अयोध्या राम जन्म भूमि मंदिर का फैसला आने के बाद से ही भारत के हिन्दू “अयोध्या तो बस झांकी है, काशी मथुरा अभी बाकी है” के नारे लगा रहे हैं। जिस तरह राम जन्मभूमि का मामला करोड़ों हिन्दू भक्तों के हृदय से जुड़ा हुआ था, ठीक उसी तरह ऐसे कई मामले और विवाद हैं जिनका नाता सीधे तौर पर हिंदुओं की आस्था से जुड़ा हुआ है। ऐसा ही एक मामला काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी मस्जिद से जुड़ा है।
दरअसल, हिन्दुओं का कहना है कि काशी की ज्ञानवापी मस्जिद ज्योतिर्लिंग विश्वेश्वर मंदिर का अंश है, और मुसलमानों ने मंदिर पर कब्जा कर इसे मस्जिद में बदल दिया है। हिन्दू पक्ष शुरू से ही ज्ञानवापी मस्जिद के पुरातात्विक सर्वेक्षण की मांग करता आया है।
हिन्दुओं की इसी मांग को कोर्ट पहले ही स्वीकार कर चुका है और अब जल्द ही यह रिपोर्ट सामने भी आ जाएगी। क्योंकि इसको लेकर आज 24 जनवरी सुनवाई के दौरान जिला जज ने आदेश कर दिया है कि सर्वे की रिपोर्ट पक्षकारों को दे दी जाए।
आज दोपहर जिला जज अजय कृष्ण विश्वेश ने सुनवाई के दौरान आपत्ति करने वाले मुस्लिम पक्ष से पूछा कि आखिर जब तक ASI रिपोर्ट की कॉपी पक्षकारों को नहीं दी जाएगी, तब तक उसपर आगे कैसे सुनवाई होगी?
हिंदू पक्ष से कोर्ट में मौजूद वकील विष्णु शंकर जैन ने इस बात पर लगातार जोर दिया कि रिपोर्ट की कॉपी पक्षकारों के ईमेल पर भेजी जाए। जिसको लेकर ASI की तरफ से यह आपत्ति की गई कि ईमेल पर रिपोर्ट की टेंपरिंग हो सकती है और रिपोर्ट साइबर फ्रॉड का भी शिकार हो सकती है। इसलिए इसकी हार्ड कॉपी ही मुहैया कराई जाए। इसपर मुस्लिम पक्ष भी सहमत हुआ।
इसके बाद जिला जज ने ASI की ज्ञानवापी सर्वे की रिपोर्ट पक्षकारों को हार्ड कॉपी देने का आदेश कर दिया है। अब दो से तीन दिनों के अंदर सर्वे की रिपोर्ट सामने आने की उम्मीद है।
क्या है विवाद
हिन्दू पक्ष का मानना है कि विवादित स्थल 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक पवित्र धार्मिक स्थल है जो धार्मिक दृष्टि से हिंदुओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, और अब इसी स्थल पर मस्जिद का निर्माण हो चुका है। वर्ष 1669 में क्रूर मुगल शासक औरंगजेब ने प्राचीन हिन्दू मंदिर को धराशायी कर मस्जिद का निर्माण करवा दिया था। आज जिस जगह काशी विश्वनाथ मंदिर स्थ्ति है, ठीक उसी से सटी जमीन पर यह मस्जिद है लेकिन हिन्दू पक्ष के लोग मानते हैं कि जिस जगह पवित्र ज्योतिर्लिंग स्थापित था, वह अब मस्जिद में तब्दील हो चुकी है।
कब क्या-क्या हुआ
- 1991 में सबसे पहले सोमनाथ व्यास, रामरंग शर्मा और हरिहर पांडे ने भगवान विश्वेश्वर की ओर से वाराणसी कोर्ट में पहली याचिका दाखिल की थी. इस याचिका में पूजा करने की अनुमति मांगी गई थी।
- 1993 में ज्ञानवापी के मुकदमे में स्टे लगा दिया, कोर्ट ने दोनों पक्षों ये यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया।
- 1998 में मामले में फिर सुनवाई शुरू हुई, लेकिन अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी ने हाईकोर्ट में ये तर्क दिया कि मामले की सुनवाई सिविल कोर्ट में नहीं हो सकती. हाईकोर्ट ने सिविल कोर्ट में मामले की सुनवाई पर रोक लगाई।
- 22 साल बाद 2019 में भगवान विश्वेश्वर की ओर से विजय शंकर ने बनारस कोर्ट में मुकदमा कर ASI सर्वे कराने की मांग की। 2020 में अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी ने याचिका का विरोध किया।
