सुप्रीम कोर्ट ने बीते शुक्रवार (10 मई 2024) को दिल्ली के मुख्यमंत्री एवं आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल को 1 जून तक अंतरिम जमानत दे दी है। अरविंद केजरीवाल को यह जमानत लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी के प्रचार के लिए दी गई है। प्रवर्तन निदेशालय ने केजरीवाल की अंतरिम जमानत का विरोध करते हुए कहा था कि इससे गलत परंपरा का जन्म होगा।
कोर्ट ने खड़ा किया सवाल
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजीव खन्ना और दीपांकर दत्ता की खंडपीठ ने अंतरिम बेल से संबंधित सुनवाई करते हुए कहा कि शराब नीति मामले में केस अगस्त 2022 में दर्ज किया गया था और अरविंद केजरीवाल को लगभग डेढ़ साल बाद मार्च 2024 में गिरफ्तार किया गया। शीर्ष अदालत ने पूछा कि आखिर डेढ़ साल तक ED कहां थी।
जमानत को लेकर कई लोग उठा रहे सवाल
हालांकि, ईडी के विरोध के बावजूद अरविंद केजरीवाल को न्यायालय से अंतरिम जमानत मिल गई है, लेकिन इसको लेकर सोशल मीडिया पर कई लोग सवाल उठा रहे हैं। वैसे भारत में न्यायपालिका पर सवाल उठाने का रिवाज नहीं है, लेकिन जमानत का विरोध करते हुए ईडी ने जो तर्क दिया था वो उचित था। ईडी का संदेह भी सच साबित होता दिख रहा है।
यह फैसला गलत संकेत देगा-ईडी
सुप्रीम कोर्ट में दर्ज अपने हलफनामे में प्रवर्तन निदेशालय ने तर्क दिया था कि अगर चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत दी जाती है तो यह एक मिसाल कायम करेगा, जो सभी बेईमान राजनेताओं को अपराध करने और फिर चुनाव की आड़ में जांच से बचने की अनुमति देगा। केंद्रीय एजेंसी ने कहा कि चुनाव प्रचार का अधिकार न तो मौलिक अधिकार है और ना ही कानूनी या संवैधानिक अधिकार है।
अब अमृतपाल सिंह ने मांगी जमानत
ED की आशंका आखिरकार सच साबित होती दिख रही है। अब राष्ट्रद्रोह में जेल में बंद खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह ने चुनाव में नामांकन दाखिल करने के लिए पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट से सात दिनों के लिए अंतरिम जमानत की मांग की है। वह खडूर साहिब लोकसभा सीट से चुनाव लड़ना चाहता है। हालांकि, हाई कोर्ट ने असम के डिब्रूगढ़ जेल में बंद अमृतपाल की याचिका खारिज कर दी है।
NSA के तहत जेल में ‘बंद वारिस पंजाब दे’ नाम के खालिस्तान समर्थक अमृतपाल की याचिका भले खारिज हो गई हो, लेकिन इससे एक नया रिवाज पैदा होने का खतरा पैदा हो गया है। इस देश में ऐसे दर्जनों नेता हैं, जिन पर विभिन्न मामलों में केस दर्ज है और कुछ नेता पुलिस एवं न्यायिक हिरासत में हैं। ऐसे में वे भी अपने लिए छूट की माँग कर सकते हैं। इनमें से प्रमुख नाम झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का नाम प्रमुख है।
अभी तक किसी को नहीं दी चुनाव प्रचार के लिए जमानत-ईडी
अपने हलफनामे में ED ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कहा था, “अभिसाक्षी की जानकारी में अभी तक किसी भी राजनीतिक नेता को चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत नहीं दी गई है। ये (अरविंद केजरीवाल) तो चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार भी नहीं हैं। यहां तक कि चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार को भी चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत नहीं दी जाती है, अगर वह हिरासत में है।”
अब जेल में बंद हर नेता मांगेगा जमानत
जाहिर सी बात है कि जब उम्मीदवार नहीं होने के बावजूद सिर्फ चुनाव प्रचार के लिए अरविंद केजरीवाल अंतरिम जमानत की मांग कर सकते हैं तो कई ऐसे नेता हैं तो खुद उम्मीदवार हैं। ऐसे में वे अरविंद केजरीवाल की जमानत को प्रमुखता से उदाहरण के रूप में पेश करके अपने लिए भी ऐसी मांग कर सकते हैं। ऐसी में न्यायालय के सामने एक अलग तरह का धर्मसंकट खड़ा हो सकता है।
