क्या वामपंथी और लिबरल्स फिर से विभाजन की राह पर हैं? 

राजदीप सरदेसाई, आरफा जैसे पत्रकारों ने प्रश्न किया कि एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है। क्या यह भारत के संविधान पर हमला नहीं है?

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9 जून 2024 की शाम 7:15 बजे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व में एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) की सरकार का गठन दिल्ली में हुआ। इसके बाद वामपंथी और लिबरल्स का वो ही घिसा-पिटा विधवा विलाप शुरू हो गया जो वह पिछले 10 सालों से करते आ रहे हैं। उनका कहना है कि मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम व्यक्ति को मंत्री क्यों नहीं बनाया? जिसको लेकर अब इनकी सोच पर सवाल खड़े होने शुरू हो गए हैं। क्या यह लोग फिर से देश का बंटवारा कराना चाहते हैं जैसे जिन्ना ने कराया था? 

पंथ के आधार पर प्रतिनिधित्व: गणतंत्र की अवधारणा के विपरीत

भारत में हर वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाया जाता है, जो भारतीय संविधान को अंगीकार करने का दिन है। भारतीय संविधान में पंथ के आधार पर प्रतिनिधित्व की बात नहीं की गई है। चुने गए प्रतिनिधि सभी नागरिकों के कल्याण के लिए कार्य करते हैं, भले ही उनका धर्म, जाति, या समुदाय कुछ भी हो। इस सिद्धांत के तहत, एनडीए सरकार ने अपने मंत्रिमंडल का गठन किया, जिसमें पंथ या मजहब के आधार पर किसी विशेष समुदाय को प्राथमिकता नहीं दी गई।

मुस्लिम समुदाय की चिंताएं और विरोध

एनडीए सरकार के गठन के बाद, मुस्लिम समुदाय और उनके प्रतिनिधियों ने सरकार पर मुस्लिमों की उपेक्षा का आरोप लगाया। इस्लामिक स्कॉलर समिउल्ला खान ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर पोस्ट किया, “मोदी 3.0 में अल्पसंख्यकों के लिए कोई स्थान नहीं!” और यह भी कहा कि 250 मिलियन लोगों का शून्य प्रतिनिधित्व है। इसी तरह, आर जे साइमा और अन्य पत्रकारों ने भी इस मुद्दे पर सरकार की आलोचना की।

क्या अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व वास्तव में नहीं है?

वास्तव में, एनडीए सरकार के मंत्रिमंडल में दो सिख, एक ईसाई, और एक बौद्ध सांसद शामिल हैं। इसलिए, यह कहना कि अल्पसंख्यकों को कोई स्थान नहीं मिला, गलत है। यह विचारधारा कि मुस्लिमों को मुस्लिम प्रतिनिधि ही बेहतर तरीके से प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, संविधान की मूल भावना के विपरीत है।

जिन्नावादी सोच और अलगाववादी दृष्टिकोण

मुस्लिम समुदाय के कुछ वर्गों का यह रवैया, जो मुस्लिम प्रतिनिधियों की मांग कर रहा है, वही दृष्टिकोण है जो भारत के विभाजन का कारण बना था। 1947 में, मुस्लिम लीग ने इसी आधार पर विभाजन की मांग की थी कि वे हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते और उन्हें अलग प्रतिनिधित्व चाहिए। इस प्रकार की मांगें एक बार फिर से विभाजनकारी विचारधारा को प्रोत्साहित कर सकती हैं।

सोशल मीडिया पर भड़काऊ बयानबाजी

सोशल मीडिया पर विभिन्न इस्लामिक स्कॉलर और पत्रकारों द्वारा की गई भड़काऊ बयानबाजी ने इस मुद्दे को और भी संवेदनशील बना दिया है। राजदीप सरदेसाई, आरफा एवं सबा नकवी जैसे पत्रकारों ने एनडीए सरकार के खिलाफ कई पोस्ट किए, जिनका उद्देश्य मुस्लिम समुदाय को उकसाना और उन्हें सरकार के खिलाफ खड़ा करना था।

लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संविधान का सम्मान

भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जहां पर प्रत्येक नागरिक की पहचान भारतीय के रूप में होती है। यहां पर किसी भी प्रकार का सांप्रदायिक विभाजन स्वीकार नहीं किया जा सकता। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के तहत, जनता जिसे चुनती है, वही प्रतिनिधि और मंत्री बनता है। पंथ या मजहब के आधार पर प्रतिनिधित्व की मांग करना संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है और यह विभाजनकारी विचारधारा को प्रोत्साहित कर सकता है।

मुस्लिम समुदाय की भूमिका और सरकार की योजनाएं

विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ मुस्लिम समुदाय को भी मिला है। मोदी सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल में सरकारी योजनाओं, स्कालरशिप, और अन्य सुविधाओं में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं हुआ है। इसके बावजूद, कुछ समूहों ने मुस्लिम समुदाय को यह समझाने की कोशिश की है कि उन्हें भाजपा सरकार के खिलाफ वोट देना चाहिए।

कांग्रेस की भूमिका और मुस्लिम समर्थन

इस बार लोकसभा में कांग्रेस की सीटें भी मुस्लिम समुदाय के एकतरफा समर्थन के कारण बढ़ी हैं। यह समर्थन कांग्रेस के लिए एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि कांग्रेस ने मुस्लिम समुदाय को उनके समर्थन के बदले में क्या दिया? क्यों कांग्रेस ने किसी मुस्लिम नेता को संसदीय दल का नेता नहीं चुना और विपक्ष का नेता बनने के लिए राहुल गांधी का समर्थन किया?

सांप्रदायिक राजनीति का खतरा

वोट के लिए जिहाद करना और मजहब के आधार पर अलग प्रतिनिधित्व की मांग करना दोनों ही संविधान विरोधी कृत्य हैं और ये भारत को एक और विभाजन की ओर ले जाने वाले कदम हो सकते हैं। जो लोग मुस्लिम समुदाय को भड़काने का प्रयास कर रहे हैं, वे वास्तव में देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा हैं।

निष्कर्ष

भारतीय गणराज्य की मूल भावना यह है कि प्रत्येक नागरिक की पहचान भारतीय के रूप में होनी चाहिए। पंथ या मजहब के आधार पर विभाजन की मांग करना संविधान के खिलाफ है और यह विभाजनकारी सोच को प्रोत्साहित करता है। एनडीए सरकार ने बिना भेदभाव के समाज के सभी वर्गों के कल्याण के लिए कार्य करने की प्रतिबद्धता जताई है। यह आवश्यक है कि हम सभी भारतीय गणराज्य के संविधान का सम्मान करें और देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए मिलकर काम करें।

इस प्रकार, 9 जून 2024 को एनडीए सरकार के गठन के बाद जो विवाद उत्पन्न हुआ, वह भारत की एकता और संविधान की भावना के विपरीत है। यह महत्वपूर्ण है कि हम सभी पंथ, जाति, और मजहब से ऊपर उठकर भारतीय के रूप में एकजुट हों और देश के विकास और समृद्धि के लिए काम करें।

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