- 2021 में श्रृंगार गौरी की पूजा दर्शन की मांग करते हुए पांच महिलाओं रेखा पाठक, मंजू व्यास, लक्ष्मी देवी, राखी सिंह और सीता शाहू ने एक अन्य याचिका दाखिल की।
- 2022 में अदालत ने श्रृंगार गौरी विग्रह का पता लगाने के लिए एडवोकेट कमिश्नर नियुक्त किया। 26 अप्रैल 2022 को सिविल कोर्ट ने ज्ञानपावी परिसर के सर्वेक्षण का आदेश दे दिया। मई में सर्वे के दौरान ये दावा किया गया कि ज्ञानवापी में शिवलिंग की आकृति मिली है।
- जुलाई 2022 में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, कोर्ट ने जिला अदालत के फैसले का इंतजार करने को कहा। दिसंबर 2022 में फास्ट ट्रैक कोर्ट में एक अन्य मुकदमे वजूखाने में मिले शिवलिंग नुमा आकृति की पूजा करने का अधिकार, मुस्लिमों के प्रवेश पर रोक, अवैध ढांचे को हटाने संबंधी मामले की सुनवाई हुई।
- मई 2023 में ज्ञानवापी मस्जिद में मिले शिवलिंग की कार्बन डेंटिंग का हाईकोर्ट ने आदेश दिया, सात दिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने आदेश पर रोक लगा दी थी।
- 12 और 14 जुलाई 2023 को ज्ञानवापी परिसर का ASI का सर्वे कराने को लेकर भी व्यापक बहस हुई थी। इसमें मुस्लिम पक्ष की ओर से कड़ी आपत्ति जताई गई थी।
क्या अयोध्या की तरह सुलझ सकता है ये विवाद?
अयोध्या विवाद और वाराणसी विवाद में कुछ हद तक समानताएं हैं, लेकिन वाराणसी विवाद अयोध्या विवाद से हटकर है। अयोध्या का विवाद आजादी के पहले से अदालत में चल रहा था, इसलिए उसे 1991 के प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट से छूट मिली थी।
लेकिन वाराणसी विवाद 1991 में अदालत से शुरू हुआ, इसलिए इस आधार पर इसे चुनौती मिलनी लगभग तय है। हिंदू संगठनों की मांग है कि यहां से ज्ञानवापी मस्जिद को हटाया जाए और वो पूरी जमीन हिंदुओं के हवाले की जाए।
इस मामले में हिंदू पक्ष की दलील है कि ये मस्जिद मंदिर के अवशेषों पर बनी है, इसलिए 1991 का कानून इस पर लागू नहीं होता। तो वहीं मुस्लिमों का कहना है कि यहां पर आजादी से पहले से नमाज पढ़ी जा रही है, इसलिए इस पर 1991 के कानून के तहत कोई फैसला करने की मनाही है।
दरअसल, ज्ञानवापी परिसर में मंदिर तोड़कर किए गए मस्जिद निर्माण के बारे में कभी कोई संशय रहा ही नहीं। न सिर्फ मस्जिद स्थल पर साक्ष्य चीख-चीख कर मंदिर ध्वस्तीकरण की गवाही देते हैं, बल्कि औरंगजेब का राजकीय अभिलेख ‘मआसिर-ए-आलमगीरी’ स्वयं बादशाह के आदेश पर काशी विश्वनाथ समेत अनेक मंदिरों के ध्वस्तीकरण को बड़ी शान से दर्ज करता है।
ज्ञानवापी मस्जिद को देखकर कोई बात चौंकाती है तो बस यह कि हिंदुओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण मंदिर को तोड़कर बनाई गई मस्जिद में विध्वंस के स्पष्ट दिखते चिन्हों के बाद भी कोई संवेदनशील व्यक्ति वहां इबादत कैसे कर सकता है? कैसे मजहबी उन्माद में तोड़े गए मंदिरों पर बनाई गई मस्जिदों को कोई अपनी अस्मिता का प्रतीक बना सकता है? यदि इसके सिवा कोई और बात हैरान करती है तो वह है भारत के तथाकथित सेक्युलर वर्ग की ढिठाई।
ज्ञानवापी मस्जिद में न्यायालय जो भी निर्णय दे, वह सबको मंजूर होना चाहिए, मगर न्यायिक फैसले सामाजिक वैमनस्य को कभी कम नहीं कर पाएंगे। भारतीय सभ्यता पर इस्लामी आक्रांताओं के घाव गांव-गांव, शहर-शहर इतने फैले हुए हैं कि सत्य से साक्षात्कार के बिना सुलह-समन्वय नहीं बन पाएगा।