Copper Filters, Eco Friendly Plates: कभी जो था वेस्ट के लिए ‘कबाड़’, अब वही बन गया ‘खरा सोना!’

: समय समय की बात है!

हिपोक्रेसी की परिभाषा दो चित्रों से कैसे समझा सकते हैं? ऐसे:

एक समय था जब तांबे या पीतल के बर्तनों से पानी पीना या नीम की टहनियों से अपने दाँत साफ करना पुराने ज़माने की बात बताई जाती थी, यहाँ तक कि असभ्य भी कहलाई जाती थी। उस समय पाश्चात्य जगत एवं हमारे बुद्धिजीवी मण्डली ने इन पद्दतियों के लिए हमारा उपहास उड़ाने में कोई प्रयास अधूरा नहीं छोड़ा।

लेकिन आज स्थित कुछ और ही हैं। वही लोग जो कभी हमारी परंपराओं की आलोचना करते थे, अब उन्हें फैशनेबुल, ट्रेंडी वस्तुओं के रूप में बेचते हैं। “एक्टिवेटेड चारकोल” टूथपेस्ट से लेकर “नीम कोटेड टूथब्रश” तक, यहां तक कि “आयोनाइज्ड कॉपर फिल्टर” तक, उन्होंने हमारे देसी चमत्कारों को विपणन योग्य वस्तुओं में बदल दिया है, जो बड़े पैमाने पर लाभ कमाते हैं। नान्जीभाई के शब्दों में, “मेरा माल चुराके मुझे ही बेचता है?”

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परन्तु पाश्चात्य जगत को ऐसे ही हिपोक्रेसी की चलती फिरती दुकान नहीं कहा जायेगा! जहाँ इनका लाभ नहीं, उस जगह को ये मानवीय व्यवहार के योग्य भी न माने। तो नमस्कार बंधुओं, और आज हम इसी पश्चिमी पाखंड का पर्दाफाश करेंगे, जहां धारणाएं और प्रथाएं लाभ की हवाओं के साथ बदल जाती हैं, और जहां पुराना फिर से नया हो सकता है, यह सब लगातार विकसित हो रहे बाजार की निगरानी में होता है। आइए इस विरोधाभास की पेचीदगियों का पता लगाएं और पश्चिमी पाखंड के कई चेहरों को उजागर करें जो हमें घेरे हुए हैं।

‘हमारे सुझावों से हमें ही अपमानित करे!’

यदि किसी ने पाखंड को अपनाने की कला में महारत हासिल की है, तो वह विज्ञापन एजेंसियां हैं। मैकाले द्वारा भारतीयों में हीन भावना का सृजन करने में इन एजेंसियों ने विशिष्ट उपलब्धियों ने विशिष्ट महारत प्राप्त की है।

उदाहरण के लिए, यदि आप 70 या 80 के दशक में बड़े हुए हैं, तो आपको कोलगेट का वह विज्ञापन याद होगा, जहाँ एक गांव में, एक हट्टा-कट्टा पहलवान अपनी भाभी से “दूध-बादाम” (दूध में बादाम) और “कोयला” (लकड़ी का कोयला) मांगता है। जवाब में भाभी कहती हैं, “अरे वाह देवरजी, बदन के लिए दूध-बादाम, और दातों के लिए कोयला?”

इसके बाद एक वॉइस ओवर में, हमें बताया जाता है कि कैसे “खुरदारे पदार्थ” (अपघर्षक पदार्थ) के लिए कोलगेट टूथ पाउडर का उपयोग करने का आग्रह करते हुए आपके कीमती इनेमल को नुकसान पहुंचा सकते हैं। कोयला तो कोयला, नीम और नमक से दांत साफ़ करना तक ‘दांतों के लिए हानिकारक’ बताया गया!

फिर आया वर्ष 2015, जब इसी कोलगेट न गजब का खेल खेला। अपने नए टूथपेस्ट के प्रचार में वह बताता है, “कहते हैं चारकोल गजब की सफाई कर सकता है…।”

जब कोलगेट पहली बार भारत आए, तो उन्होंने ब्रश करने के लिए नमक या दातुन का उपयोग करने की प्रथा की निंदा की, और घोषणा की कि नमक आपके दांतों को नष्ट कर देगा। फिर भी, अब उनका विज्ञापन पूछता है, “क्या आपके पेस्ट में नमक है?” मतलब हिपोक्रेसी भी इन विज्ञापनों को देख कोमा में चला जाए!

