तिरुपति मंदिर का मुद्दा देश भर में छाया हुआ है। मंदिर के लड्डू में जानवर की चर्बी और मछली के तेल होने की बात सामने आई। इसके बाद आक्रोशित हिन्दू संगठनों ने मंदिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त कराने की अपनी पुरानी माँग को मजबूती से उठाना शुरू कर दिया है। तिरुपति मामले के खुलासे को हिन्दू संगठन एक अवसर के रूप में ले रहे हैं, ताकि आगे इस तरह की घटनाएँ न दोहराई जाएँ। हिन्दू संगठन और इसके प्रतिनिधि एकमत से इस मौके का इस्तेमाल मंदिरों को सरकार कब्जे से मुक्त कराने के लिए कर रहे हैं और जल्द ही बड़ा ऐलान होने वाला है।
मामला भले ही तब का हो जब आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की सरकार थी, लेकिन देश के दूसरे मंदिरों की भी शुचिता एवं पवित्रता बनाए रखने के लिए आवाज़ उतनी शुरू हो गई है। संतों के साथ-साथ सामान्य हिन्दुओं ने भी इसके लिए आवाज़ उठानी शुरू कर दी है।
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने कड़ी कार्रवाई का आश्वासन दिया है। डिप्टी CM पवन कल्याण इस मुद्दे को लेकर सबसे ज़्यादा मुखर हैं। उन्होंने हिन्दू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने के लिए अभियान छेड़ दिया है। साथ ही वो 11 दिनों के अनुष्ठान के जरिए प्रायश्चित भी कर रहे हैं। पुरोहितों ने विधि-विधान से तिरुपति तिरुमला स्थित वेंकटेश्वर मंदिर का शुद्धिकरण भी किया है। पवन कल्याण ‘सनातन रक्षा बोर्ड’ की स्थापना की माँग कर रहे हैं। उधर प्रयागराज में ‘अखाड़ा परिषद’ ने भी ‘सनातन धर्म रक्षा बोर्ड’ के लिए प्रारूप तैयार करने का ऐलान किया है।
इस पूरे मामले में संत समाज की राय और भविष्य की रणनीति समझने के लिए हमने ‘अखिल भारतीय संत समिति’ के महामंत्री स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती से बातचीत की। उनका सीधा सवाल था कि जब मुस्लिम राजाओं द्वारा दी गई जमीनों को वक्फ बोर्ड की संपत्ति घोषित कर दिया गया है, तो फिर हिन्दू राजाओं की जो जमीनें थीं वो कहाँ गईं? उन्होंने 2013 के वक्फ प्रॉपर्टी एक्ट पर सवाल उठाए, जो 1995 के वक्फ एक्ट का संशोधन था। बता दें कि इस संशोधन के तहत वक्फ बोर्ड को ये अधिकार दे दिया गया कि वो नोटिस देकर या अख़बार में छपवा कर अपने दावे वाली किसी भी जमीन को खाली करा सकता है।
स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती ने इस पूरे का पूरे संशोधन को ही अवैध करार दिया। जब ये लाया गया तब देश में UPA की सरकार थी, सोनिया गाँधी उस सरकार की सर्वेसर्वा थीं और डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हुआ करते थे। ये वही कानून है, जिसका इस्तेमाल कर के कॉन्ग्रेस ने 2014 में सत्ता से जाते-जाते राष्ट्रीय राजधानी स्थित 123 संपत्तियों को वक्फ बोर्ड को सौंप दिया। इस कानून ने वक्फ बोर्ड को असीमित शक्तियाँ दे दीं, जिन्हें किसी अदालत में भी चुनौती नहीं दी जा सकती थी। यानी, सामान्य जमीनों के विवाद को लेकर आ SDM की अदालत में जा सकते हैं, हाईकोर्ट जा सकते हैं, सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं। ‘अखिल भारतीय संत समिति’ के महामंत्री ने इस प्रावधान पर ऐतराज जताया है कि आखिर कोई मजहबी बोर्ड देश की न्यायपालिका से भी ऊपर कैसे हो सकता है।
स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती का आरोप है कि इस कानून का इस्तेमाल कर के ग्राम सभा की जमीनों और बंजर जमीनों को भी वक्फ बोर्ड की संपत्ति घोषित कर दी गोई दी गई। उनका आकलन है कि जितना पंजाब का क्षेत्रफल है, उसका आधा कर दें तो उतनी जमीन वक्फ बोर्ड कब्जाए बैठा है। भारत में केंद्रीय रेल मंत्रालय और केंद्रीय रक्षा मंत्रालय के बाद सबसे अधिक संपत्ति का स्वामी वक्फ बोर्ड ही है। कुल मिला कर न केवल ये बराबरी के सिद्धांत के खिलाफ है, बल्कि भारत की न्याय व्यवस्था को भी धता बताता है। सोचिए, जो हिन्दू पाकिस्तान में अपना सब कुछ छोड़ कर आए उन्हें कुछ नहीं मिला, एक नागरिकता तक के लिए CAA के आने तक इंतज़ार करना पड़ा, वहीं भारत से पाकिस्तान में गए मुस्लिमों की जमीनों को वक्फ बोर्ड को सौंप दिया गया।
