भारत के हाउसिंग सोसाइटी का विदेशी नामों के प्रति ये कैसा मोह?

इस हैंगओवर से उबरना है हमारे भारत को!

शेक्सपियर ने एक समय पूछा था, “नाम में क्या रखा है?” बहुत कुछ, विशेषकर जब बात आपके आवास, या जिस आवासीय सोसायटी के नामकरण की हो!

अब ध्यान से इन नामों पर दृष्टि डालियेगा: The White House, Capital Athena, Knightsbridge इत्यादि। ज़्यादा प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं, ये किसी रोमांचक स्पाई थ्रिलर के कोई कोड वार्ड नहीं है, ये हमारे कुछ भारतीय आवासीय सोसाइटी के नाम है! रिप्ड जींस या उटपटांग इंस्टाग्राम रील्स की भाँति ये भी एक ऐसा ट्रेंड है, जो चर्चा में उतना भले न हो, परन्तु अतार्किक भी, और कई मायनों में चिंताजनक भी।

जिस देश में नाम लगभग अनंत हैं, वहां अपनी आवासीय सोसाइटी का ऐसा नामकरण किसी आश्चर्य से कम नहीं है। बात केवल शब्दों के चयन के बारे में नहीं है; यह उनकी विरासत के बारे में है। यह एक ऐसा औपनिवेशिक हैंगओवर है जिससे छुटकारा पाने के लिए हम अभी भी संघर्ष कर रहे हैं। क्षेत्र कोई भी हो, आवासीय सोसाइटी का ऐसा नामकरण करने की प्रवृत्ति न केवल अनुचित है, अपितु अस्वीकार्य भी।

आज हमारी चर्चा होगी विभिन्न आवासीय सोसाइटी के अजब गजब नामकरण, एवं इसके दुष्परिणामों की। हम ये भी जानने का प्रयास करेंगे कि क्यों विविधता का भंडार होने के बाद भी हमारे देश के ये आवासीय सोसाइटी नामकरण में विदेशी नामों का मोह नहीं छोड़ पाते हैं!

भवन से सोसाइटी तक: शहरीकरण की अनकही गाथा

परिवर्तन हमारे जीवन का शाश्वत सत्य है। प्रत्येक वर्ष के साथ, हमारी जीवनशैली, आवास संबंधी प्राथमिकताओं और जिन चीजों को हम प्रिय मानते हैं, उनमें सूक्ष्म बदलाव देखने को मिलते हैं। लेकिन क्या आपने कभी यह सोचा है कि हमारे शहर कैसे विकसित हुए, कैसे वे गांवों से व्यस्त महानगरों में बदल गए, और इस यात्रा में हाउसिंग सोसाइटियों ने क्या भूमिका निभाई?

1950 में भारत के गणतंत्र में परिवर्तित होने से पहले, शहरी जीवन दुर्लभ था, या यूँ कहिये नगण्य। मुट्ठी भर औपनिवेशिक क्षेत्रों के अलावा, हमारे अब के अधिकांश प्रतिष्ठित शहर कभी गांव थे जो धीरे-धीरे संपन्न जिलों या नगरों में परिवर्तित हुए। दिल्ली, भोपाल, इंदौर, अमदावाद, काशी, प्रयागराज – सभी इस उल्लेखनीय विकास के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

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शहरीकरण के बारे में चंडीगढ़, बॉम्बे [अब मुंबई] और मद्रास [अब चेन्नई] के अतिरिक्त कोई विशेष उदहारण न सुनने को मिलता था, और न ही देखने को! 1990 से पूर्व अपार्टमेंट कल्चर भारत में बहुत ही सीमित था. अधिक से अधिक दुमंजिला मकानों के समूह वाली कॉलोनी होती थी, परन्तु विशाल, गगनचुम्बी अपार्टमेंट, गिन चुनके ही देखने को मिलते थे!

