वक्फ कानून संशोधन बिल को केंद्र सरकार ने कल यानी 8 अगस्त को लोकसभा में पेश तो कर दिया, लेकिन इतना हंगामा हुआ कि सरकार ने खुद ही इसे संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी को भेज दिया।
दरअसल संसदीय कार्यमंत्री किरेण रिजिजू ने पहले ये बिल सदन में पेश किया, फिर इस पर चर्चा हुई। इस दौरान एनडीए के साथी दल जैसे जेडीयू और टीडीपी भी इस बिल के पक्ष में खड़े रहे, तो वहीं कांग्रेस, सपा, AIMIM, TMC और लेफ्ट पार्टियों ने इस बिल का विरोध किया था।
लेकिन हैरानी तब हुई जब, बहुमत होने के बाद भी सरकार ने इस बिल पर वोटिंग नहीं करवाई, उल्टा खुद किरेण रिजिजू ने बिल को जेपीसी के पास भेजने की सिफारिश कर दी, ताकि इस बिल की और अच्छी तरह स्क्रूटनी की जा सके।
इसके बाद से ही जेपीसी का नाम चर्चा में है, जैसे ये क्या होती है, क्या काम करती है, इसके पास कितनी ताकत होती है और अब जब ये बिल जेपीसी के पास भेजा जा चुका है, तब इस बिल का क्या होगा ? क्या ये कभी वोटिंग के लिए दोबारा सदन में आएगा या वहीं अटका रहेगा?
संसद में कितनी समितियां होती हैं?
दरअसल आजादी के बाद से आज तक इतने सा्लों में सिर्फ 8 बार ही ऐसी नौबत आई है, जब जेपीसी का गठन किया गया हो, और ये तो एकदम रेयर ऑफ द रेयरेस्ट मामला है, जब सरकार ने खुद ही आगे बढ़कर जेपीसी का गठन कर दिया हो, नहीं तो जेपीसी को लेकर संसद में हमेशा हंगामा ही हुआ है।
तो चलिए पहले तो ये समझते हैं कि जेपीसी होती क्या है, और फिर समझेंगे कि जेपीसी को ये बिल सरकार ने खुद क्यों भेज दिया? क्या ये कोई सीक्रेट डील थी, या फिर इसका बांग्लादेश के ताजा हालात से कोई संबंध है?
शुरुआत पहले सवाल के जवाब से। दरअसल किरेण रिजिजू ने बिल पेश करने के बाद कहा कि इस बिल पर और चर्चा होनी चाहिए. स्क्रूटनी होनी चाहिए। हम इससे बच कर भाग नहीं रहे, क्योंकि हमारी मंशा साफ है। इसलिए इस बिल को ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमिटी बनाकर वहां भेजा जाए, ताकि वहां इस पर विस्तार से चर्चा हो।
संसद में मुख्यत: दो तरह की समितियां होती हैं। ये समितियां कई तरह के विधाई कार्यों में संसद की और सरकार की मदद करने और उसे सलाह देने के लिए बनाई जाती हैं।
पहली प्रकार तरह की कमेटी स्टैंडिंग कमेटी होती है, इसे हिंदी में स्थाई समिति कहा जाता है।
जबकि दूसरी समिति होती है एडहॉक कमेटी, जिसे हिंदी में तदर्थ समिति कहते हैं।
अब जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, स्थाई समिति वो समिति होती है, जिसे एक स्थाई समय के लिए निर्वाचित किया जाता है या फिर उसका एक तय कार्यकाल होता है और ये अनवरत रूप से कार्य करती रहती हैं। यानी ये कभी भी विघटित नहीं होतीं।
जबकि दूसरी कमिटी जिसे एडहॉक या तदर्थ कमिटी कहते हैं वो किसी विशेष मुद्दे को लेकर गठित की जाती हैं। और जब ये कमिटी उस पर अपनी जांच पूरी कर लेती हैं, या अपनी रिपोर्ट जमा कर देती है, तो उसका अस्तित्व अपने आप ही समाप्त हो जाता है।
क्या होती है JPC?
