चुका था, और मुस्लिम सेनाओं का ज्वार निरंतर अग्रवर्तिन था. एक के पश्चात एक अनेक गढ़ों पर कब्ज़ा कर लिया गया – कोंडापल्ली, कोंडावीडु, राजमुंदरी, निदादावोल, नेल्लोर और कोलानुवीडु। कर्नाटक में शक्तिशाली होयसला और काम्पिली साम्राज्य भी दिल्ली सल्तनत के पराधीन हो गए।
इस भीषण झंझावात के पश्चात, तेलुगु देश का घायल हृदय विद्रोह से गर्जन कर उठा। वेंगी की युद्ध-त्रस्त भूमि से एक ऐसा योद्धा उभरा, जो करने वाला था इतिहास की दिशा को वर्तित। जो दिलाने वाला था मातृभूमि को स्वतंत्रता. उस पुरुषसिंह का नाम था मुसुनुरी प्रोलायनायक।
युद्धे युद्धं प्रयत्नेन वीरो युद्धे प्रवर्तते।
युद्धे वीरस्य संयुगे सर्वं युद्धं प्रकाशते॥
अर्थात वीर युद्ध के लिए प्रयत्न करता है, युद्ध में ही वीरता उजागर होती है। युद्ध में संयुक्त होने पर सब कुछ युद्ध की ज्योति में प्रकट होता है॥
ऐसे ही वीर थे मुसुनुरी प्रोलायनायक। चलिए मेरे साथ पुण्य तेलुगु भूमि में जहाँ हुआ था देशभक्ति और तृष्णा का टकराव, हिंदुत्व और म्लेछत्व का टकराव.
मुसुनुरी प्रोलाया नायक मुसुनुरी राजवंश के उद्घाटक शासक थे जिन्होनें1333 इसवी तक मुसुनुरु क्षेत्र में धर्मानुसार राज किया। कम्मा अधिनाथ के रूप में जन्मे मुसुनुरी प्रोलाया नायक, केवल एक शासक से कहीं अधिक सिद्ध हुए. उन्होनें वेलमा गाणपत्य के रेचेरला नायक और प्रोलाया वेमा रेड्डी सहित 75 तेलुगु नायक कुलों को एकीकृत किया।
तो उस दिन रणक्षेत्र में क्या हुआ?
सूर्यदेव मानों तेलुगु वीरों के साहस का साक्षी बनने हेतु आज कुछ अधिक प्रभा बिखेर रहे थे, रेकापल्ली का युद्धक्षेत्र इच्छाशक्ति और आयुधों के युद्ध का साक्षी बनने वाला था। गोदावरी नदी के उपजाऊ तट पर स्थित, विशाल पापिकोंडालु पर्वतमाला की पिता सदृश दृष्टि के नीचे, रेकापल्ली में युद्ध प्रारंभ हुआ। यहाँ, पुरुष सिंह मुसुनुरी प्रोलाया नायक खड़े थे, उनके नेत्र सम्मान एवं स्वतंत्रता को पुनः प्राप्त करने के संकल्प से अग्नि उत्सर्जित कर रहे थे, उनकी छोटी किन्तु रणभयंकर सेना महादेव के गणों के सदृश हुंकार भर रही थी.
वहीँ दूसरी ओर, तुगलक की राक्षसी सेना का प्रचंड विस्तार था. अखंड विजय की निर्विरोध श्रृंखला से हर्षित सेना का महाघोष श्रव्य था। तेलुगु वीरों की तुच्छ सेना को मर्दित कर, उनके राजा के मस्तक पर पैर रख आगे बढ़ने की प्रबल इच्छा से तुग़लक की सेना संरब्ध थी.
युद्ध का मैदान युद्ध के नारों से गुंजायमान हो उठा. हवा में सर सर उड़ते वाणों का स्वर, खड्गों की खनकती शिंजिनी, और भालों का हूह्भरा तारस्वर । इस अशांति के मध्य, मुसुनुरी प्रोलाया नायक शांति के स्तंभ के भाँती अविचल थे. उनकी रणनीतियाँ उनके धनुर्धरों द्वारा कुशलता से मुक्त किये गए वाणों के सदृश तीक्ष्ण थीं। उन्होंने शत्रु को संभूय नाश करने हेतु भूमि, नदी एवं पर्वत श्रृंखला के संकीर्ण परिक्षेत्रों का कुशलपूर्वक उपयोग किया. उन्होंने गोदावरी की शांत सुंदरता को रणनैतिक लाभ में परिवर्तित कर दिया।
मुसुनुरी प्रोलाया नायक के वीर निरंतर शंखनाद करते थे, थाप और मृदंग बजाते थे, भीमकाय घंटे बजाते थे. ये केवल संगीत के उपकरण नहीं थे; वरण शत्रु के ह्रदय में भय पैदा करने के साधन थे. पर्वत की ओट से तेलुगु धनुर्धारियों ने, सटीकता से शत्रुओं के वक्ष विदीर्ण कर दिए। दोनों करों में भीषण खड्ग धारण किये, द्रुतगति से दौड़ने वाले भूरे अश्व पर उपविष्ट मुसुनुरी प्रोलाया नायक, अदम्य साहस और अतुल्य नेतृत्व की प्रतिमूर्ति थे, उनका व्यक्तिगत शौर्य, तेलुगु वीरों को प्रोत्साहित कर रहा था।
जब मुसुनुरी प्रोलाया नायक ने देखा की वाणों से बिद्ध म्लेच्छ संदेहग्रस्त हैं तव उनकी अश्वश्रेणी ने सम्यक प्रहार किया. तुगलक की सेना का असीमित विस्तार, निर्भीक तेलुगु योद्धाओं की दृढ़ता के सामने टिक नहीं पाया। शत्रुओं के कटे मस्तकों के मानों स्तूप से बन गए. दोनों हाथों से शत्रुओं का शिरच्छेद करते मुसुनुरी प्रोलाया नायक नमूचीहन्ता इंद्र के सामान दीखते थे। विजयश्री ने अपना विजेता घोषित कर दिया. मुसुनुरी प्रोलाया नायक की तेलुगु सेना ने भीषण युद्ध किया और तुग़लक की म्लेच्छ सेना का समूल नष्ट कर दिया। परन्तु अभी युद्ध और थे. मुसुनुरी प्रोलाया नायक के नेतृत्व में तेलुगु वीरों ने दिल्ली सल्तनत को कृष्णा नदी के आसपास के क्षेत्रों से भी पदच्युत किया. यहाँ मुसुनुरी प्रोलाया नायक ने दया का लेशमात्र भी प्रदर्शन नहीं किया. शत्रु के मस्तक के इतर उन्हें किसी भी वास्तु या उपाधि की आवश्यकता नहीं थी.