जैसे-जैसे अधिक से अधिक लोग शहरों की ओर आने लगे, उपलब्ध शहरी स्पेस कम होने लगा। अब मान लीजिए, 1000 वर्ग मीटर पर सौ लोग या दस परिवार रहते हों। अचानक से वहां 200 लोग अथवा 20 से 40 परिवारों का समूह रहने लग जाये, तो निस्संदेह भूमि रबर बैंड तो है नहीं, जिसे जितना लम्बा चाहो, उतना खींच लो।

इसी कमी के कारण अपार्टमेंट संस्कृति का उदय हुआ। प्रारंभ में, यह मुख्य रूप से मुंबई, चेन्नई और यहां तक कि नई दिल्ली जैसे आकर्षक शहर थे जिन्होंने इस बदलाव को अपनाया। लेकिन धीरे-धीरे यह चलन अन्य शहरों में भी फैलने लगा और शहरी जीवन की परिभाषा बदलने लगी।

इस बदलाव को बेहतर ढंग से समझने के लिए हम बेसिक अर्थशास्त्र समझना होगा। मांग और आपूर्ति का सदियों पुराना नियम यहां भी लागू होता है। जैसे-जैसे शहरी क्षेत्रों में अधिक लोगों ने आवास की मांग की, हाउसिंग सोसाइटियों की मांग बढ़ती गई। डेवलपर्स ने इस मांग को हाथों हाथ लिया और जल्द ही, ये हाउसिंग सोसायटी हमारे शहर के परिदृश्य का एक अभिन्न अंग बन गईं।

ये विदेशी नाम का मोह क्यों?

तो फिर समस्या कहाँ है?

समस्या है इनके नामों में! बस एक क्षण रुककर Google पर अच्छी तरह से स्थापित हाउसिंग सोसायटियों के नाम देखें, जिन्होंने दो दशकों से अधिक समय से हमारे शहरों की शोभा बढ़ाई है।

इनमें कोई समानता आपको दिखी? 2010 तक जितने भी सोसाइटी निर्मित हुए, उनमें से अधिकांश के नाम ऐसे हैं, जिसमें कहीं न कहीं एक स्वदेशी रंग है, अपनेपन की भावना है । “साहित्य सहवास,” “संस्कृति अपार्टमेंट्स,” या “अंसल्स नीलपद्म” जैसे नाम हमारे देश की सांस्कृतिक जड़ों से मेल खाते हैं, एवं हमारी विरासत और पहचान के प्रमाण हैं।

अब आज के समय में विला, मैंशन, एस्टेट, बुलेवार्ड, बेलवेडेर, आइल और रॉयल ग्रीन्स भी आपने कहीं न कहीं सुने होंगे। ये कुछ ऐसे वाक्यांश हैं जिनका उपयोग भारतीय रियल एस्टेट में आवासीय परियोजनाओं के नाम रखने के लिए किया जाता है। तो विहार और नगर जैसे मूल नाम कहां गायब हो गए?

असल में बहरी चकाचौंध और लाभ की अंधी रेस में सोसाइटी के नामकरण की बलि चढ़ा दी गई है हमारे पास “द व्हाइट हाउस,” “द फ्रेंच अपार्टमेंट,” “बुर्ज नोएडा,” “कैपिटल एथेना,” और “ग्रैंड वेलिंगटन” हैं, जिनके नामों में दूर दूर तक अपनापन नहीं दिखता। यदि इससे आपका खून नहीं खौलता है, तो ये भी जान लें कि एटीएस नाइट्सब्रिज जैसे नामों वाली आवासीय सोसायटी हैं। विदेशी नाम से ये कैसा मोह है भाई? जहाँ दो कोस में बदले पानी और चार कोस में बानी, वहां अब नामों का अभाव कैसे होने लगा?