JPC यानी ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमिटी भी एडहॉक श्रेणि की समिति है। इसमें संसद के दोनों सदन यानी लोकसभा और राज्यसभा, दोनों के मेंबर्स शामिल होते हैं। इसलिए इसे ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमिटी कहते हैं।
अब ये कमिटी तभी बनाई जा सकती है, जब संसद के किसी भी एक हाउस में इसे लेकर प्रस्ताव पारित हो। अब वो सदन हाउस लोकसभा भी हो सकता है और राज्यसभा भी, लेकिन इस समिति के गठन के लिए दूसरे सदन की मंजूरी लेनी भी जरूरी है।
वैसे JPC में कितने मेंबर्स होंगे, इसका कोई नियत नियम नहीं है, फिर भी इसमें 30 से 31 मेंबर हो सकते हैं। हां एक नियम ये जरूर है कि इस कमेटी में राज्यसभा से जितने भी मेंबर होंगे, उससे दोगुने सदस्य लोकसभा से होंगे।
जैसे कि मान लीजिए कुल 30 लोगों की समिति बनी, तो इसमें 10 सदस्य राज्यसभा से, जबकि 20 सदस्य लोक सभा से होंगे।
अब दूसरा बड़ा सवाल आता है ये कि कमेटी में किस पार्टी के कितने सदस्य होंगे ? तो इसका जवाब ये है कि ऐसी समतियों में हर पार्टी का फिक्स कोटा होता है। यानी सदन में जिस पार्टी का जितना प्रतिनिधित्व होगा, उसी अनुपात में उनका जेपीसी में भी प्रतिनिधित्व होगा।
जैसे फिलहाल बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी है, तो इस जेपीसी में सबसे ज्यादा सदस्य भी बीजेपी के ही होंगे और अध्यक्ष भी बीजेपी या NDA से ही हों।
अब ये पार्टी का अधिकार होता है कि वो किस सांसद को JPC का सदस्य बनाएगी। वो अपने सांसदों का नाम इस कमिटी के लिए स्पीकर को भेज सकती है, और फिर स्पीकर उन्हें मंजूर कर देते हैं।
एक बार जब JPC गठित हो जाती है, तो इसे काफी ताकत मिल जाती है। वो इनका इस्तेमाल कर जरूरी जानकारियां जुटा सकती है। सरकारी विभागों, संस्थाओं से जानकारी मांग सकती है, उन्हें तलब कर सकती है। विषय से संबंधित विशेषज्ञों की सलाह ले सकती है। जेपीसी के सामने पेश नहीं होने को अवमानना माना जाता है।
वक्फ कानून के मामले में भी ये समिति सभी पार्टियों के सदस्यों और विशेषज्ञों से बात करेगी और उनके सुझावों और आपत्तियों को रिपोर्ट में शामिल कर सकती है।
हालांकि दिलचस्प बात ये है कि जेपीसी के सुझाव सरकार के लिए सिर्फ सुझआव ही होते हैं। सरकार इन्हें मानने के लिए बाध्य नहीं होती। हालांकि इसमें ज्यादातर सांसद और अध्यक्ष सत्ताधारी पार्टी के ही होते हैं, इसलिए अक्सर इन्हें मंजूर कर लिया जाता है।
अब तक 8 बार ही गठित हुई है JPC
वैसे एक और दिलचस्प जानकारी है। आज तक 8 बार जेपीसी का गठन हुआ है और पांच बार ऐसे मौके आए हैं, जब जेपीसी गठित होने के बाद वो सरकार अगला चुनाव नहीं जीत पाई, सिर्फ मोदी सरकार इसमें अपवाद है।
बहुमत के बावजूद सरकार ने बिल को JPC में क्यों भेजा ?
अब बात दूसरे सवाल की कि आखिर सरकार को इस बिल को जेपीसी को भेजने की जरूर क्यों पड़ी। आखिर जब सरकार के पास बहुमत है, तो उसने इस बिल पर वोटिंग करवा कर इसे पारित क्यों नहीं करवाया।
सूत्रों की मानें तो बांग्लादेश में जिस तरह के हालात हैं, और जिस तरह वहां कट्टरपंथी ताकतें पैर पसार रही हैं, उसे देखते हुए सरकार इस बिल को लाकर अभी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी। क्योंकि इस बिल का विरोध पहले से ही तेज था और आशंका थी कि विपक्ष की आड़ में कई कट्टरपंथी ताकतें इस बिल के बहाने हालात बिगाड़ने की कोशिश में न जुट जाएं।
ऐसे में अब सरकार ने इस बिल को जेपीसी के पास भेज कर दो बड़े निशाने साधे हैं। पहला तो उसने स्थितियों के लिहाज से सही कदम उठाया है। यही नहीं सरकार ये मैसेज भी दे रही है कि देखो हम खुले दिल से चर्चा करने में यकीन करते हैं। इसीलिए बिल को जेपीसी में भेज दिया ।