कृष्ण के जीवन की व्यावहारिक शिक्षा

1) शिक्षा सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान न होकर रचनात्मक होनी चाहिए –

श्री कृष्ण युवा जनमानस के सबसे महत्वपूर्ण पथप्रदर्शक हैं। उन्होंने अपनी शिक्षा मध्य प्रदेश के उज्जैन में सांदीपनि ऋषि के आश्रम में रह कर पूरी की थी। कहा जाता है 64 दिन में उन्होंने 64 कलाओं का ज्ञान हासिल कर लिया था। वैदिक ज्ञान के अलावा उन्होंने कलाएं सीखीं। इन सभी शिक्षाओं का उन्होंने अपने जीवन में रचनात्मक प्रयोग भी किया। गोकुल में महारास के माध्यम से उन्होंने जहां एक तरफ विशुद्ध प्रेम का प्रकटन किया जिसमें प्रेम के माध्यम से आत्मा से परमात्मा के एकत्व का भान कराया तो वहीं महाभारत के युद्ध के प्रारम्भ में किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को भगवद्गीता रूपी ज्ञान देकर स्वकर्म में प्रवृत्त किया। इस प्रकार कृष्ण का व्यक्तित्व यह प्रकाशित करता है कि शिक्षा ऐसी ही होनी चाहिए जो हमारे व्यक्तित्व का रचनात्मक विकास करे। इसलिए आवश्यक है कि बच्चों में कोरा ज्ञान ना भरें। उनकी रचनात्मकता को नए आयाम मिलें, ऐसी शिक्षा व्यवस्था हो।

2) शांति का मार्ग ही विकास का मार्ग प्रशस्त करता है –

श्री कृष्ण प्रेम और वात्सल्य के प्रतीक पुरुष हैं। भक्ति मार्गी भक्तों के आराध्य कृष्ण ही हैं। भक्ति, प्रेम और वात्सल्य भाव आत्मिक सुख प्रदान करने का सरल मार्ग माना जाता है। यह आत्मिक आनंद ही शांति मार्ग है। व्यक्ति अथवा समाज में यदि किसी भी स्तर पर अशांति रूपी विक्षोभ है तो ऐसा समाज विकास के उच्च मानदंडों को नहीं प्राप्त कर सकता। यद्यपि विक्षोभ और संघर्ष नवीन आयामों को प्राप्त करने का मार्ग है परन्तु इसकी अनिवार्य शर्त यह होनी चाहिए कि इसकी दिशा सम्यक हो अर्थात् उचित दिशा में हो। श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध के पहले शांति से समझौता करने के लिए पांडवों और कौरवों के बीच मध्यस्थता की। हालांकि दोनों ही पक्ष युद्ध लड़ने के लिए आतुर थे लेकिन कृष्ण ने हमेशा चाहा कि कैसे भी युद्ध टल जाए। झगड़ों से कभी समस्याओं का समाधान नहीं होता है। शांति के मार्ग पर चलकर ही हम समाज का रचनात्मक विकास कर सकते हैं। कृष्ण ने समाज की शांति से मन की शांति तक, दुनिया को ये समझाया कि कोई भी परेशानी तब तक मिट नहीं सकती, जब तक वहां शांति ना हो। फिर चाहे वो समाज हो, या हमारा खुद का मन। शांति से ही आनंद मिल सकता है, साधनों से नहीं। गीता में श्री कृष्ण परम शांति, परम आनंद और चरम लक्ष्य इत्यादि का समानार्थी रूप में प्रयोग किया है।

श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।4/39

श्री कृष्ण कहते हैं कि इन्द्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर चुके, साधना में लगे हुए और श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति को ही जान की प्राप्ति होती है। ज्ञान प्राप्त होने पर स्वत: ही परम शांति प्राप्त हो जाता है। सामान्यत: हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं कि यदि व्यक्ति को किसी समस्या के विषय में और उसके कारण का सही ज्ञान हो जाता है तो वह सही दिशा में प्रयास करते हुए उसके समाधान का प्रयास करता है, ज्ञान प्राप्त हो जाने पर यह समस्या उसको अनावश्यक दुख नहीं प्रदान करता है। ज्ञान प्राप्त व्यक्ति मानसिक शांति की तरफ अग्रसर हो जाता है।