यह तो केवल नोएडा की कुछ पॉश सोसायटियों का एक केस स्टडी है। अब, भारत के सम्पूर्ण शहरी परिदृश्य के दृश्य की कल्पना करें, तो स्थिति और भी भयावह हो जाती है।पश्चिमी और अरब जगत से प्रेरित नामों के प्रति भारतीय बिल्डरों की आसक्ति का क्या कारण है? क्या हम अपने समाज के लिए सार्थक, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध नामों से वंचित हैं? “काशी कुटुंब” या “कोसल सहवास” जैसा नाम रखने से कुछ बिगड़ जायेगा? या फिर “अद्वैत सोसाइटी”? आखिर क्या बुराई हैं इन नामों में?

ये रीति अच्छी नहीं!

अगर ऐसे ही जारी रहा, तो आगे क्या? “The Eiffel Tower Apartments,” “London Bridge Living,” or perhaps “Tower of Liberty Residences“? या फिर “अल दुबई” या “अलादीन टावर्स” जैसे नामों के लिए तैयार होना चाहिए?

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ये प्रवृत्ति हमारे सामाजिक परिवेश के लिए बिलकुल भी हितकारी नहीं! इसके लक्षण तो तभी समझ जाने चाहिए थे जब कई पॉश सोसाइटी, विशेषकर दिल्ली एनसीआर में ताड़ के वृक्षों को बढ़ावा मिलने लगा!

आप भी आश्चर्यचकित हैं कि आखिर ये सब क्या है? दिल्ली के अधिकारियों के लिए खासतौर पर ताड़ के पेड़ ‘वरदान’ बनकर आए हैं। वे सौंदर्य की दृष्टि से आंखों को भाते हैं, ज्यादा जगह नहीं घेरते हैं और विभिन्न उद्देश्यों के लिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में काटे जाने वाले पेड़ों के विकल्प के रूप में आसानी से लगाए जा सकते हैं।

परन्तु क्या ये हमारी वनस्पति, यानी बायोडाइवर्सिटी के लिए भी उतना ही लाभकारी है? बिलकुल भी नहीं! ताड़ के पेड़ देशी चंदवा के पेड़ों के समान कार्बन का अनुक्रम नहीं करते हैं। वास्तव में, वे ज्यादा ऑक्सीजन का उत्पादन भी नहीं करते हैं। इसलिए, कार्बनडाई ऑक्साइड उस दर पर अवशोषित नहीं होती है, जिसकी आवश्यकता होती है। इसी वजह से दिल्ली में गर्मी बढ़ जाती है। ताड़ के पेड़ ज्यादा छाया भी प्रदान नहीं करते हैं। इसके साथ-साथ उनके पास वन्य जीवन के लिए घोंसले बनाने के लिए शाखाएं भी नहीं हैं और स्थानीय जीवों को खिलाने के लिए फूल या फल भी नहीं होते।

विदेशी वनस्पतियों के प्रति इस अजीब प्रवृत्ति की भांति हमारे आवासीय समाजों के नामों में देखी जाने वाली प्रवृत्ति को दर्शाती है। यह प्रवृत्ति केवल अनुचित नहीं है, ये ।
आधुनिकता और समृद्धि की हमारी खोज में, यह जरूरी है कि हम अपनी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान को न भूलें। हमें अपनी हाउसिंग सोसायटियों के नामकरण पर इस तरह से गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिए जो हमारे राष्ट्र की सुंदरता और विविधता को दर्शाता हो। एक नाम सिर्फ एक लेबल नहीं है; यह इस बात का गहरा प्रतिबिंब है कि हम कौन हैं और हमारे मूल सिद्धांत क्या हैं।

हमारी हाउसिंग सोसायटी स्थानीय संस्कृति, पारिस्थितिकी और पहचान को संरक्षित करने की हमारी प्रतिबद्धता का जीवंत प्रमाण हो सकती हैं। अब समय आ गया है कि हम अपनी प्राथमिकताओं का पुनर्मूल्यांकन करें और ऐसे भविष्य की ओर आगे बढ़ें जहां हमारे द्वारा चुने गए नाम हमारी भूमि के सार के अनुरूप हों।

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