परन्तु आपको क्या लगता है, ये एकमात्र ऐसा मामला है? बिलकुल नहीं, तनिक अपने ज्ञानचक्षुओं को 2016 की ओर ले चलें। तब लीफ रिपब्लिक नाम की एक जर्मन कंपनी ने पत्तियों से बने टेबलवेयर का एक “अभिनव” संग्रह प्रस्तुत किया। पश्चिम ने  इस नई रचना पर ऐसा आश्चर्य व्यक्त किया, मानो इससे पूर्व किसी ने ऐसा सोचा भी नहीं होगा। परन्तु भारतीयों ने इस नौटंकी पर एक बार को अवश्य सोचा होगा, “ये दिन आ गए, हमारे दोना पत्तल को बायोडिग्रेडेबल प्लेट्स बना रहे हैं!”

 

 

दोना पत्तल  सहस्राब्दियों से हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रही हैं। सामुदायिक दावतों और शादियों से लेकर सड़क किनारे नाश्ते की दुकानों तक, ये भारतीय जीवन का अभिन्न अंग रहे हैं। भारत में, यह सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं है कि आप क्या खाते हैं; यह इस बारे में भी है कि आप कैसे खाते हैं। फुचका या पानी-पूरी का जो स्वाद एक देसी पत्तल में मिलता है, वो आपको किसी डिस्पोजेबल या अन्य क्रॉकरी में कभी नहीं मिलेगा। शायद इसीलिए अपने प्रभावशाली डिजाइन और मजबूत मार्केटिंग के बावजूद, लीफ रिपब्लिक, 2018 में बंद हो गई। जिस संस्कृति को उन्होंने अपने शैली में बेचने की कोशिश की, वही उनके विनाश का कारण बनी।

 कैसे आधुनिकता लाई ‘Copper Filters’ and ‘Cardiac Coherence Breathing Exercises’

विज्ञापन के इसी मायाजाल  में, ‘रीपैकेजिंग’ की अवधारणा पनपती है, जिसमें सदियों पुरानी रीतियों को चतुराई से नए आविष्कारों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। उपभोक्ताओं के रूप में, यह आवश्यक है कि हम अपनी विरासत के विनियोग से वास्तविक प्रगति को अलग करते हुए, चतुर differentiator बनें, और “रिपैकेजिंग” के इस झोल को समझें।

एक ठोस उदाहरण के लिए, “intermittent fasting” को ही गूगल करें, और आप पाएंगे कि यह एक निर्दिष्ट अवधि के लिए भोजन से परहेज करने के बारे में है। इस पद्दति के अंतर्गत प्रतिदिन 16 घंटे का उपवास और 8 घंटे के भीतर खाना शामिल है। लेकिन क्या यह हमारे व्रत मॉड्यूल की नकल नहीं है? हमारी अपनी संस्कृति में, हम कुछ इसी तरह का अभ्यास करते हैं – ‘सोलह-सोमवार’ व्रत, जहां भक्त श्रावण के पवित्र महीने के दौरान लगातार 16 सोमवारों को भोजन से परहेज करते हैं, एवं भक्तिपूर्वक भगवान शिव से आशीर्वाद मांगते हैं।

ऐसे ही नवरात्रि है, नौ दिनों का उपवास उत्सव जहां प्रतिभागी पानी, फल और कभी-कभी हल रहित अनाज वाले भोजन पर निर्भर रहते हैं। सार एक ही है – शरीर को निरंतर भोजन आपूर्ति के बिना सहन करने के लिए प्रशिक्षित करना।

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इतना ही नहीं, जो पाश्चात्य जगत कभी तांबे और पीतल के बर्तनों के हमारे उपयोग का उपहास करता था, अब तांबे के स्वास्थ्य लाभों का बखान कर रहा है, इसे ‘कॉप्पर फिल्टर’ के रूप में ऐसे प्रस्तुत कर रहा है जैसे कि यह एक नया रहस्योद्घाटन हो। जिसे हम सदियों से प्राणायाम के नाम से जानते हैं, उसका वर्णन करने के लिए उन्होंने “कार्डिएक कोहेरेंस ब्रीथिंग एक्सरसाइज” जैसे नए शब्द भी गढ़े हैं।

और क्या हम भूल सकते हैं कि कैसे इसी पाश्चात्य जगत ने हमारे नीम और हल्दी पर एकाधिकार जमाने का कुत्सित प्रयास किया था? मतलब हमारी संस्कृति का उपहास भी उड़ाएंगे, और हमारे ही संसाधनों को अपना बनाकर अपना उल्लू भी सीधा करेंगे! लेकिन उन्हें भी क्या दोष दें, हम भी कौन सा कम है! कई मायनों में हमारा अस्तित्व आज भी हमारी अपनी पश्चिमी मान्यता पर निर्भरता में निहित है। जब तक कोई ‘गोरा’ (गोरी चमड़ी वाला) हमारे प्रयासों / उत्पादों का अनुमोदन नहीं करता, हम अक्सर अपने स्वयं के उत्पादों के मूल्य को नकार देते हैं। हालाँकि हमने इस संबंध में प्रगति की है, लेकिन यह एक ऐसी मानसिकता है जिस पर हमें अभी भी काबू पाने की जरूरत है।

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