आखिरकार महीनों की चर्चा और कुछ विवादास्पद टिप्पणियों के बाद, भारत का सर्वोच्च न्यायालय अंततः समलैंगिक विवाह की कानूनी वैधता पर निर्णय पर पहुंच गया । न्यायालय का फैसला संसद पर जिम्मेदारी डालते हुए विशेष विवाह अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता पर जोर देता है। हालाँकि, सवाल यह है कि क्या ‘वोक ब्रिगेड’ विजयी हुई है? शायद नहीं।
भारत के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के नेतृत्व में, न्यायालय के फैसले ने एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के अधिकारों को मान्यता देते और इस धारणा को खत्म करने का प्रयास किया कि ‘समलैंगिकता’ शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है। CJI चंद्रचूड़ के अनुसार, “इस धारणा का समर्थन करने के लिए कोई सबूत नहीं है कि केवल विवाहित विषमलैंगिक जोड़े ही बच्चे को स्थिरता प्रदान कर सकते हैं। समलैंगिक जोड़ों को गोद लेने के अधिकार से इनकार करने वाला CARA परिपत्र संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करता है।”
परन्तु हालाँकि, जब समलैंगिक विवाह की वैधता को लागू करने की बात आई, तो सुप्रीम कोर्ट ने आधिकारिक तौर पर निर्णय को संसद पर टाल दिया। उनके बयान के अनुसार, “विशेष विवाह अधिनियम में बदलाव की आवश्यकता संसद के विधायी क्षेत्र में आती है। इस न्यायालय को विधायी मामलों में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए।”
Supreme Court after wasting weeks of their precious time on discussing Same Sex Marriage says,
"This Court must be careful to not enter into legislative domain"
They should not be paid salary and other perks for the time they have wasted in discussing Same Sex Marriage.…
— Facts (@BefittingFacts) October 17, 2023
Marriage Equality Case: Key Highlights From The Landmark Hearing
Whether a change in the regime of the Special Marriage Act is required is for the Parliament to decide. This Court must be careful to not enter into legislative domain, says CJI.#SameSexMarriage pic.twitter.com/2pFSrOTep4
— TIMES NOW (@TimesNow) October 17, 2023
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एक दुर्लभ क्षण के लिए, न्यायालय ने स्वीकार किया कि वह अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए केंद्रीय अथवा राज्य प्रशासन पर अनुचित दबाव नहीं डाल सकता। ऐसे में अब इस नौटंकी को मुख्यधारा बनने से रोकने की जिम्मेदारी अब केंद्रीय प्रशासन पर आती है। कई राज्यों और अधिवक्ताओं ने उचित चर्चा और परामर्श के बिना समलैंगिक विवाह को लागू करने के सीजेआई चंद्रचूड़ के मनमाने प्रयासों का विरोध किया है, और मामले को कार्यपालिका को सौंपने का न्यायालय का निर्णय कुछ मामलों में इसकी सीमाओं को दर्शाता है।
बकि न्यायालय का निर्णय एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को मान्यता देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम का संकेत देता है, भारत में समलैंगिक विवाह को प्राप्त करने का मार्ग अनिश्चित बना हुआ है। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की यह टिप्पणी कि बच्चे विविध पारिवारिक संरचनाओं में स्थिरता और समर्थन का अनुभव कर सकते हैं, पारंपरिक रूढ़ियों को चुनौती देता है। हालाँकि, एक तथ्य यह भी है कि किसी व्यक्ति की राय पूरे देश के लिए आदर्श नहीं हो सकती है, और एक तरह से सीजेआई चंद्रचूड़ ने इस बात को कहीं न कहीं स्वीकारा भी है, अन्यथा समलैंगिक विवाह को मनमाने ढंग से लागू से उन्हें किसने रोका था।
संसद को जिम्मेदारी सौंपने का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय समलैंगिक विवाह के कानूनी वास्तविकता बनने की संभावनाओं पर सवाल उठाता है। न्यायालय ने भारतीय प्रांतों के भीतर जटिल और ध्रुवीकृत भावनाओं को स्वीकार करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि वह इस मामले में अपने अधिकार क्षेत्र से आगे नहीं बढ़ सकता है।
जैसा कि न्यायालय ने कार्यपालिका पर मामला टाल दिया है, यह देखना बाकी है कि क्या केंद्रीय प्रशासन समलैंगिक विवाह को समायोजित करने के लिए विशेष विवाह अधिनियम में संशोधन करने की पहल करेगा। इन जटिल परिस्थितियों से निपटने की जिम्मेदारी अब संसद और सरकार पर है, और यह ऐसे महत्वपूर्ण बदलाव लाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर सवाल उठाता है।
संक्षेप में कहें तो सुप्रीम कोर्ट ‘समान लिंग विवाह’ को लागू करने के लिए कार्यपालिका को धमकाने से पीछे हट गया है, क्योंकि वे इसके परिणामों के बारे में जानते हैं। इसके अलावा, प्रगतिवाद को ‘अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच एक बढ़िया संतुलन’ के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि ‘अल्पसंख्यक के अत्याचार’ [Tyranny of Minority] के लिए मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसे बेकार मुद्दों पर समय बर्बाद करने के बजाय बेहतर मुद्दे हैं, जिनसे लंबे समय में किसी को फायदा नहीं होगा।
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