3) शान्त मन और स्थिर मस्तिष्क हमे परिस्थितियों का विजेता बना देता है –

श्री कृष्ण का जीवन इस बात का प्रमाण है कि व्यक्ति अपनी क्षमताओं का प्रयोग कर परिस्थितियों के दासत्व बोध से ऊपर उठ जाता है और वह अपने अनुरूप परिस्थितियों का निर्माण कर लेता है। परिस्थितियों का विजेता होने की प्रधान शर्त है कि हम स्वयं में धैर्य रूप सद्गुण विकसित करें। यह सद्गुण शान्त मन और स्थिर मस्तिष्क ही प्रदान कर सकता है। यही वह स्थिति है जहां व्यक्ति को आत्मभाव का बोध होता है और उसका अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण हो जाता है। यही स्थिति परिस्थितियों के दासत्व बोध से उबरने की स्थिति है। कृष्ण के जीवन में ऐसे अनेकों अवसर आए जहां परिस्थिति ने उनके असीम धैर्य की परीक्षा ली परन्तु अपने आत्मबोध के द्वारा उन्होंने स्वयं को सदैव संयत बनाए रखा। पांडवों के राजसूय यज्ञ में शिशुपाल कृष्ण को अपशब्द कहता रहा। पूरी सभा चकित थी, कुछ क्रोधित भी थे लेकिन कृष्ण शांत थे, मुस्कुरा रहे थे। महाभारत के युद्ध के पूर्व जब शांति दूत बनकर गए तो दुर्योधन ने भरी सभा में अपमानित किया। फिर भी कृष्ण शांत बने रहे। अगर हमारा मस्तिष्क स्थिर है, मन शांत है तभी हम कोई सही निर्णय ले पाएंगे। आवेश में हमेशा हादसे होते हैं, ये कृष्ण सिखाते हैं। विपरित परिस्थितियों में भी कभी विचलित नहीं होने का गुण कृष्ण से बेहतर कोई नहीं जानता। इसी गुण के आधार पर श्री कृष्ण सम्पूर्ण मानवता के पथ प्रदर्शक बने हुए हैं। आज के युवाओं में सामान्यतः देखा जाता है कि उनमें धैर्य की कमी है, यह कमी इसीलिए है कि हमारा अपने श्वास, मन और मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं हो पाता है। आज का युवा हर छोटी बात को अपनी प्रतिष्ठा का विषय बना लेता है जिसके कारण उसको अपनी ऊर्जा अनावश्यक कार्यों में खर्च करनी पड़ती है। इसलिए श्री कृष्ण का जीवन हमे बताता है कि यदि आज के युवा आत्मबोध का प्रयास करे तो निश्चित ही वह जीवन के बड़े उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है बजाय अनावश्यक गतिविधियों में संलिप्त होने के।