राजा मुसुनुरी प्रोलया नायक का उदय, म्लेच्छों से त्रस्त तेलुगु भूमि के लिए एक स्वर्णिम युग का प्रारंभ था. उन्होंने धर्म की ध्वजा पुनः लहराई. जिन मंदिरों को तोड़ दिया गया था, उनका पुनर्निर्माण हुआ. दिल्ली सल्तनत ने अग्रहारों, शिक्षा और वैदिक दर्शन की प्रथाओं को बंद कर दिया था. राजा मुसुनुरी प्रोलया नायक ने उनका पुनरुत्थान किया। उन्होनें विलास दान की प्रथा बनायी जिससे दमित हिंदू कर्मकांडों को पुनर्जीवन मिला. उन्होनें धर्म की पवित्र लौ को पुनः प्रज्वलित किया।
एक न्यायसंगत कर प्रणाली को लागू करते हुए, उन्होंने अपनी कृषि प्रजा से उनकी फसल का छठा हिस्सा माँगा, जो कि धार्मिक पुनरुत्थान के लिए एक छोटी सी भेंट थी। उन्होंने वर्तमान के करीमनगर के पास नागुनूर दुर्ग जैसे सैन्य गढ़ों को सशक्त किया, और काकतीय साम्राज्य के पूर्व गौरव को पुनः जागृत करने का कठिन प्रयास भी किया.
1333 इसवी में राजा मुसुनुरी प्रोलया नायक ने अंतिम श्वास ली, नेतृत्व की कमान उनके भ्राता कपाया नायक के सशक्त स्कंध पर आ गया। उनका शासन भी विजय के गगनभेदी शंखनाद से प्रारंभ हुआ.1336 में काकतीय राजधानी, वारंगल से दिल्ली सल्तनत का सम्पूर्ण निष्कासन हो गया। कपया नायक ने अपने भाई के स्वप्न को साकार किया।
वर्ष 1351 में मुहम्मद बिन तुगलक मर गया, वह एक तुर्क दास जनजाति, ताघी के विरुद्ध एक अभियान का नेतृत्व कर रहा था। तुगलक के जीवनकाल में दिल्ली सल्तनत को दो शक्तिशाली प्रतिद्वंदियों ने खंड खंड किया था। एक, मेवाड़ के हम्मीर सिंह और उनके दुर्जेय राजपूत, जिन्होंने 1336 में सिंगोली के निर्णायक युद्ध के पश्चात राजपुताना को पुनः प्राप्त किया था। दूसरा, हरिहर और बुक्का के नेतृत्व में दक्षिणी सेना, जिसने न केवल मदुरै को पुनः स्थापित किया, वरन प्रसिद्ध विजयनगर साम्राज्य का निर्माण भी किया। परन्तु, वीरतापूर्ण प्रतिरोध की इस कथा में, मुसुनुरी प्रोलाया नायक की वीरता सर्वथा विस्मृत ही रहती है। तुगलक को भीषण आघात देने वाले इस तेलुगु वीर की कथा विरले ही सुनाई देती है.
मुसुनुरी प्रोलय नायक अभूतपूर्व उपप्लव के समय तेलुगु राज्य के संरक्षक के रूप में उभरे। परन्तु वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें विस्मृत कर दिया. तेलुगु भूमि के भविष्य को आकार देने वाले परमवीर मुसुनुरी प्रोलय नायक की कथा, सम्पूर्ण भारत की तो क्या कहें, तेलुगु राज्यों में भी कदाचित लुप्त ही हैं।
परन्तु मेरी यह श्रंखला इसलिए ही तो है, ताकि मुसुनुरी नायक राजवंश और उनके बहादुर राजा मुसुनुरी प्रोलय नायक जैसे विस्मृत वीरों से आधुनिक भारत को परिचित कराया जा सके.
यह थी कथा काकतीय साम्राज्य के पराभव की, तुगलक की कालिमाधारी सत्ता की, उस कालिमा राशि को चीर कर अवतरित होने वाले महान राजा मुसुनुरी प्रोलय नायक की.
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