ये तो थी वक्फ बोर्ड की बात, जो इस्लाम के हिसाब से भारत में काम करता है। लेकिन, हिन्दुओं का ऐसा कोई बोर्ड अब तक नहीं है। स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती वो ध्यान दिलाते हैं कि भारतीय मंदिरों पर असीमित नियंत्रण के लिए अंग्रेज जो कानून लेकर आए थे, वो अभी तक चले ही आ रहे हैं। मंदिरों से उनकी स्वायत्ता छीन ली गई और उनकी आय व संपत्तियों का इस्तेमाल अंग्रेज अपने लिए करने लगे। ये वही मंदिर हैं, जिन्हें लूटने के लिए कभी इस्लामी आक्रांता भारत में हमला करते थे। महमूद गजनी ने सोमनाथ से लेकर मथुरा तक के मंदिरों को कैसे लूटा और उन्हें जर्जर अवस्था में पहुँचा दिया, ये हमें पता है।
मंदिरों ने सदियों से जो संपत्ति अर्जित की, आय के स्रोत बनाए, श्रद्धालुओं ने अपनी आस्था के कारण जो दान दिए – वो सब अंग्रेजों के, फिर सरकारी कब्जे में चले गए। वो फिर हिन्दुओं को अब तक वापस नहीं मिल पाए हैं। स्वामीजी बताते हैं कि बिहार में ‘धार्मिक न्यास’ बोर्ड है, उसे मंदिरों की आय पर सरकार को 4% टैक्स देना पड़ता है। उनका कहना है कि जहाँ एक तरफ वक्फ बोर्ड के पास उसकी 80% जमीनों का वैध दस्तावेज नहीं हैं, वहीं दूसरी तरफ मंदिरों से टैक्स वसूले जा रहे हैं। सन् 1863 में अंग्रेज भारत में ‘रिलीजियस एंडोमेंट्स एक्ट’ लेकर आए। मद्रास में सन् 1923 में इस तरह का कानून लाया गया। 1950 में इसे संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 में डाला गया। अदालतों ने भी ‘मंदिर सुधार’ के नाम पर मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण को जायज ठहराया। श्री शिरूर मठ ने इस संबंध में केस दायर किया था, लेकिन 1954 में न्यायपालिका ने सरकार के पक्ष में ही फैसला सुनाया।
2017 में ‘अखिल भारतीय संत समिति’ ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर सनातन हिन्दू मंदिरों के नियंत्रण के संबंध में अपनी माँग रखी थी। इसमें कहा गया था कि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है लेकिन फिर भी संपूर्ण भारत के मंदिरों पर असंवैधानिक रूप से सरकारी कब्ज़ा है। पत्र में याद दिलाया गया था कि मस्जिदों, चर्चों और गुरुद्वारों के विषय में ऐसा नहीं है – इन्हें इनके ही मजहब के लोग संचालित करते हैं। मंदिरों की समितियों में गैर-हिन्दुओं और राजनीतिक पदाधिकारियों के मनोनयन से इन्हें क्षति पहुँचने की बात भी उन्होंने कही। सवाल ये पूछा गया था कि धर्म-स्वतंत्रता अगर संविधान प्रदत्त मूल अधिकार है तो फिर हिन्दुओं के मंदिरों का प्रबंधन हिन्दुओं के पास क्यों नहीं है?
स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती का कहना है कि लगभग 4 लाख मंदिरों को हिन्दुओं के नियंत्रण में लाए जाने की आवश्यकता है, इनमें से 33,880 ऐसे हैं जिनसे सरकार को मोटी कमाई हो रही है। इस आय का इस्तेमाल हिन्दू समाज के लिए और सनातन संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए होना चाहिए था। उक्त पत्र में सरकार से अपील की गई थी कि वो धार्मिक संगठनों से संवाद कर के हिन्दू मंदिरों को वापस हिन्दुओं के नियंत्रण में लाने के लिए काम करे। ये तो थी पीछे की बात, अब आगे क्या? हिन्दू संगठन अब इस दिशा में कैसे बढ़ रहे हैं?
इसके जवाब में स्वामी जीतेंद्रानंद सरस्वती ने जानकारी दी कि फ़िलहाल अभी आंतरिक कागजी काम चल रहे हैं, बैठकें हो रही हैं और अगले 2 महीने में इस संबंध में कुछ ऐलान किया जाएगा। उन्होंने बताया कि ‘अखिल भारतीय संत समिति’, काशी विद्वत परिषद और विश्व हिन्दू परिषद (VHP) के अलावा RSS के साथ भी विचार-विमर्श चल रहा है। अब इंतज़ार है कि संत समाज क्या प्रस्ताव लेकर आता है, सरकार के साथ उनकी इस मुद्दे पर किस प्रकार सहमति बनती है। ऐसे समय में ये इंतज़ार और महत्वपूर्ण हो जाता है, जब वक्फ बोर्ड एक-एक कर मंदिरों तक की संपत्तियाँ निगल रहा है और दूसरी तरफ हमारे मंदिरों की आय से सनातन के उत्थान के कार्य होने की बजाए सारा पैसा सरकारी खजाने में जा रहा है।