4) दूरगामी और बड़ी सोच स्वर्णिम इतिहास का आधार बनती है –

श्री कृष्ण का व्यवहार और चरित्र इस बात का प्रमाण है कि भविष्य के प्रति विराट चिंतन को मानस में जागृत कर वर्तमान में अपने कर्तव्य को दृढ़ता और तन्मयता से करने वाले स्वर्णिम इतिहास का मार्ग प्रशस्त करते हैं। दुर्योधन के चरित्र से भलीभांति परिचित कृष्ण वनवास के समय पाण्डवों को समझाते हुए कहते हैं कि यह समय एक अवसर है जिसमें तुम सबको स्वयं को भविष्य के लिए तैयार करना चाहिए। यह अवसर विभिन्न देवताओं की आराधना कर उनसे वरदान प्राप्त कर स्वयं को भविष्य के लिए तैयार करने का है। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और विवेक ज्ञान के आधार पर कृष्ण जानते थे कि दुर्योधन को कितना भी समझाया जाए, वो पांडवों को कभी उनका राज्य नहीं लौटाएगा। तब शक्ति और सामर्थ्य की जरूरत होगी। कर्ण के कुंडल कवच पांडवों की जीत में आड़े आएंगे ये भी वे जानते थे। उन्होंने हर चीज पर बहुत दूरगामी सोच रखी। कोई भी फैसला तात्कालिक आवेश में नहीं लिया। हर चीज के लिए आने वाली पीढ़ियों तक का सोचा। यही सोच समाज का निर्माण करती है। यह सोच ही सच्चे राष्ट्रनायक पैदा करती है। ऐसे राष्ट्रनायक अपने चिंतन से भविष्य के राष्ट्र की आधारशिला रखते है और खुद इतिहास के राष्ट्र गौरव बन जाते हैं जिनके विचारों से जनमानस प्रेरणा लेता रहता है। वैचारिक और व्यावहारिक धरातल को समाविष्ट करने की श्रीकृष्ण की सार्थकता की जो धारा भारतीय समाज में अविछिन्न रूप से प्रवाहित हुई उसी को चाणक्य ने कूटनीति से, तुलसीदास ने भक्ति से, गांधी ने सेवा से, जयप्रकाश ने जनजागरण के माध्यम से सिद्ध कर दिखाया। श्रीराम सत्तासीन रहते हुए भी सदैव उससे उसी प्रकार निर्लिप्त रहे, जैसे अहर्निश जल में रहते हुए भी कमल पत्र उससे लिप्त नहीं होता। इस परम्परा को श्रीकृष्ण ने और आगे बढ़ाया। श्रीराम तो अपने जीवन में कुछ समय सत्ता पर आसीन भी रहे, लेकिन श्रीकृष्ण हमेशा सत्ता से दूर रहे। उन्होंने अन्य लोगों को तो सत्ता पर बिठाया, लेकिन स्वयं आराधना करते रहे। उनकी विनम्रता इस सीमा तक थी कि राजसूय यज्ञ में जब सभी को काम सौंपा गया तो श्रीकृष्ण ने लोगों को झूठी पत्तलें उठाने का जिम्मा खुद ले लिया। यह थी उनकी विनम्रता। इसी विनम्रता का परिणाम रहा कि सभी नरेशों के मुकुटमणि उनके चरणों पर अवनत होते रहे। श्री कृष्ण का यह व्यक्तित्व हमें बताता है कि यदि हम अपनी सोच को दूरगामी रखते हुए कर्म करते हैं तो निश्चित ही हम गौरव पूर्ण कार्य कर समाज को दिशा दिखा सकते हैं। महाभारत में वेद व्यास कहते है ,

धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्।

महाजनो येन गतः स पन्थाः।

अर्थात् धर्म का तत्व इतना गूढ़ है कि जैसे यह गुफाओं में कहीं अंदर छुपा हो। इसलिए महापुरुष जिस मार्ग पर चलें उसी को अपना मार्ग समझना चाहिए।

5) श्री कृष्ण सच्चे लोकनायक हैं –

भगवान श्रीकृष्ण हमारी संस्कृति के राष्ट्रनायक हैं। श्रीकृष्ण का चरित्र एक लोकनायक का चरित्र है। वह द्वारिका के राजा भी है किंतु कभी उन्हें राजा श्रीकृष्ण के रूप में संबोधित नहीं किया जाता। वह तो ब्रजनंदन है। समाज एवं राष्ट्र व्यवस्था को उन्होंने कर्तव्य भाव से संयुक्त कर दिया, इसलिये कर्त्तव्य से कभी पलायन नहीं किया। धर्म उनकी आत्मनिष्ठा के रूप में प्रवृत्त होता है। वे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की संयोजना में सचेतन बने रहे। श्रीकृष्ण के आदर्शों से ही देश एवं दुनिया में शांति स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त होगा। इस रहस्य को समझना होगा कि श्रीकृष्ण किस प्रकार आदर्श राजनीति, व्यावहारिक लोकतंत्र, सामाजिक समरसता, एकात्म मानववाद और अनुशासित सैन्य एवं युद्ध संचालन किया। राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए किस तरह की नीति और नियत चाहिए- इन सब प्रश्नों के उत्तर श्रीकृष्ण के जीवन से मिलते हैं।

