रवीश कुमार के सामने पत्रकार की ‘गर्दन उड़ाने’ की बातें

समझिए 'औरंगजेब' वाले वीडियो पर क्यों घिरे अखिलेश यादव

अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने लोकसभा चुनाव 2024 में उत्तर प्रदेश में 37 सीटें जीत लीं, जिसके बाद कार्यकर्ताओं का उत्साह उफान पर है। इतने उफान पर, कि अयोध्या में सपा नेता मोईद खान और उसके सहयोगी राजू खान पर निषाद समाज की एक नाबालिग लड़की से बलात्कार का आरोप लगता है, लेकिन सोशल मीडिया पर पार्टी कार्यकर्ता इसका बचाव करते नज़र आते हैं। उत्साह का आलम ये है कि बाद में सपा के ही राशिद खान नामक नेता पर पीड़िता के परिवार को धमकी देने और पीड़िता को जान से मारने की कोशिश का आरोप लगता है।

अब सपा के कुछ कार्यकर्ता फिर से अति-उत्साह में कुछ ऐसा कर रहे हैं, जिससे पार्टी की ही फजीहत हो रही है। आइए, बताते हैं कि मामला क्या है। एक टीवी चैनल के शो में बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह ने एक पुराना वाकया सुनाया, जो समाजवादी पार्टी के लोगों को बिल्कुल भी पसंद नहीं आया। प्रदीप सिंह ने पूछा कि क्या अपने किसी मुख्यमंत्री से सुना है कि वो किसी बड़े मीडिया समूह के स्थानीय संपादक को अपने घर पर बुलाए और उसकी गर्दन पर तलवार रख दे? उन्होंने याद दिलाया कि स्वयं अखिलेश यादव इस चीज को स्वीकार कर चुके हैं।

प्रदीप सिंह ने बताया कि उक्त संपादक को रात भर जाने नहीं दिया गया, क्योंकि उस अखबार में अखिलेश यादव की तुलना औरंगजेब से की गई थी। याद दिला दें कि ये वो दौर था जब सपा पर नियंत्रण को लेकर इसके संस्थापक मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश के बीच तनातनी चल रही थी। पार्टी कार्यालय में ही पिता-पुत्र के बीच झड़प की तस्वीरें आती थीं। मुलायम सिंह यादव अपने भाई शिवपाल यादव के कार्यक्रमों में दिखने लगे थे, जिनसे अखिलेश यादव का छत्तीस का आँकड़ा था। आखिरकार अंत में जीत पुत्र-मोह की हुई और मुलायम सिंह यादव सपा की गतिविधियों से किनारे कर दिए गए।

ये था उस समय का परिदृश्य। अब देखते हैं कि प्रदीप सिंह द्वारा बताई गई घटना का जो लोग विरोध कर रहे हैं, वो कितने पानी में हैं। ये मामला एक इंटरव्यू का है, जिसे मीडिया के लिबरल समूह का प्रतिनिधित्व करने वालों में से एक रवीश कुमार ही संचालित कर रहे थे। 6 वर्ष पहले अखिलेश यादव ने ‘NDTV युवा कन्क्लेव’ में हिस्सा लेते हुए ये इंटरव्यू दिया था। इसी शो में अखिलेश यादव ने बताया था कि कैसे उन्होंने पत्रकार को धमकाते हुए कहा था – “मेरी गलती है कि मैंने तुम्हें FIR कर के जेल नहीं भेजा।” इस पर रवीश कुमार उनसे पूछने लगे कि अब आप जेल भेजेंगे, यानी, आप भी वही करेंगे जो दूसरे करते हैं।

चूँकि ये एक राष्ट्र-स्तर के चैनल का कार्यक्रम था, निष्पक्षता के दिखावे के लिए ही सही रवीश कुमार को यहाँ अखिलेश यादव को टोकना पड़ा। अखिलेश यादव फिर भी नहीं रुके, उन्होंने मीडिया को अप्रत्यक्ष रूप से ये चेतावनी दे डाली कि उनकी आलोचना का परिणाम क्या हो सकता है। उन्होंने बताया, “मैंने एक बड़े पत्रकार को दिल्ली से लखनऊ बुलाया था। मैंने कहा कि बताओ तुमने कितने पैसे में औरंगजेब लिख दिया, मैं इससे दोगुना पैसा देने को तैयार हूँ लेकिन तुम मुझे बता तो देते।” यानी, अखिलेश यादव को मीडिया को ‘खरीदने’ से भी गुरेज नहीं है। सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात वो है जो अखिलेश यादव ने इसके बाद कही।

उन्होंने कहा, “मैंने उसे भी छोड़ दिया। यही तो गलती था। मुझे भी औरंगजेब की तरह तलवार निकालनी थी और उस पत्रकार को उसी समय खत्म कर देना चाहिए था।” एक विचारधारा के विरुद्ध किसी भी स्तर पर जाकर प्रपंच के लिए अक्सर लोगों के निशाने पर रहने वाले रवीश कुमार जैसे पत्रकार तक को यहाँ अखिलेश यादव को टोकते हुए बताना पड़ा कि वो हिंसा की बातें कर रहे हैं। जिस पार्टी में अनुशासन होगा, वहाँ इस तरह के बयान पर आंतरिक कार्रवाई हो जाती। लेकिन, अखिलेश यादव पार्टी सुप्रीमो हैं। उनकी ही पार्टी है। लोकतंत्र की बातें करने वाले दशकों तक अपनी पार्टियों में एक ही परिवार का राज रखते हैं। वही सर्वेसर्वा होते हैं।

विडम्बना ये देखिए कि दुनिया भर में यही नेता ये माहौल बनाते हुए चलते हैं कि भारत की मौजूदा सत्ता ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ (FoE) के खिलाफ है, पत्रकारों का दमन हो रहा है और प्रेस स्वतंत्र नहीं है। तलवार से गर्दन उड़ा डालने की बात करने वाले नेता जब प्रेस की स्वतंत्रता की बात करें, तो इसे दिखावा न कहें तो क्या कहें? एक और ताज़ा खबर जान लीजिए। आलोचना को लेकर हत्या की धमकी देने वाले इन्हीं नेता ने अब ‘समालोचना’ के लिए पत्रकारों को पुरस्कृत करने की घोषणा की है। अखिलेश यादव ने ‘सर्वश्रेष्ठ समालोचक सम्मान’ की घोषणा की है, जो हर वर्ष दिया जाएगा। इसमें कुछ नया नहीं है, ‘यश भारती’ भी सपा के काल में एक सम्मान हुआ करता था।

कहने को तो ‘यश भारती’ के तहत 11 लाख रुपए का चेक देकर ‘बुद्धिजीवियों’ को सम्मानित किया जाता था (1994 में इसकी शुरुआत के समय ये राशि 1 लाख रुपए हुआ करती थी), लेकिन इन तथाकथित बुद्धिजीवियों की विचारधारा क्या रही होगी ये आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। मायावती ने भी मुख्यमंत्री रहे इन पुरस्कारों को बंद कर दिया था। अखिलेश यादव की सरकार जब आई तो वो दो कदम और आगे बढ़ गए, उन्होंने पुरस्कार विजेताओं के लिए आजीवन 50,000 रुपए के वार्षिक पेंशन की घोषणा कर डाली। इससे सरकारी खजाने पर बोझ पड़े तो पड़े। ताज़ा विवादों के बीच अब तक अखिलेश यादव ने ‘तलवार से पत्रकार की गर्दन उड़ाने’ वाली बात पर अभी तक चुप्पी नहीं तोड़ी है।

Exit mobile version