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के खिलाफ भी जमीन घोटाले और मनी लॉन्ड्रिंग मामले की जांच चल रही है। ईडी ने उन्हें मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में 31 जनवरी 2024 को गिरफ्तार किया था। उन्होंने 2 फरवरी को अपनी गिरफ्तारी को गलत बताते हुए याचिका दाखिल की थी। हालांकि, यह याचिका हाई कोर्ट ने खारिज कर दी थी। लेकिन, अरविंद केजरीवाल का हवाला देखकर सोरेन भी सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं।
हेमंत सोरेन और दिल्ली शराब घोटाले में बंद आम आदमी पार्टी के नेता मनीष सिसोदिया भी न्याय में समानता के सिद्धांत का तर्क देकर अपने लिए अंतरिम जमानत की मांग कर सकते हैं। दरअसल, जमानत देना न्यायालय का विशेषाधिकार है और वह कई मामलों को ध्यान में रखते हुए किसी आरोपित को जमानत देता है।
इनमें जिस धारा के आरोपित बंद है उसमें जमानत के लिए क्या प्रावधान हैं, जमानत पर निकलने के बाद वह लापता तो नहीं हो जाएगा, सबूतों के साथ छेड़छाड़ तो नहीं करेगा, गवाहों को धमकाएगा तो नहीं, गवाहों की हत्या तो नहीं करेगा, किसी अन्य आपराधिक मामले को अंजाम तो नहीं देगा, आदि कई ऐसे बिंदु होते हैं।
अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री हैं और शक्तिशाली भी हैं। ऐसे में इन बिंदुओं पर न्यायिक सिद्धांत के तहत नजर डालना महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि अगर चुनाव प्रचार के नाम पर जमानत मिलती है तो ऐसी याचिकाओं की लंबी लाइन लग जाएगी, क्योंकि भारत में लगभग हर साल कहीं ना कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। इनमें पंचायत से लेकर लोकसभा के चुनाव तक शामिल हैं।
कोर्ट में ED ने भी तर्क दिया था, “पिछले 5 वर्षों में लगभग 123 चुनाव हुए हैं। यदि चुनावी प्रचार के उद्देश्य से अंतरिम वैधानिकता है तो किसी भी राजनेता को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है और ना ही किसी राजनेता को अनुमति नहीं दी जा सकती है, क्योंकि चुनाव पूरे साल होता है।” ED ने तर्क दिया था कि संघीय ढांचे में हर चुनाव महत्वपूर्ण है। किसी को कम या अधिक महत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
एजेंसी ने यह भी तर्क दिया था कि अगर चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत दी जाती है तो यह एक मिसाल कायम करेगा, जो सभी बेईमान राजनेताओं को अपराध करने और फिर चुनाव की आड़ में जांच से बचने की अनुमति देगा। ED ने कहा कि एक राजनेता एक सामान्य नागरिक से विशेष दर्जे का दावा नहीं कर सकता। समन से बचने के लिए केजरीवाल ने 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव का यही बहाना बनाया था।
इन सब तमाम बिंदुओं को मिलाते हुए सोशल मीडिया पर लोग न्याय में समानता की बात लोग कर रहे हैं। लोग ये सवाल उठा रहे हैं कि चुनाव प्रचार के लिए किसी आरोपित को, जो जेल में बंद है, उसे जमानत किस आधार पर दी जा सकती है। क्या अरविंद केजरीवाल की जगह कोई आम आदमी होता तो उसे यह सुविधा मिलती?
अधिकांश लोग किसी ना किसी पार्टी अथवा नेता के फॉलोअर होते हैं। अगर जेल में बंद। ऐसा ही कोई व्यक्ति तर्क दे कि उसे पार्टी अथवा नेता का प्रचार करना है तो क्या उसे यही सुविधा मिलेगी? इसका जवाब हां भी हो सकता है और ना भी। इसलिए देश में दशकों से न्यायिक सुधार की मांग भी की जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दिशा में थोड़ा कदम बढ़ाए भी था, लेकिन वो फलीभूत नहीं हो पाया।