श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पर्याय है। उनके आदर्शों के माध्यम से ही विश्व ने भारत को जाना है। उनके आदर्शों की पुनर्प्रतिष्ठा से विश्व फिर से भारत को जानेगा। सूक्ष्म राजनीतिक दृष्टि, अपराधियों को समाप्त करने की दृढ़ इच्छाशक्ति, वचन पालन को अपना कर्तव्य समझना, राष्ट्र की चेतना को सर्वोच्च प्राथमिकता देना, विभेदों का सम्यक सामंजस्य, आत्म नियंत्रित संयम और राजसत्ता पर धर्मसत्ता का अंकुश और इन सबकी पूर्ति के लिए सत्ता का भी त्याग इत्यादि श्रीकृष्ण के गुण भारत के राष्ट्रीय जीवन एवं सांस्कृतिक मूल्य हैं। वास्तव में श्रीकृष्ण उस कोटि के चिंतक थे, जो काल की सीमा को पार कर शाश्वत और असीम तक पहुंचता है। जब-जब अनीति बढ़ जाती है, तब-तब श्रीकृष्ण जैसे राष्ट्रनायक को अवतीर्ण होना पड़ता है। जैसा कि स्वयं श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है- यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। अर्थात अन्याय के प्रतिकार के लिए ही राष्ट्रनायक को जन्म लेने की आवश्यकता पड़ती है।

6)- यदि उच्च नैतिकता से मात्र पराजय ही हो तो उसे त्याग देना ही बेहतर है –

श्री कृष्ण ने अपने जीवन में इस बात को सदैव प्राथमिकता दी कि यदि उच्च नैतिकता से सिर्फ पराजय ही हो रही हो तो उसे छोड़ देना चाहिए। धृतराष्ट्र की सभा में अपनी नैतिकता के कारण युधिष्ठिर ने अपनी पत्नी तक को दाव पर लगा दिया तो ऐसी नैतिकता का क्या महत्व है। जब नैतिकता के पालन में आपका अस्तित्व ही ना बच सके तो उसे छोड़ देना ही उचित है। इसीलिए श्री कृष्ण कहते हैं कि यदि नैतिकता अधर्म को जन्म देती है तो उसे वही त्याग देना चाहिए और वह करना चाहिए जो उस वक्त सही है। समाज में हम देखते हैं कि नैतिकता का पालन करते हुए हम कई लोगों के प्रति बहुत आत्मीयता रखते हैं तो अपना नुकसान भी खुशी खुशी उठा लेते हैं पर वही व्यक्ति समय आने पर अपने समाज और मत के स्वार्थ में आकर विश्वासघात कर देता है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपने आस पास समाज में और राष्ट्र के जागरूक नागरिक होते हुए सम्पूर्ण देश में ऐसे लोगों की मंशा को पहचाने और उनसे स्वयं बचते हुए अन्य को जागरूक भी करें। क्योंकि किसी भी कार्य को करने के लिए अपना अस्तित्व बना रहना आवश्यक है। बिना अस्तित्व के कोई भी धर्म संपादित नहीं होता। यही एक जागरूक और समझदार नागरिक की जिम्मेदारी है।

