राजस्थान में चुनाव भारतीय राजनीति के अखाड़े में सबसे प्रतिस्पर्धी प्रतियोगिताएं में से एक है, और आगामी चुनाव भी कोई अपवाद नहीं. निस्संदेह अशोक गहलोत कांग्रेस की डूबती नैया को संभालने के लिए जैक स्पैरो जितने तत्पर है, परन्तु सब कुछ इनके बस में नहीं है.
इस लेख में जानिये कैसे भाजपा की एक कमी उसका सबसे बड़ा अस्त्र सिद्ध हो सकती है, और कैसे ये अभिशाप उसके लिए राजस्थान में वरदान सिद्ध हो सकता है!
राजस्थान भाजपा में नेतृत्व का घनघोर संकट
राजस्थान में भाजपा के सामने सबसे महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक स्पष्ट और करिश्माई मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की अनुपस्थिति है। राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री और प्रमुख भाजपा नेता, वसुन्धरा राजे सिंधिया के अड़ियल व्यक्तित्व से स्थिति और अधिक बिगड़ चुकी है.
वसुंधरा के नेतृत्व ने भाजपा के लिए लाभ से अधिक हानि अर्जित की है। “मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं” सड़कों पर इसीलिए गूंजता रहा, जो असंतोष के स्तर और जनता की भावना को उजागर करता है। दुर्भाग्यवश, वसुन्धरा वह दंभी नेता हैं, जो न तो कुछ अच्छा करेंगी और न ही किसी और को करने देंगी।
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कैसे भाजपा की सबसे बड़ी कमी उसके लिए लाभकारी होगी?
परन्तु अगर भाजपा राजस्थान में बिना किसी प्रमुख चेहरे के साथ जाए, तो असंभव भी संभव है. वो कैसे? कहने को भाजपा की “फेसलेस” रणनीति इसके अपरिपक्वता एवं अकर्मण्यता की सबसे बड़ी परिचायक है, और कई राजनीतिक विश्लेषकों के लिए ये एक बाधा समान है.
हालाँकि, यही रणनीति दो तरह से लाभकारी साबित हो सकती है। एक तो कांग्रेस को समझ नहीं आएगा कि पहले किस पर हमला किया जाए. वसुंधरा उनका पसंदीदा पंचिंग बैग हैं, लेकिन अगर वह सीएम चेहरा नहीं होंगी तो कांग्रेस के लिए स्थिति तनिक जटिल हो जाएगी, क्योंकि फिर निशाना किसपे साधेंगे? दूसरा कारण यह है कि इस रणनीति से भाजपा को काम के लिए सही व्यक्ति का चयन करने के लिए पर्याप्त समय मिल सकता है, क्योंकि स्पष्ट रूप से वसुंधरा राजे उनमें से नहीं हैं!
इसके अलावा, राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को गहलोत और सचिन पायलट के बीच आंतरिक संघर्ष का सामना करना पड़ा। निस्संदेह पार्टी सरकार की स्थिरता बनाए रखते हुए, संघर्ष को हल करके इन चुनौतियों से निपटने में कामयाब रही। फिर भी, आगामी चुनावों में इस राजनीतिक पैंतरेबाजी की कीमत चुकानी पड़ सकती है।
मतदाता ऐसी पार्टी को वोट देने से आशंकित हो सकते हैं जिसने पूरे कार्यकाल के लिए स्थिर सरकार बनाए रखने की अपनी क्षमता साबित नहीं की है, और यह भाजपा को अधिक निर्णायक और विश्वसनीय प्रशासन प्रदान करने की अपनी क्षमता को उजागर करने का एक सुनहरा अवसर प्रदान करता है।
क्या ये चमत्कार संभव है?
अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न आता है: क्या यह रणनीति व्यावहारिक भी है? कुछ हद तक हाँ, यदि आप सफल महाराष्ट्र मॉडल को देखें, जिसे पार्टी ने 2014 में अपनाया था। महाराष्ट्र में, भाजपा की निर्णायक जीत का श्रेय अभियान के दौरान मुख्यमंत्री पद के चेहरे की अनुपस्थिति को दिया गया था। राजस्थान की तरह, महाराष्ट्र भी जीतने के लिए एक दुर्जेय किला था, जिसमें आंतरिक कलह और पार्टी की उपस्थिति सीमित थी।
इसके बजाय पार्टी ने महत्वपूर्ण मुद्दों और शासन पर ध्यान केंद्रित किया, जिसके परिणामस्वरूप चुनाव के बाद शिवसेना गठबंधन को विवश हुआ, और अंततः क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर एक सशक्त, दुर्जेय नेता के रूप में देवेंद्र फड़नवीस का उदय हुआ। यह ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य इस प्रश्न को जन्म देता है: क्या राजस्थान में भी ऐसा ही दृष्टिकोण काम कर सकता है? बिलकुल संभव है, अगर भाजपा कर्णाटक वाली गलतियां न दोहराएं तो.
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राजस्थान में एक मजबूत स्थानीय नेतृत्व को पेश करने में भाजपा की अनिर्णय जोखिम और अवसर दोनों प्रस्तुत करती है। जबकि महाराष्ट्र मॉडल को अपनाने से पार्टी को महत्वपूर्ण मुद्दों और शासन पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति मिल सकती है, इससे भाजपा की स्थिर नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता के बारे में चिंताएं भी बढ़ सकती हैं।
राजस्थान में आगामी चुनावों में जीत हासिल करने के लिए भाजपा के लिए इन चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटना जरूरी है। जनता की भावना का आकलन करके, ऐसे उम्मीदवार का चयन करके जो आत्मविश्वास जगा सके, और राज्य के लिए एक स्पष्ट दृष्टिकोण व्यक्त करके, भाजपा संभावित रूप से इस कथित दोष को रणनीतिक लाभ में बदल सकती है और राजस्थान के गौरवशाली राज्य में अपना आधार मजबूत कर सकती है।
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