7) उच्च कोटि के प्रशासनिक और राजनीतिक व्यक्ति –

श्रीकृष्ण एक उच्च कोटि के प्रशासनिक एवं राजनीतिक व्यक्तित्व थे। उनके समस्त विचार का एकमात्र संदेश है- कर्म। कर्म के माध्यम से ही समाज और राष्ट्र की बुराईयों को दूर करके उनके स्थान पर अच्छाई को स्थापित करना संभव होता है। श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व यह बताता है कि प्रेम और करुणा से भरा व्यक्ति भी अनीति और अत्याचार के प्रति अत्यंत कठोर होता है। यह बात आज के भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में दिखाई पड़ती है। भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने कर्म को ही अपना जीवन बना दिया है। इतने वर्षों से निरन्तर समाज सेवा के कामों को करने से यह उनके जीवन का अंग बन गया है। उनका स्वभाव देश के गरीब, दलित, युवा और समाज के हाशिए पर रह रहे लोगों के प्रति अत्यन्त ही करुणा से भरा हुआ है और इन सबके बेहतर कल के लिए वह और उनकी सरकार निरंतर कार्य कर रही है तो वहीं दूसरी तरफ भ्रष्टाचार करने वाले, अपराध करने वालों इत्यादि के प्रति बिना भेद किए जीरो टॉलरेंस की उनकी नीति उनके व्यक्तित्व का कठोर और दृढ़ पक्ष है। ऐसा प्रतीत होता है कि श्री कृष्ण के जीवन दर्शन को प्रधानमंत्री जी ने अपना दर्शन बना लिया है। देश का नेतृत्व कर रहे व्यक्ति से यही अपेक्षा भी रहती है इसी का परिणाम है कि आज विश्व भर के देश भारत को आशा की नजर से देखते हैं। दुनिया के अधिकतर देशों का मानना है कि मोदी जी का व्यक्तित्व ऐसा है कि दुनिया की अनेकों समस्याओं का समाधान उनके माध्यम से हो सकता है। मोदी जी के नेतृत्व में भारत जीवन के कल्याण के लिए गीता रूपी ज्ञान भी देता है और धर्म और अच्छाई के लिए महाभारत जैसा युद्ध भी करने के लिए तैयार है।

8) नियम और रीति रिवाज बदलाव को स्वीकार करने वाले होने चाहिए –

श्री कृष्ण का मानना था कि नियम और रीति रिवाज को समाज तथा मानवता के कल्याण के लिए ही बनाए जाते हैं। यदि इन नियमों से समाज का कल्याण प्रभावित होता है तो इन्हें या तो बदल देना उचित है या इससे आगे बढ़ जाना अच्छा है। समाज या राष्ट्र का नियम हमेशा इसकी बेहतरी के लिए ही होना चाहिए। कृष्ण ने धर्म की स्थापना के लिए कई बार नियमों में बदलाव किए और परंपराओं को छोड़कर आगे भी बढ़े। बचपन में उन्होंने अपने स्थानीय देवता गोवर्धन गिरिराज की पूजा के लिए इंद्र की पूजा का विरोध किया। क्योंकि इसके माध्यम से उनको अपने लोगों के विश्वास को बढ़ाना था। एक नेतृत्व कर रहे व्यक्ति का यही दृष्टिकोण होना चाहिए कि किस प्रकार वह समाज की चेतना को जागृत करता रहे। वर्तमान में भारत की सरकार ने कई सारे ऐसे कानूनों में बदलाव किए जिनका वर्तमान में कोई अर्थ नहीं था। जम्मू कश्मीर में आर्टिकल 370 में व्यापक बदलाव से वहां के लोगों के जीवन स्तर में सुधार और भारत का सम्पूर्ण कानून वहां लागू किया जिसके माध्यम से वहां से निवासियों की राष्ट्रीय भावन को और बल मिला। इसी प्रकार मुस्लिम महिलाओं के जीवन स्तर में क्रांतिकारी बदलाव के रूप में तीन तलाक कानून को समाप्त कर सरकार ने लोककल्याण के अपने दायित्व को पूरा किया है। वर्तमान सरकार अपने इन सभी कार्यों से अपने उद्देशों “सबका साथ, सबका विकास और सबका प्रयास” के अपने नारे को सही साबित कर रही है। श्री कृष्ण के जीवन से एक उच्च कोटि के राजनीतिक नेतृत्व को इसी रूप में अपनाया जा सकता है। यह सभी बदलाव निश्चित ही समय के साथ अत्यंत प्रासंगिक हैं। यह भारत भूमि पर कृष्ण और राम जैसे महापुरुषों के जीवन और कार्य का ही प्रभाव है कि भारत आज उनके विचारों से प्रेरणा लेकर विकास के सभी आयामों में आगे बढ़ रहा है।

डॉ. आलोक कुमार द्विवेदी:

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में PHD। वर्तमान में लखनऊ KSAS (INADS – USA )में सहायक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। दर्शनशास्त्र, धर्म, राजनीति और संस्कृति संबंधित विषयों का विशद अध्यन एवं रुचि

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